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Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-I

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अस्तेय
पाशुपत योग के अनुसार यमों का एक भेद।
पाशुपत योगी को उपहार के रूप में भोजन आदि के न मिलने पर किसी अन्य प्रकार से किसी अन्य वस्तु को ग्रहण करना स्तेय माना गया है। ऐसा न करना अस्तेय है। अर्थात् केवल वही वस्तु ग्रहण करनी होती है, जो उपहार के रूप में मिले, और कोई नहीं। स्तेय (चौर्य) छः प्राकर का माना गया है -
1. अदत्‍तादानम्-जो वस्तु नहीं दी गई हो फिर स्वयमेव ही उसे ले लेना।
2. अनतिसृष्‍टग्रहणम्-बालक, उन्मत्‍त (पागल) प्रमत्‍त (जो अपनी वस्तुओं को ध्यान से न रखता हो), वृद्‍ध अथवा निर्बल की वस्तु को ले लेना।
3. अनभिमतग्रहण-कीड़ों, भ्रमरों, पक्षियों आदि के काम आने वाली वस्तुओं का अपहरण।
4. अनुपालम्भ-जादू से, छल से या डांट फटकार आदि उपायों से किसी का सुवर्ण या वस्‍त्रों का हरण।
5. अनिवेदित उपयोग-गुरु को बिना अर्पण किए किसी भी भक्ष्य पदार्थ का पान या भोग।
पाशुपत शास्‍त्र में आचार्य इस छः प्रकार के स्तेय का निषेध करते है। चौर्य-पाप प्राणिवध के समान पाप होता है अतः पाशुपत धर्म के आचार में इसका सर्वथा निषेध किया गया है। (पा. सू. कौ भा. पृ. 24)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

अहिंसा
पाशुपत योग के अनुसार यमों का एक प्रकार।
पाशुपत धर्म में हिंसा का पूर्णरूपेण निषेध किया गया है। हिंसा तीन प्रकार की कही गई है-दुःखोत्पादन, अण्डभेद (अण्डे फोड़ देना) तथा प्राणनिर्मोचन। दुःखोत्पत्‍ति क्रोधपूर्ण शब्दों से, डांटने से, मारने पीटने से तथा भर्त्सना से होती है। अतः पाशुपत साधक के लिए चारों प्रकार के जीवों (जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उद्‍भिज्‍ज) के प्रति दुःखोत्पादन रूपी हिंसा का पूर्ण निषेध किया गया है। अण्डभेद नामक हिंसा का भी पूर्णरूपेण निषेध किया गया है। पशुपत साधक के लिए अण्डों को ताप, अग्‍नि तथा धूम के पास लाने का तथा उन्हें जरा भी हिलाने डुलाने का पूर्ण निषेध किया गया है अर्थात् अण्डों को किसी भी कारणवश बिगाड़ना या फोड़ना निषिद्‍ध है। प्राणनिर्मोचन नामक हिंसा का भी निषेध किया गया है। पाशुपत साधक को खाने पीने के बर्तन, पहनने के कपड़े उचित ढंग से देखने होते हैं ताकि किसी भी सूक्ष्म जीव की प्राणहानि न हो, क्योंकि सूक्ष्म जीव बहुत तीव्रता से मर जाते हैं। अतः अपने प्रयोग की हर वस्तु का ध्यान से परीक्षण करना होता है। यदि सिद्‍ध साधक के द्‍वारा ज़रा सी भी हिंसा हो तो उसका उच्‍च पद से पात होता है; अर्थात् वह फिर से बंधन में पड़ जाता है। अतः पाशुपत साधक को जल छानकर पीना होता है तथा इस प्रकार से हर तरह की हिंसा से सावधान रहना होता है। पाशुपत दर्शन के अनुसार जो साधक अहिंसा का पालन करता है उसको अमरत्व प्राप्ति होती है। इस प्रकार से अहिंसा की बहुत महत्‍ता बताई गई है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 16-19)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

आचार्य
उत्कृष्‍ट गुरु।
गुरु दो प्रकार का होता है-साधक और आचार्य। उत्कृष्‍ट गुरु को आचार्य कहते हैं। पाशुपत दर्शन के नौ गणों के तत्व को सामान्यतया जानने वाला और शिष्य का संस्कार करने वाला गुरु होता है। साधक गुरु अपने गुरु से पाशुपत शास्‍त्र के तत्वों के सामान्य ज्ञान को प्राप्‍त करके पाशुपत योग का अभ्यास पूरी दिलचस्पी से करता है और उसके फलस्वरूप अपवर्ग को प्राप्‍त कर लेता है। परंतु आचार्य वह गुरू होता है जो पाशुपत दर्शन के सभी तत्वों अर्थात् लाभ, मल, उपाय आदि को ठीक तरह से और विशेष ढंग से जानने वाला हो और शिष्य को उनके तत्वों का रहस्य समझा सके। इस तरह से वह परिपूर्ण शास्‍त्र ज्ञान को अच्छी तरह जानकर पाशुपत साधना के द्‍वारा अपवर्ग को प्राप्‍त करता है। आचार्य को पर गुरु भी कहा गया है। (ग. का. टी. पृ. 3)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

आचार्याभास
वस्तुत: गुरु न होने पर गुरु का आभास मात्र।
पाशुपत मत के अनुसार जो गुरु आगमों में से तत्वज्ञान को जानकार ही तृप्‍त होकर, आगे उस तत्वज्ञान का लाभ किसी को करा नहीं सकता है, उसे आचार्य नहीं, आचार्याभास कहते हैं। उसे अपर गुरु भी कहा गया है। आचार्याभास को तो शास्‍त्र का केवल पद-पदार्थ ज्ञानमात्र ही होता है, उस पर श्रद्‍धा नहीं होती है। नहीं तो यदि श्रद्‍धा हो भी तो फिर भी उसे योग साधना के द्‍वारा लाभ आदि तत्वों का साक्षात् अनुभव नहीं होता है। संक्षेप में केवल पढ़ने पढ़ाने वाला अध्यापक आचार्याभास कहलाता है। (ग. का. टी. पृ. 4)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

