यहाँ पर कालुष्य भावों अथवा विचारों से संबंधित कलुषता है, अर्थात् किसी कलुषित (मलिन) वस्तु या व्यक्ति को देखने से अथवा उसके स्पर्श से बुद्धि द्वेष, इच्छा या क्रोध जैसी कलुषित भावना उत्पन्न होने पर बुद्धि कलुषित हो जाती है। पाशुपत संन्यासी का उद्देश्य अकलुषमति होना होता है। अतएव उसे उस प्रयोजन के लिए द्वेष, इच्छा व क्रोध रूपी कालुष्य को उत्पन्न करने वाली कलुषित वस्तुओं को नहीं देखना होता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
अक्रोध
क्रोध की अनुपस्थिति।
पाशुपत योग के अनुसार अक्रोध दस यमों में से एक प्रकार है। (पा. सू. को. भा. पृ. 15)। क्रोध चार प्रकार का कहा गया है-भावलक्षणक्रोध, कर्मलक्षणक्रोध, वैकल्यकर क्रोध तथा उद्वेगकर क्रोध। भावलक्षण क्रोध में असूया, द्वेष, मद, मान, मात्सर्य आदि मानसिक भाव उत्थित होते हैं।
कर्मलक्षणक्रोध में कलह, वैर, झगड़ा आदि कलहपूर्ण कर्म उत्पन्न होते हैं। वैकल्यकारक क्रोध में हाथ, पैर आदि अंगों पर प्रहार होने से उनकी क्षति हेती है तथा उद्वेगकारक क्रोध में अपनी अथवा शत्रु की प्राणहानि होती है जो उद्वेग को जन्म देती है। पाशुपत दर्शन में इस चार प्रकार के क्रोध का पूर्णत: निषेध किया गया है। क्रोध को मनुष्य का बहुत बड़ा शत्रु माना गया है। जिसके कारण व्यक्ति की हर एक बात तथा हर एक कृत्य निष्फल हो जाते हैं। अतः अक्रोध नामक यम को पाशुपत दर्शन में अवश्य पालनीय माना गया है। (पा. सू. कौ. भा. पृ 25-27)
(पाशुपत शैव दर्शन)
अक्षय
पाशुयोगी का एक लक्षण।
पाशुपत योगी क्षय को प्राप्त नहीं होता है, अर्थात् जगत् के प्रलय के समय भी उसका क्षय नहीं होता है, क्योंकि शिवतुल्य बनने के कारण उसका महेश्वर (शिव) के साथ परिपूर्ण ताद्रूप्य होता है। स्थूल शरीर का क्षय तो अवश्यम्भावी है, परंतु युक्त साधक की आत्मा पूर्ण ऐश्वर्य की प्राप्ति हो जाने पर महेश्वर के साथ तुल्य रूप होकर चमकती रहती है। (पा. सू. कौ, भा. पृ. 47, 50)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
अक्षयत्व
पाशुपत सिद्धि का लक्षण।
महेश्वर के अपार ऐश्वर्य के साथ परिपूर्ण व नित्य ताद्रूप्य अक्षयत्व कहलाता है। (ऐश्वर्येण नित्य संबंधित्वमक्षयत्वम्-ग . का. टी. पृ. 10)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
अघोर
ईश्वर का नामांतर।
पाशुपत दर्शन में भगवान महेश्वर को कई रूपों वाला कहा गया है। उसके विलक्षण व नाना रूपों में एक रूप अघोर है। अघोर, जो घोर अर्थात् भयंकर नहीं है, अपितु जो शांत, शिवमय एवं अनुग्रह कारक रूप है। (पा. सू. कौ. भा. पृ. 89)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
अघोरत्व
अघोर रूप भगवान शिव का अपने कल्याणकारी नाना विश्वमय रूपों पर अधिष्ठातृत्व ही उसका अघोरत्व है, अर्थात् ईश्वर जिस शक्ति से भिन्न-भिन्न शिवमय रूपों में प्रकट होकर विश्व का कल्याण करता है, उसकी शक्ति का वह रूप अघोरत्व कहलाता है। (ग. का. टी. पृ. 11)।
(पाशुपत शैव दर्शन)
अज
पाशुपत योगी का लक्षण।
पाशुपत दर्शन के अनुसार असंग योगी अथवा युक्त साधक अज (अजन्मा) होता है। यहाँ पर अज से मातृगर्भ से जन्म न लेने से तात्पर्य नहीं है। वह तो साधक क्या असाधक सभी ने लिया ही होता है; अपितु जैसा कि 'गणकारिका टीका' में कहा गया है कि युक्त साधक की चित्तवृत्तियों का प्रादुर्भाव किसी भी विषय के प्रति नहीं होता है। उसके चित्त में विषयोन्मुखी वृत्ति का जन्म नहीं होता है, अर्थात् उसका चित्त समस्त बाह्य वृत्तियों से शून्य हो जाता है। (ग. का. टी. पृ. 16)। ऐसी चित्तवृत्तियों से शून्य साधक अज कहलाता है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
अजत्व
युक्त साधक की अज की अवस्था में पहुँचने की स्थिति अजत्व कहलाती है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
अजर
पाशुपत साधक का लक्षण।
पाशुपत दर्शन के अनुसार युक्त योगी को जरा अर्थात् वृद्धावस्था स्पर्श नहीं करती है। वृद्धावस्था के साथ-साथ होने वाले शारीरिक परिवर्तन (जैसे इंद्रियों की शक्तिहीनता आदि) पाशुपत योगी को नहीं होते हैं; क्योंकि उसने इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली होती है। वह इंद्रियों की सहायता के बिना ही अपनी स्वतंत्र इच्छा के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों को धारण करने में समर्थ होता है। अत : इंद्रियों के अधिष्ठानों की शिथिलता या आयु का क्रमिक क्षय उस योगी के लिए बाधक नहीं बनते हैं। अतएव पाशुपत योगी को अजर कहा गया है।
(पाशुपत शैव दर्शन)
अजरत्व
पाशुपत सिद्धि का लक्षण।
शरीर व इंद्रियों के परिवर्तन से प्रभावित न होना अर्थात् जराभाव के प्रभाव से पूर्णरूपेण मुक्तता की अवस्था अजरत्व कहलाती है। (ग. का. टी. 10)।