यह हाथरस निवासी संत तुलसीदास की अवधी रचना है। इसमें निर्गुणोपासना से सम्बद्ध रामकथा का वर्णन है।
घाघ
इनका जन्म सन् १९९६ ई. में हुआ था। ‘घाघ’ ने लोक जीवन पर आधारित काव्य की रचना की है। इनकी रचनाएँ ‘कहावतों’ का रूप ले चुकी हैं। आचार्य शुक्ल, रसाल जी तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि प्रायः सभी इतिहासकारों ने इन्हें हिन्दी का लोक कवि माना है। रामनरेश त्रिपाठी ने इन्हें अकबर का समकालीन माना है। आज सम्पूर्ण उत्तर भारत में मौसम तथा इनके खेती - पाती विषयक कहावतें लोकप्रिय हैं। स्थान के अनुसार इनकी भाषा में बदलाव होता रहा है। देहात के अपढ़ किसानों के लिए ये छन्द सूत्र का कार्य करते हैं। ये छन्द वर्षा, बुवाई, जोताई, गोड़ाई, दँवाई, भोजन तथा स्वास्थ्य आदि के सम्बन्ध में रचे गए हैं। असमी तथा उड़िया में भी ‘डाक’ नाम के कवि हुए हैं, जिनकी रचनाएँ ‘घाघ’ की रचनाओं से साम्य रखती हैं। बिहार, राजस्थान में भी ‘डाक’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। तुलनात्मक आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है, तीनों स्थानों के ‘डाक’ एक ही हैं। यह तथ्य अभी परीक्षणीय है। इनके छन्दों की पुरानी प्रतिलिपि नहीं मिलती है। लोगों से सुन-सुन करके इनका संग्रह किया गया है।
घानु
यह विवाह के लगभग एक सप्ताह पूर्व होने वाला संस्कार है। इसमें गेहूँ, चावल आदि खाद्य - सामग्री को साफ सुथरा करने हेतु कार्य का शुभारम्भ किया जाता है। स्त्रियों द्वारा इस संस्कार में गीत विशेष रूप से गाये जाते हैं। इस गीत के साथ वाद्ययंत्र नहीं बजता।
घूरूप्रसाद किसान
इनका जन्म ग्राम कुसुंभी, जिला उन्नाव में चैत्र पूर्णिमा सं. १९८७ वि. में हुआ। विषम परिस्थितियों में रहकर सामान्य शिक्षा ही प्राप्त कर सके। जीविकोपार्जन का साधन इन्होंने कृषि कर्म को बनाया, साथ ही लोकगीत शैली में अवधी कविताएँ लिखनी शुरू कर दीं। ‘बरसाति’ एवं ‘फकनहा मेला’ इनकी प्रसिद्ध कविताएँ हैं। इनकी कविताओं में अवधी, विशेषतः बैसवारी संस्कृति मुखरित हुई है। ग्राम्य जीवन की दुर्दशा पर भी कवि-दृष्टि गई है। साथ ही राष्ट्रीय नियोजन एवं नगरीकरण के बढ़ते प्रभाव से ग्राम्य विघटन पर भी प्रकाश डाला गया है।