यह विवाह के पूर्व की एक रस्म है, जो छ: दिन पूर्व सम्पन्न होती हैं। इस दिन् छपुला (टेसू) की डाल पूजी जाती है और इसी दिन से लड़की/ लड़के के उबटन लगाना शुरू किया जाता है। इसमें भी जो गीत गाया जाता है, वह छई दरेती गीत कहलाता है। इस गीत के साथ वाद्ययंत्र नहीं बजते हैं।
छठी
पुत्र-जन्म के छठवें दिन ‘छठी’ नामक उत्सव मनाया जाता है। छठी का उत्सव अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। इस दिन सभी कुटुम्बजनों को भोजन कराने की परम्परा है।
छत्तीसगढ़ी
डॉ. श्यामसुन्दर दास जी ने इसे अवधी के अन्तर्गत आने वाली एक मुख्य बोली कहा है। यह मुख्यतया छत्तीसगढ़ के आस-पास बोली जाती है, जो वास्तव में अवधी का ही दूसरा नाम है।
छत्रपति सिंह
ये आधुनिक काल के भारतेन्दुयुगीन अवधी कवि हैं। इन्होंने पर्याप्त साहित्य सृजन किया है। बैसवारा इनकी कर्मभूमि रही है।
छविराज मिश्र
ये शहाबुद्दीनपुर, फैजाबाद के निवासी हैं। इन्होंने अवधी भाषा में प्रचुर काव्य-सृजन किया है।
छिटनी
यह वर्षगाँठ मनाने का एक विशेष रूप है। जब किसी स्त्री के बच्चे जीवित नहीं रहते तो शिशु के जन्म लेते ही उसकी छिटनी की जाती है। इसमें किसी टोकरी में वस्त्र बिछाकर उस पर नाल सहित नवजात शिशु को लिटाकर सुहागिन स्त्रियों द्वारा पाँच-सात बार इधर उधर घसीटा जाता है, जिसे घिर्रउना या कढ़िलउना भी कहा जाता है। यह शिशु के। जन्म से लेकर विवाह तक प्रतिवर्ष वर्षगाँठ के रूप में इसी पद्धति से मनाया जाता है।
छेदनु
यह अवधी का वात्सल्य प्रधान लोकगीत है, जो स्त्रियों द्वारा बालक के कर्णबेध संस्कार के अवसर पर गाया जाता है। इन गीतों में वाद्य यंत्रों का प्रयोग नहीं होता।
छैलबिहारी बाजयेयी ‘बाण’
इनका जन्म १४ फरवरी १९२९ ई. को जिला हरदोई के बाण नामक गाँव में शिवदत्त बाजपेयी के यहाँ हुआ था। विशुद्ध अवधी क्षेत्र के न होने के बावजूद बाजपेयी जी ने अवधी साहित्य की काफी सेवा की है। इन्होंने ‘सहकारी खेती का स्वांग’ नामक अवधी कृति का सृजन किया है, जो १९५९ ई. में प्रकाशित हुई। स्वदेश, स्वराज्य, भारत माता, हमारे बलिदानी वीर, प्रपंच आदि इनकी मुख्य अवधी कृतियाँ हैं।