कर्म, विकर्म और अकर्म ये तीनों ही शब्द परस्पर सम्बन्धित अर्थ के बोधक हैं। यहाँ कर्म शब्द से श्रुतिविहित वैदिक कर्म विवक्षित है। श्रुति द्वारा निबिद्ध कर्म विकर्म है। श्रुतिविहित कर्म का विच्छेद अकर्म है। कर्म का बोधक श्रुतिवाक्य सीधे कर्म विधायक होता है। किन्तु अकर्म का बोधक श्रुतिवाक्य साक्षात् कर्म का विधायक न होने पर भी उस कर्म का विच्छेद करने वाले व्यक्ति की निन्दा द्वारा परोक्ष रूप से उस कर्म का विधायक होता है (अ.भा.पृ. 850)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अखण्ड ब्रह्माद्वैत
शुद्धाद्वैत मत में अखण्ड और सखण्ड भेद से अद्वैतब्रह्म दो प्रकार का है। केवल 'ब्रह्म' इस आकार वाले विशेषण शून्य ज्ञान का विषय अखण्ड ब्रहमाद्वैत है तथा 'इदं ब्रह्म' इस प्रकार के इदमर्थ (प्रपञ्च) सहित ज्ञान का विषय ब्रह्म सखण्ड ब्रह्माद्वैत है। विशेषणमुक्त वस्तुमात्र अखण्ड है और विशेषणयुक्त वस्तु सखण्ड है (अ.भा.प. 1194)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अघाश्लेष विनाश
नये पाप का उत्पन्न न होना और पूर्व में उत्पन्न हुए पाप का विनाश हो जाना अघाश्लेष विनाश है। मर्यादा भक्तिमार्ग में भक्त को ब्रह्म ज्ञान हो जाने पर भविष्य में पाप का अश्लेष (अनुत्पाद) होता है, तथा पूर्वार्जित पाप का विनाश हो जाता है। इसी प्रकार नये पुण्य का उत्पन्न न होना तथा पूर्व पुण्य का विनाश होना पुण्याश्लेष विनाश है (भा.सु.चौ.पृ. 1285)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अण्डघट
अण्डघट' इस पद से ब्रह्माण्ड गृहित होता है। यह अण्डघट प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन आठ आवरणों से ढँका है। घट शब्द शरीर का भी बोधक होता है। इस प्रकार यह ब्रह्माण्ड ब्रह्म का शरीर रूप है, जो उक्त आठ आवरणों से आवृत है (भा.सु. 10/14/11 वृंदावन प्रकाशन)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अधिष्ठान कर्तृत्व
शुद्ध ब्रह्म स्वतः कर्त्ता न होकर अधिष्ठाता के रूप में ही संपूर्ण कार्यजगत् का कर्ता होता है तथा ब्रह्म से अधिष्ठित होकर ही माया जगत् का उपादान कारण बनती है क्योंकि स्वयं अचेतन होने से माया स्वतः क्रियाशील नहीं हो सकती है। जैसे, सारथि से अधिष्ठित ही रथ क्रियाशील होता है। यही जगत् के प्रति ब्रह्म का अधिष्ठान कर्तृत्व है (भा,सु,वे,प्रे,पृ. 140)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अध्यारोपापवाद न्याय
अन्य में अन्य के तादात्म्य की बुद्धि या अन्य के धर्म की बुद्धि अध्यारोप है। इसे ही भ्रम शब्द से भी कहा जाता है। अधिष्ठान साक्षात्कार के अनन्तर अध्यारोप की निवृत्ति अपवाद है। जैसे, शुक्तित्व या रज्जुत्व का साक्षात्कार हो जाने पर रजतत्त्व या सर्पत्व का भ्रम निवृत्त हो जाता है। उक्त अध्यारोप और अपवाद की पद्धति ही अध्यारोपापवाद न्याय है (अ.भा.पृ. 507)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अनन्याधिपति
पुष्टिमार्ग में भगवान् भक्त से अनन्य होते हुए अधिपति कहे जाते हैं। क्योंकि पुष्टिमार्गीय भक्त भगवान से अनन्य होता है। कारण, पुष्टिमार्गीय भक्तों के हृदय में प्रभु ही साधन रूप में और फल रूप में भी स्थित हैं। अर्थात् भगवान् ही साधन रूप में अनन्य हैं और फल रूप में अधिपति हैं (अ.भा.पृ. 1404)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अनुभाव
भक्त के ऊपर भगवान् का प्रभाव ही अनुभाव है। भगवान् अपने अलौकिक प्रभाव को किसी विशिष्ट भक्त में प्रत्यक्ष दिखाते हैं। अर्थात् विशिष्ट भक्त स्पष्ट रूप से भगवत् प्रभाव से युक्त परिलक्षित होता है। इसीलिए ऐसा अलौकिक भगवत् प्रभाव वाला भक्त भी अपने भक्त का वैसे ही भजनीय होता है, जैसा कि भगवान् अपने उस विशिष्ट भक्त का भजनीय होता है (अ.भा.पृ. 1040)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अभिमानिव्यपदेश
अभिमानी देवता का व्यवहार अभिमानिव्यपदेश है। `मृदब्रवीत् आपोЅब्रुवन्` इत्यादि श्रुतियों में अचेतन मिट्टी या जल में बोलने का व्यवहार नहीं बताया गया है अपितु मिट्टी या जल के अभिमानी देवता के लिए बोलने का व्यवहार प्रतिपादित हुआ है (अ.भा.पृ. 555)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
अमानव पुरुष
जो व्यक्ति सद्योमुक्ति का अधिकारी नहीं है, किन्तु क्रममुक्ति का ही अधिकारी है, वह व्यक्ति इस लोक में अपने प्रारब्ध कर्म का भोग कर चुकने के बाद अमानव पुरुष द्वारा पहले ब्रह्मलोक तक पहुँचाया जाता है। तदनन्तर वह मुक्ति को प्राप्त कर जाता है। इस प्रकार अमानव पुरुष मुमुक्षु के लिए ब्रह्मलोक तक पहुँचाने का एक माध्यम है। किन्तु सद्योमुक्ति में अमानव पुरुष की अपेक्षा नहीं होती है। (अ.भा.प्र. 1372)