साधक के जीवन निर्वाह के उपाय को वृत्ति कहते हैं। उत्सृष्ट वृत्ति का एक प्रकार है। पाशुपत शास्त्र के अनुसार देवता या मातृका आदि के उद्देश्य से जो अन्न भेंट चढ़ाकर कहीं रखा गया हो अथवा कहीं छोड़ा गया हो वह अन्न उत्सृष्ट कहलाता है। पाशुपत साधक को साधना के मध्यम स्तर पर वही उत्सृष्ट अन्न खाना होता है, भिक्षा नहीं मांगनी होती है। उत्सृष्ट के रूप में जो भी मिले उसी पर निर्वाह करना होता है। यह उत्सृष्ट वृत्ति का द्वितीय भेद है। (ग. का. टी. पृ. 5)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
उन्मत्तवद् विचरण
पागल की भाँति विचरण।
पाशुपत साधक को पाशुपत योग करते करते भिन्न भिन्न आचारों का आचरण करना होता है। उनमें से साधना की उत्कृष्ट भूमिका में एक उन्मत्तवद् विचरण नामक आचार है। इसमें साधक को उन्मत्त की तरह घूमना और व्यवहार करना होता है। उसको अपने अंतःकरणों और बाह्यकरणों में वृत्ति विभ्रम का अभिनय करना होता है। ऐसे उन्मत्त की तरह घूमते रहने से लोग उसको मूढ़ उन्मत्त कहकर निंदित करते हैं जिससे उसके पुण्य बढ़ते हैं तथा पाप घटते हैं क्योंकि साधक की प्रशंसा करने वाला उसके पापों को ले लेता है और फलत: साधक के सभी संचित कर्म दूसरों के लेखे में चले जाते हैं। साधक को कर्मों से छुटकारा मिलता है। यह बात मनुस्मृति में भी कही गई है। (मनु स्मृति 6-79)। संभवत: पाशुपत साधकों ने भी इसी सिद्धांत का अनुसरण करते हुए इस बात पर अत्यधिक बल दिया है। (पा. सू. कौ. मा. पृ. 96, 97)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
उपस्पर्शन
विधि का एक प्रकार।
पाशुपत साधक को आगंतुक मल (कलुष) निवृत्ति के लिए भस्म का स्पर्श करना होता है। उपस्पर्शन यहाँ पर स्नान के पर्याय के रूप में प्रयुक्त हुआ है। एक बार भस्म स्नान के बाद यदि कुछ उच्छिष्ट वस्तु छू जाए अथवा उच्छिष्ट व्यक्ति या पदार्थ पर दृष्टी पड़े तो साधक को फिर से दुबारा भस्म का स्पर्श करना उपस्पर्शन कहलाता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 37)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
उपहार
पाशुपत धर्म की विधि का एक अंग।
पाशुपत विधि के अनुसार व्रत या नियम को उपहार कहते हैं। पाशुपत साधक को अपने आप को उपहार रूप में भगवान महेश्वर को अर्पण करना होता है। अपनी समस्त इंद्रियों का प्रत्याहार करके, समस्त कायिक, वाचिक तथा मानसिक व्यापारों को महेश्वर को उपहार स्वरूप में अर्पित करके स्वयं भृत्यवत् व्यवहार करना होता है; अर्थात् पाशुपत साधक का कोई भी व्यापार अपने इस क्षुद्र सीमित व्यक्तित्व से संबंधित नहीं रखना होता है। अपितु समस्त व्यापारों को, यहाँ तक कि अपने आप को भी महेश्वर को दासवत् अर्पण करना होता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 14)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
उपाय
साधन।
ज्ञान, तप आदि पाँच लाभों के प्राप्ति के पाँच साधन पाशुपत दर्शन में उपाय कहलाते हैं। इस तरह से इस साधना के साधकतम साधन उपाय हैं अर्थात् वे साधनाएँ जिनके अभ्यास से साधक शुद्धि को प्राप्त करता है। (ग. का. टी. पृ. 4)। उपाय पंचविध हैं -
इस तरह से उपायों के भीतर सभी स्तरों पर की जाने वाली पाशुपत साधना आती है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
ऋषि
ईश्वर का नामांतर।
ईश्वर स्वतंत्र क्रियाशक्ति संपन्न होने के कारण ऋषि कहलाता है। (ग. का. टी. पृ. 11)। ईश्वर को समस्त क्रिया व विद्या का ईश होने के कारण ऋषि नाम से अभिहित किया गया है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 136, 127)। ऋषि शब्द की ऐसी व्याख्या कौडिन्य ने की है। यद्यपि यह व्याख्या निरुक्त या व्याकरण से सहमत नहीं है फिर भी पाशुपत दर्शन में ऐसा माना गया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
एक
युक्त साधक का लक्षण।
पाशुपत योग के अनुसार युक्त योगी विषयों से असंपृक्त होकर रुद्र में चित्त को पूरी तरह से संलग्न करके निष्कल रूप धारण करता है अर्थात् इंद्रियाँ और सांसारिक विषय उस साधक की चित्तवृत्ति से स्वयमेव छूट जाते हैं और वह रुद्र के साथ ऐकात्म्य प्राप्ति करके एक बन जाता हे। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 139)। शरीर तथा इंद्रियों से असंपृक्त हो जाने के अनंतर महेश्वर में तादात्म्य ही 'एकत्व' कहलाता है। (शरीरादि वियुक्तत्वम् एकत्वम्-ग. का. टी. पृ. 16)। यहाँ ऐकात्मका या ऐक्य से सायुज्य ही अभिप्रेत है, अद्वैत नहीं।
(पाशुपत शैव दर्शन)
एकवासा
एक वस्त्र को पहनने वाला।
पाशुपत संन्यासी को संन्यास की प्रथम अवस्था में केवल एक वस्त्र पहनना होता है। वह वस्त्र बैल की खाल या कोशों से निर्मित अथवा भूर्ज निर्मित वल्कल अथवा चर्म से निर्मित होता है। पाशुपत सूत्र के कौडिन्य भाष्य के अनुसार एक वस्त्र कौपीन रूप में केवल लज्जा के प्रतीकार के लिए पहनना होता है और इस वस्त्र को भिक्षा में ही प्राप्त करना होता है। इस सब का यही तात्पर्य निकलता है कि साधक किसी भी तरह से वस्तु संग्रह न करे और सांसारिक बंधनों में न फँसे। जितना उससे हो सकता है, वह उतनी मात्रा में अपरिग्रही बने। किसी भी वस्तु के स्वामी होने का अभिमान उसमें न रहे। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 34)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
एष
ईश्वर का नामांतर।
ईश्वर के सदा व सर्वदा अविचलित पर स्वभाव में रहने के कारण 'एष' नाम से उसे अभिहित किया गया है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 127; ग. का. टी. पृ. 11)। एष शब्द की ऐसी व्याख्या यद्यपि निरुक्त या व्याकरण के आधार पर ठहराई नहीं गई है, फिर भी कौडिन्य आदि ने एष शब्द का ऐसा अर्थ माना है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
ओंकार
ईश्वर का नामांतर।
साधक दुःखान्त प्राप्ति के लिए परम-सत्ता का ध्यान करता है। ध्यान नामरुपात्मक होता है, उसका नाम ओंकार माना गया है। परमशिव एकमात्र स्वतंत्र तत्व है और ऊँकार के जप के साथ भगवान शिव की स्मृति का अभ्यास किया जाता है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 125, ज.का.टी.पृ. 11)।