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Awadhi Sahitya-Kosh

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ओमप्रकाश त्रिपाठी ‘प्रकाश’
महोली, सीतापुर के निवासी प्रकाश जी का जन्म सन् १९३३ में हुआ। ये एक अच्छे साहित्यकार हैं। इन्होंने अपना साहित्य सृजन अधिकांश अवधी भाषा के माध्यम से किया है। इन्होंने अपनी रचनाओं में समाज को नई दिशा देने एवं उसे सन्मार्ग पर पहुँचाने की संकल्पना की है। हमार देशवा, गाँव पंचाइति, होली मा आदि इनकी अवधी की मुक्तक रचनाएँ हैं। ये कृषक इण्टर कालेज, महोली में हिन्दी अध्यापक भी रहे।

डॉ. ओमप्रकाश त्रिवेदी
इनका जन्म १५ अगस्त सन् १९३४ को ग्राम ठाकुरपुर, ब्लाक त्रिवेदीगंज, जनपद बाराबंकी के पं. श्री शुकदेव प्रसाद त्रिवेदी के यहाँ हुआ था। शिक्षोपरांत इन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय एवं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अस्थायी प्रवक्ता के रूप में अध्यापन करते हुए सन् १९७१ में लखनऊ के के.के.वी. कालेज में स्थायी प्रवक्ता हो गये। अभी हाल में हिन्दी विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय से रीडर पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। इन्होंने अवधी साहित्य पर शोध कार्य किए-कराये हैं- ‘अवधी भाषा के प्रमुख कवि’ उनकी है। सम्प्रति ओम् निवास ११४, मवइया, लखनऊ में स्थायी रूप से रह रहे हैं।

ओमप्रकाश मिश्र
कुम्हरावाँ, लखनऊ में जनमे मिश्र जी एक उच्चकोटि के साहित्यकार हैं। इन्होंने अवधी की विशेष सेवा की है। इनकी ‘विकासायन’ नामक कृति अवधी साहित्य की एक विशिष्ट उपलब्धि है।

कजरी
यह श्रावण मास में स्त्रियों द्वारा गेय अत्यन्त लोकप्रिय अवधी लोकगीत है। अवध की स्त्रियाँ झूले पर झूलती हुई प्रायः ‘कजरी’ गाती हैं। सावन के शुक्लपक्ष की तृतीया को ’कजरी तीज’ व्रत होता है। अनुमानतः इसी व्रत के आधार पर इन गीतों का नामकरण कजरी हुआ होगा। ‘कजरी’ में किसी विशेष घटना का उल्लेख न होकेर मानव-हृदय के विचारों का उल्लेख रहता है। कजरी में राधा-कृष्ण और गोपियाँ ही मुख्य वर्ण्य विषय हैं। इस गीत में श्रृंगार रस के दोनों पक्षों के चित्र देखने को मिलते हैं।

कठुला
यह जातकर्म अथवा जन्मोत्सव से सम्बन्धित एक अवधी लोकगीत है। इसमें पुत्रैषणा का भाव होता है।

कढ़िलउना गीत
यह गीत उस समय गाया जाता है जब बच्चे का जन्म दिन मनाया जाता है। अवध में जन्म दिन मनाने की विशिष्ट प्रथा है। बच्चे को प्रत्येक जन्म दिन पर उसी वक्त, जिस समय बच्चे का जन्म हुआ था एक डलिया में बिठाकर खींचा जाता है। यह रस्म विवाह होने तक चलती रहती है।

कन्यादान
विवाहोत्सव पर गाया जाने वाला यह अवधी लोकगीत अत्यन्त कवित्वपूर्ण एवं मार्मिक है। इसका वर्ण्य विषय है- विवाह मण्डप के नीचे माता-पिता द्वारा वर को कन्यादान।

कन्हैया बख्श
ये भारतेन्दु युग के अवधी साहित्यकार हैं।

कबीर
अवध प्रदेश में होलिकोत्सव के अवसर पर स्त्री-पुरुषों द्वारा कुछ ऐसे लोक गीत गाए जाते हैं जो सभ्य समाज के लिय वर्ज्य हैं। इन्हें ’कबीर’ संज्ञा देने के पीछे कई रहस्य हैं। कबीरपंथी, निरगुन-विचारक तत्त्व-निरूपण करते हुए जो कटूक्तियाँ कहते रहे हैं, उसके कारण प्रत्येक कटु वाणी को रामोपासक तुलसी-अनुयायी अवधवासी जन इस लोकगीत को भी कबीर कहने लग गए। इसमें “अरा रा रा गों’ के साथ गुप्तांगों का उल्लेख किया जाता है जो उद्धरणीय नहीं है।

कबीर परचई
इसके रचयिता अनंतदास जी हैं। इनका समय सं. १६०० के आसपास माना जाता है। ‘कबीर परचई’ की छः हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध हैं। इसमें कबीर के जीवन की प्रमुख घटनाओं का वर्णन किया गया है। समस्त ग्रंथ दोहा-चौपाई में लिखा गया है।


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