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Awadhi Sahitya-Kosh

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डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र
मिश्र जी खड़ी बोली के सशक्त कवि हैं, साथ ही अवधी में भी अच्छी कविता करते हैं। ये सन् १९४७ में ग्राम बन्नीराय निकट ‘बिसवाँ’ जिला सीतापुर में जनमे थे। ये एक कुशल चिकित्सक हैं। समाज सेवा तथा साहित्य सेवा इनके स्वाभाविक गुण हैं, जिसका ये पूर्णतया पालन कर रहे हैं। मुख्यतः ये खड़ी बोली के कवि हैं। ‘साकेत-शौर्य’ इनका प्रख्यात काव्य-ग्रन्थ है।

कृष्णशंकर शुक्ल
ये रायबरेली जनपद के निवासी रहे हैं। इन्होंने ’बेनीमाधव बावनी’ नामक रचना सृजित की है, जिसमें पर्याप्त अवधी पुट है।

कृष्णायन
यह सुप्रसिद्ध पत्रकार एवं राजनीतिक नेता के रूप में ख्यातिप्राप्त पं. द्वारका प्रसाद मिश्र की एक कालजयी कृति है। इसकी रचना सन् १९४२ में स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान जेल में की गई थी। यह एक सफल महाकाव्य है। इसकी भाषा अवधी है। जैसाकि नाम से ही स्पष्ट है, ‘कृष्णायन’ में श्री कृष्ण का जीवन-वृत्त है। कृष्ण इस महाकाव्य के नायक हैं। इस महाकाव्य के कथानक का आधार विशेष रूप से महाभारत, श्रीमद्‌भागवत और सूरसागर है। इसकी सम्पूर्ण कथावस्तु निम्नांकित सात काण्डों में विभाजित है- १- अवतरण काण्ड, २- मथुरा काण्ड, ३- द्वारका काण्ड, ४- पूजा काण्ड, ५- गीता काण्ड, ६- जय काण्ड तथा ७- आरोहण काण्ड। कृष्णायनकार परम्परा वादी कवि है; इसीलिए इसमें प्राचीनता और आधुनिकता का अद्‌भुत समन्वय स्थापित हुआ है। संस्कृत वाङ्मय में कृष्ण अवतार का जो हेतु है, उसी का समर्थन इस काव्य में हुआ है। युगीन स्वर की सबलता इसमें द्रष्टव्य है। गाँधीवादी विचारधारा का पल्लवन भी कृष्णायन में हुआ है। इसके अनुसार कृष्ण का अवतार अत्याचार सहने में असमर्थ भारत माता की पुकार पर हुआ है। इस प्रकार कृष्णायन में सुविचारित भाव-योजना है। यह वीर रस प्रधान कृति है, किन्तु अन्य रसों का भी सुन्दर निर्वाह हुआ है। श्रृंगार अपने मर्यादित रूप में चित्रित हुआ है। रचना में प्रकृति के मनोरम दृश्यों का अंकन हुआ है। ‘कृष्णायन’ की भाषा तुलसी के रामचरित मानस की भाषा है। मानस की भाँति ही कृष्णायन की भाषा संस्कृतनिष्ठ साहित्यिक अवधी है। कृष्णायन की भाषा में तत्सम रूप अधिक है। इस कृति में दोहा, चौपाई तथा सोरठा छन्दों का प्रयोग हुआ है। ‘अलंकारों लोकोक्तियों, मुहावरों का भी स्वाभाविक प्रयोग हुआ है।

केदार तिवारी
तिवारी जी बैसवारा क्षेत्र के ग्राम तकिया पाटन जिला उन्नाव में १९०० ई. में जनमें थे। इनका बैसवारी अवधी में, लगभग २०० पृष्ठों का एक अप्रकाशित प्रबन्ध काव्य ‘अस्त्र रहित रण भंग’ है। यह ग्रन्थ राष्ट्रीय आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है, जिसमें सन् १९०५ से लेकर १९४७ ई. तक के स्वतंत्रता संग्राम का रोचक वर्णन है। इसकी गणना हिन्दी के राष्ट्रीय काव्यों में की जा सकती है। इनकी अवधी परिमार्जित है। इन्होंने परम्परागत दोहा - चौपाई को अपनाया है। १९५० ई. में तिवारी जी का देहावसान हो गया।