आयतनवासी
घर में अथवा मंदिर में रहने वाला।
पाशुपत धर्म के अनुसार साधना के प्रारंभिक स्तर में समस्त धार्मिक विधियाँ आयतन अर्थात् घर में या देव मंदिर में करनी होती है, क्योंकि दोनों धार्मिक कृत्यों के लिए उपयुक्‍त स्थान होते हैं। आयतन का अर्थ देव मंदिर अथवा घर होता है। पाशुपत योगी को आरंभ में भस्म स्‍नान, अनुष्‍ठान आदि सभी धार्मिक विधियों को आयतन में करना होता है। क्योंकि पाशुपत सूत्र कौडिन्य भाष्य में कहा गया है कि यदि शूलपाणि महेश्‍वर का कोई मंदिर (पुण्य स्थान) हो तो वह धार्मिकों का उपयुक्‍त आवास होता है तथा वहाँ धार्मिक कृत्य करने से सद्‍य: सिद्‍धि होती है। ग्राम से बाहर वृक्ष मूल आदि में रहने वाला साधक भी आयतनवासी कहलाता है। जिस पवित्र और शुद्‍ध स्थल में शिवोपासना सफलता से की जा सके वही आयतन माना गया है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 13)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

आहारलाघव
पाशुपत योग में यमों का एक प्रकार।
पाशुपत धर्म में पाशुपत संन्यासी के लिए भोजन प्राप्‍त करने की विशेष विधि प्रस्तुत की गई है। पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार दूषित उपायों से अर्जित भोजन की न्यून मात्रा भी लघु नहीं होती है और उचित उपायों से गृहीत भोजन की विपुल मात्रा भी लघु ही होती है। अर्थात् भोजन के परिमाण, मात्रा लाघव के नियामक नहीं है, अपितु भोजन अर्जित करने के उपाय नियामक है। उचित उपायों पर ही लाघव निर्भर रहता है। उचित घर से उचित रीति से यदि बहुत मात्रा में भी भोजन प्राप्‍त किया हो उसमें आहार लाघव ही होता है; परंतु अनुचित रीति से अर्जित अल्पमात्रा का भोजन भी आहार लाघव नहीं होता है। अतएव भोजन प्राप्‍त करने के ढंग में आहार लाघव रहता है। (पा. सू. कौ. वा. पृ. 31)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

ईश
ईश्‍वर का नामांतर।
ईश्‍वर समस्त जगत् का प्रभु होने के कारण ईश कहलाता है। कार्य रूप जगत् की सृष्‍टि, स्थिति, संहार आदि और जीवों के बंधन और मोक्ष सभी ईश्‍वर के ही हाथ में होते हैं। सभी उसकी इच्छा के अनुसार हुआ करते हैं। सभी का मूल संचालक वही हे। अतः सभी पर ईशन (प्रशासन) करता हुआ वह ईश कहलाता है। (श. का. टी. पृ. 92)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

ईश प्रसाद
लाभों के उपायों में एक अत्युत्‍तम उपाय।
भासर्वज्ञ के अनुसार ईश प्रसाद साधना के उपायों का एक प्रकार है। पाशुपत दर्शन में मुक्‍ति के कई साधन बताए गए हैं। परंतु पाशुपत सूत्र भाष्य में कौडिन्य ने अंत में ईश प्रसाद को ही मुक्‍ति का अंतिम व चरम साधन माना है। युक्‍त साधक का व्यक्‍तिगत प्रयत्‍न तो होना ही चाहिए, लेकिन ईश प्रसाद अधिक आवश्यक है। ईश्‍वर का शक्‍तिपात न होगा तो व्यक्‍तिगत प्रयत्‍न निष्फल होगा। यह ईश्‍वर की स्वतंत्र इच्छा मानी गई है कि वह किस जीव पर कब शक्‍तिपात करे। अंतत: ईश प्रसाद से ही दुःखों का का पूरी तरह से अंत हो जाता है और रुद्रसायुज्य की प्राप्‍ति होती है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 143)। ईश्‍वर साधक को भी अपने सर्वज्ञत्व आदि शक्‍तियों को देना चाहता है। ईश्‍वर की इस इच्छा को ही ईश प्रसाद कहते हैं। (कारणस्य स्वगुण दित्सा प्रसाद इत्युच्यते-ग. का. टी. पृ. 22)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

ईशान
ईश्‍वर का नामांतर।
समस्त विधाओं का ईश्‍वर होने के कारण ईश्‍वर ईशान कहलाता है। (पा. सू. 5-42; ग. का. टी. पृ. 12)।
(पाशुपत शैव दर्शन)

ईश्‍वर
भगवान पशुपति का नामांतर।
वह समस्त भूतों के कार्यों का अधिष्‍ठाता होने के कारण ईश्‍वर कहलाता है। समस्त चराचर जगत् का स्वामी होने के कारण तथा उन पर उसका ईशत्व होने के कारण वह ईश्‍वर कहलाता है। इस संसार के समस्त व्यवहारों पर उसे छोड़कर और किसी का भी पूरा अधिकार नहीं है। वही कर्तुम्, अकर्तुम्, अन्यथाकर्तुम् समर्थ होने के कारण एकमात्र ईश्‍वर है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 145, ग. का. टी. पृ. 12)।
(पाशुपत शैव दर्शन)


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