शुक्ल जी आधुनिक अवधी के सम्राट कहे जाते हैं। यद्यपि इन्होंने ब्रज और खड़ी बोली में भी कवितायें की हैं, किन्तु इनके कवि रूप की पूर्ण और मुखर अभिव्यक्ति ‘अवधी’ में ही हुई है। इनका जन्म सन् १९०४ ई. में लखीमपुर खीरी जनपद के मन्योरा ग्राम में हुआ था। इनके पूर्वज बीघापुर (उन्नाव) के निवासी थे। कालान्तर में ये लखीमपुर खीरी में बस गये। इनके पिता पं. छेदीलाल शुक्ल एक प्रसिद्ध अल्हैत थे। इन्होंने उर्दू और संस्कृत दोनों का अध्ययन किया। इनका पारिवारिक जीवन निरन्तर अभावग्रस्त रहा। शुक्ल जी क्रान्तिकारी स्वभाव के व्यक्ति थे। इन्होंने अपनी जन्मभूमि की रक्षा एवं सेवा का संकल्प लिया और १९२१ ई. में राजनीति में सक्रिय हो गये। इस बीच शुक्ल जी कई दलों व संगठनों से जुड़े तथा विधायक भी बने। मस्त प्रकृति वाले शुक्ल जी ने आकाशवाणी के अन्तर्गत ‘देहाती प्रोग्राम’ का संचालन भी किया। शुक्ल जी मूलतः ग्राम्य जीवन के कवि थे। अवध के लोकजीवन और संस्कृति से वे पूर्णतया परिचित थे। यहाँ की (अवध) सांस्कृतिक चेतना से अभिभूत होकर कवि ने अपनी क्षेत्रीय जनभाषा में ही काव्य रचना कर अवधी की श्रीवृद्धि की है। इनकी प्रारम्भिक कवितायें हैं - खूनी परचा, दिल्ली खडयन्त्र केस, किसान की अर्जी आदि। इन्होंने कारावास की अवधि में अनेक काव्य रचनाएँ जेल की दीवारों पर कोयले से लिखीं तथा कुछ दवा की पर्चियों पर पेन्सिल से लिखीं। पुस्तक के रूप में शुक्ल जी की सर्वप्रथम रचना ‘आल्हा सुमिरिनी थी, जो ५० छन्दों की हैं। इसके बाद ‘कृषक विलाप’, ’बेटी बेचन’, ‘युगल चण्डालिका’, ‘मेलाघुमिनी’, ‘कुकुडूकूँ’, राष्ट्रीय गान आदि काव्य कृतियाँ प्रकाशित हुई। आकाशवाणी सेवा के दौरान इन्होंने कई रचनायें की। स्वतंत्रता-संग्राम, दहेज, मजदूर, कश्मीर आल्हा, दिल्ली-दरबार, तृप्यन्ताम्, श्री कृष्ण चरित्र जैसे रेडियो नाटक भी इन्होंने लिखे। इन्होंने कई हजार शब्दों का एक अवधी भाषा शब्दकोश तथा एक अवधी लोकोक्तियों का संग्रह तैयार किया था। इनकी कविताओं में प्रकृति के मनोरम, किन्तु स्वाभाविक दृश्य ग्रामीणों की विपन्नता, दुरवस्था, लोक-जीवन, संस्कृति, लोक-विश्वास, ग्रामीणों की जीवन-शैली साकार हुई है। इन रचनाओं में कवि का प्रकृति-प्रेम, राष्ट्र-प्रेम, तथा भक्ति-भाव भी मुखाग्र हुआ है। समाज में व्याप्त कुसंस्कार, भ्रष्टाचार, पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण आदि का कवि ने कट्टर विरोध करते हुए अपनी समाज सुधार भावना तथा भारतीय संस्कृति के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की है। सामन्ती व्यवस्था के विरोधी शुक्ल जी ने सामन्तों, जमींदारों, अफसरों, नेताओं आदि द्वारा किये गये शोषण के विरुद्ध आजीवन धर्मयुद्ध किया है। जागरण की भावना से प्रेरित हो कवि ने अपनी कविताओं में साम्यवादी प्रतिष्ठा का आह्वान किया