केदारनाथ त्रिवेदी ’नवीन’
नवीन जी का जन्म सीतापुर जनपद के ‘कोरैया’ नामक ग्राम में सन् १८९५ ई. में हुआ था। इनको प्रारम्भिक जीवन सुखद एवं आनन्दपूर्ण था। राजकीय सेवा से कार्य-मुक्त होकर अन्ततः ये लखीमपुर नगर के स्थायी निवासी हो गये। विविध स्थानों पर नौकरी करने के कारण इन्हें सामाजिक जीवन का गम्भीर अनुभव प्राप्त हुआ। अपनी काव्य माधुरी के कारण कई बार नवीन जी पुरस्कृत भी किये गए हैं। तदुपरांत अवधी भाषा और साहित्य सृजन में द्रुत गति से अग्रसर हुए। आकाशवाणी से इनका गहरा सम्पर्क रहा है। इनकी अधिकांश रचनाओं का प्रसारण यहीं (आकाशवाणी) से हुआ। ऐसी रचनाओं में - हुल, किसान, दीवाली, महंगाई, बुढ़ापा आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। कुलीन, किसानी, नवीन रामायण और बौछार इनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं। इनका अधिकांश साहित्य अभी अप्रकाशित है। इनमें ‘काली कमली वाला’, उत्तर का अंगद पैज, नैमिषारण्य आदि महत्वपूर्ण हैं। सामाजिक, धार्मिक, श्रृंगारमूलक भाव इनके काव्य में अधिक मुखर हुए हैं। इनके इस प्रवाह में राजनीति या सम्प्रदायगत भावों की खोज कठिन है। इन्होंने सामाजिक सुधार हेतु शिक्षा पर अधिक बल दिया है। इन्होंने अनेक समस्याओं को जन्म देने का सम्पूर्ण दायित्व सरकारी मशीनरी प्रयोग पर डाला है। नवीन जी रस एवं कल्पनाप्रधान कविता की अपेक्षा यथार्थवादी रचना पर अधिक बल देते हैं। इनकी भाषा स्वच्छ एवं मार्जित है। भाषा में पर्याप्त लालित्य है। अवधी का परिमार्जित प्रयोग इनकी कविता की प्रमुख विशेषता है। उपमा और अनुप्रास अलंकारों का प्रयोग प्रसंगानुकूल हुआ है। गीत इनकी प्रिय शैली है। अवधी जनकाव्य में इनका साहित्य अपनी मूलभूत विशेषताओं के कारण सदा अमर रहेगा।

केदारनाथ मिश्र ‘चंचल
‘चंचल’ जी अवधी के कवि हैं। इनका जन्म ‘दलीपपुर’ जिला प्रतापगढ़ में सन् १९१९ ई. में हुआ था। प्रतिकूल एवं जटिल परिस्थितियों के कारण ये उचित शिक्षा न प्राप्त कर सके, और अध्यापन कार्य करने लगे। बहुत दिनों तक ये अविभाजित भारत देश के लाहौर नगर में रहे, तत्पश्चात् प्रतापगढ़ आ गए। ये वस्तुतः व्यंग्य-विनोद के कवि हैं। ‘रसोई-घाटी’ इनका प्रसिद्ध संकलन है, जो अद्यावधि अप्रकाशित है। ‘महंगी’ शीर्षक कविता में इनकी व्यंग्य विधा मुखर हुई है। इस कविता में त्रस्त समाज का नग्न चित्र है। इन्होंने स्वाभाविक कथन के साथ अमीरों, हाकिमों पर कठोर व्यंग्य किया है। कवि चंचल की अवधी भाषा में पूर्वीपन है। लोकोक्तियों का प्रयोग इनकी भाषा की सशक्तता का प्रमाण है। इनकी भाषा जनभाषा है, किंतु पूर्ण सुगठित है।

केशवचन्द्र वर्मा
युग के मूल स्वर को पहचानकर कविता लिखने वालों में वर्मा जी का प्रमुख स्थान है। कविता यदि जीवन की व्याख्या है तो इस दृष्टि से वर्मा जी की कवितायें खरी हैं। इनमें जीवन की गहरी व्याख्या है। वर्मा जी की रचनाओं में युगीन समस्याओं को स्वर मिला है। इनकी कृतियों में सामाजिक, राजनीतिक चेतना का यथातथ्य मूल्यांकन हुआ है। हास्य व्यंग्यपरक रचनाओं में वर्मा जी नवीन रूप धारण कर उपस्थित हुए हैं। मनोरंजन और विनोद के क्षेत्र में ये अपने समवर्ती कवियों से बहुत आगे हैं। इनकी अवधी भाषा में शुद्ध एवं सुबोध प्रयोगों के दर्शन होते हैं। स्वच्छन्द निर्झर-सी इनकी भाषा कभी द्रुत कभी मन्थर गति से बहती है। इसके प्रवाह में गम्भीरता और आकर्षण है। ललित शब्द योजना तथा अलंकार जनित माधुर्य से मन आनन्दित हो जाता है।

कौव्वाली
यह मुख्यतः ईरान से आयी कला है। अवध प्रदेश में कौव्वाली को प्रचारित करने का श्रेय अमीर खुसरो को है। कौव्वाली की मधुरता ही आकर्षण का कारण है। अवध प्रदेश में कौव्वाली को बहुत प्रश्रय मिला है। यहाँ की जनता कौव्वाली सुनना बहुत पसंद करती है। कौव्वाली में श्रृंगार, करुणा, वीर आदि रसों का समावेश अधिक मिलता है।

खगिनिया
ये घाघ, भड्डरी आदि की श्रेणी में परिगणित की जाने वाली एक महत्वपूर्ण लोकपंडिता रही हैं। इन्होंने अवधी साहित्य में अपने पर्याप्त अनुभवों को पद्यबद्ध करके उसमें महती भूमिका अदा की है। लोक कहावतें इनका प्रतिपाद्य विषय रही हैं।

खिसकढ़ी
यह श्री सूर्यप्रसाद त्रिवेदी ‘काका बैसवारी’ की हास्य-व्यंग्य प्रधान रचना है। इसमें ‘काका बैसवारी’ की ४४ रचनायें संकलिन हैं। इसकी कवितायें पाठक को हँसाती एवं विस्मित करती हैं। साथ ही हृदय पर सीधे प्रहार करती हैं।


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