है। स्वतंत्रता के पश्चात् देश के कर्णधारों में किस प्रकार दायित्व बोध लुप्त हो गया है, इससे कवि मर्माहत हो उठा है। शुक्ल जी की अवधी का रूप बैसवारी है। इसमें देशज शब्दों का बाहुल्य है। इनकी भाषा लोकोक्तियों, मुहावरों से सम्पन्न है। वर्ण-विन्यास सुगठित है। कवि ने निःसंकोच यत्र-तत्र अरबी, फारसी तथा अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रयोग किया है।
बघेली
डॉ. श्याम सुन्दरदास के मतानुसार यह मध्य प्रदेश में बोली जाने वाली मुख्य बोलियों में से एक है। अवधी और बघेली में कोई वैषम्य नहीं है। बघेलखंड में बोली जाने वाली अवधी को ही बघेली कहा गया है।
बचनेश त्रिपाठी
संडीला, हरदोई निवासी त्रिपाठी जी अवधी के ख्याति प्राप्त साहित्यकार हैं।
बच्चू लाल
ये बैसवारा क्षेत्र निवासी १९वीं शती के उत्तरार्द्ध के अवधी साहित्यकार हैं।
बण्टाधार
यह डॉ. देवी शंकर द्विवेदी ‘बराती’ जी की अवधी कविताओं का संग्रह है। इसमें विभिन्न विषयों से सम्बन्धित अवधी कविताएँ संगृहीत हैं। इसकी बैसवारी अवधी पर्याप्त पुष्ट और प्रभावोत्पादक है।
बदरी प्रपन्न ‘त्रिदंडी स्वामी’
जन्म-मृत्यु १८७०-१९३४, स्थान बन्नावाँ, रायबरेली। इनके कई अवधी पद प्राप्त हुए हैं।
बद्रीप्रसाद धुरिया
इनका जन्म मझौली जिला प्रतापगढ़ में एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। धुरिया जी की रुचि श्रृंगार में अधिक जाग्रत हुई है। इन्होंने कजली लोकगीतों के माध्यम से रामकृष्ण की कथा सविस्तार कही है। इनकी भाषा सरल और निराडम्बर है। ये पूर्वांचल के लोकप्रिय कवि हैं।
बद्रीप्रसाद ‘पाल’
पाल जी की हास्य और व्यंग्यकार के रूप में प्रसिद्धि है। इनकी शैली व्यापक दृष्टिकोण की परिचायक है। ‘बाबू साहब का ऐश्वर्य’ नामक इनकी रचना बहुत सराही गयी है।
बनरा
बन्ना (बनरा) और बन्नी (बनरी) अवधी के प्रसिद्ध वैवाहिक लोकगीत हैं। इनमें हास-परिहास, आनन्दोल्लास और स्नेह-सौहार्द व्यक्त किया जाता है। इनकी संख्या शताधिक है।
बनादास
इनका जन्म जनपद गोण्डा के अन्तर्गत अशोकपुर नामक ग्राम में सन् १८२१ में हुआ था। इनके पिता का नाम गुरुदत्त सिंह था। घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण इन्होंने भिनगा राज्य में नौकरी कर ली। तत्पश्चात् इकलौते पुत्र की मृत्यु हो गई। पुत्रशोक के कारण इन्होंने नौकरी छोड़ सन्यास धारण कर लिया और अयोध्या में रहने लगे। अयोध्या में ही सन् १८९२ ई. में इनका देहावसान हो गया। इनके द्वारा रचित ६४ ग्रन्थ मिलते हैं, जिनमें दो ग्रन्थ - ‘उभय प्रबोधक रामायण’ और ‘विस्मरण सम्हार’ डॉ. भगवती सिंह के सम्पादकत्व में छप चुके हैं। इनकी भाषा अवधी है, यद्यपि बीच-बीच में ब्रज के प्रयोग भी दिख जाते हैं। बनादास की अवधी कविता बड़ी प्रेरणादायिनी एवं अनुभूतिप्रवण है। ये अवधी के संत-काव्य के शीर्षस्थ कवि कहे जा सकते हैं।