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Awadhi Sahitya-Kosh

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गिरिजाशंकर मिश्र ‘गिरिजेश’
इनका जन्म सं. १८८९ में ग्राम बन्नावाँ’ जनपद रायबरेली में हुआ था। अवधी गीत, गीता ज्ञान, वेदान्त ज्ञान दर्शन और व्याधि विज्ञान गिरिजेश की अप्रकाशित कृतियाँ हैं। मुसराधार इनकी विश्रुत अवधी रचना है। इसमें ठेठ देशज शब्दों का प्रयोग है और जनभाषा की सहजता है।

गिरिधर कविराय
इनका जन्म शिवसिंह सेंगर ने सं. १७७० वि. माना है। विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। इनकी कतिपय कुण्डलियों में गिरिधर कविराय नाम के साथ ‘साँई’ शब्द भी आता है। कहा जाता है कि ‘साँई’ वाली कुण्डलियाँ इनकी धर्मपत्नी की लिखी हुई हैं। ‘किशोरी लाल गुप्त ने अथक श्रम से ‘गिरिधर- ग्रंथावली’ का संपादन तथा प्रकाशन किया है। डॉ. ब्रजकिशोर मिश्र ने इन्हें अवध के प्रमुख कवियों में स्थान दिया है तथा इनकी भाषा को अवधी बताया है।

गिरिधारी
सातनपुर निवासी ये अवधी कवि हैं। इनका समय भारतेन्दु युग है। इनका अवधी साहित्य प्रकाशित नहीं हो पाया है।

गिरीश रामायण
यह राजस्थानी कवि गिरीश कृत प्रबंध रचना है। इसमें अवधी के साथ-साथ खड़ी बोली का भी प्रयोग परिलक्षित होता है।

गुणाकर त्रिपाठी
कांथा निवासी त्रिपाठी जी अवधी रचनाकार हैं। इनका रचनाकाल भारतेन्दु युग रहा है।

गुरुचरन लाल ‘गुदड़ी के लाल’
आधुनिक अवधी रचनाकारों में ‘गुदड़ी के लाल’ का व्यंग्य क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान है। ८ जनवरी १९३८ ई. को मलिकमऊ चौबरा, जिला रायबरेली में इनका जन्म हुआ था। उत्तर रेलवे में ये शाप अधीक्षक के पद पर कार्यरत हैं। साहित्यानुरागी कवि गुरुचरन लाल जी कविता के साथ-साथ नाटक और निबन्ध भी लिखते हैं। सन् १९७८ ई. में प्रकाशित इनकी अवधी काव्य कृति झलबदरा और १९९६ ई. में प्रकाशित ‘छुट्टा हरहा’ विद्वानों के बीच यथेष्ट प्रशंसा प्राप्त कर चुकी हैं। इनकी रचनाओं में सामाजिक चेतना, राष्ट्रीय भावना तथा लोकसंस्कृति के स्वर मुखाग्र हुये हैं। साम्प्रदायिक सद्‍भावना, ऐक्य और अखण्डता पर लिखी गई इनकी अनेकानेक रचनायें प्रेरणादायी हैं, जिनकी भाषा बैसवारी अवधी है।

गुरुदीन सिंह ‘दीन’
ये जैसा अपने उपनाम से प्रतीत होते हैं वैसा ही इनके साहित्य सृजन के साथ हुआ। पाण्डुलिपियाँ धीरे-धीरे दीमक एवं चूहों का आहार बन गयी। इन्होंने अवधी साहित्य में प्रचुर मात्रा में योगदान किया।

गुरुप्रसाद
आधुनिक काल के द्विवेदी युग के अल्पख्यात अवधी कवियों में से ये महत्वपूर्ण साहित्यकार हैं।

गुरुप्रसाद सिंह ‘मृगेश’
स्व. मृगेश जी का जन्म ‘बुढ़वल’ जिला बाराबंकी में १२ जनवरी १९१० ई. में हुआ। आधुनिक अवधी काव्य और गद्य के क्षेत्र में मृगेश जी का उल्लेखनीय स्थान है। इन्होंने ब्रज, खड़ी बोली और अवधी तीनों में साहित्य सृजन किया है, जिनमें अधिकांश अप्रकाशित हैं। जैसे- गाँव के गीत, लहचारी, चहलारी नरेश आदि। बरवै व्यंजना, और पारिजात इनकी प्रकाशित अवधी कृतियाँ हैं। नाट्य विधा को मृगेश जी ने सुरुचिपूर्वक अपनाया है। इसके अतिरिक्त कुछ संस्मरण तथा आलोचनात्मक निबन्ध भी लिखे हैं। अवधी के अतिरिक्त इन्होंने माधव मंगल दयादण्ड सुगीत मृगांक, मृगेश महाभारत आदि अनेक काव्यकृतियों का सृजन किया है। इन पर कई आलोचनात्मक निबन्ध और एक शोध प्रबन्ध भी द्रष्टव्य है। इनको जनपदीय पुरस्कार द्वारा सम्मानित भी किया गया है, जो इनकी प्रतिष्ठा का प्रतीक है। इन्होंने अपनी कृतियों में अवध अंचल के लोक-जीवन को यथाशक्ति प्रतिबिम्बित किया है। अवधी प्रबन्ध रचना करने वाले ये प्रथम आधुनिक कवि हैं। कविवर मृगेश जी ने अपने महाकाव्यों में अवध के प्रकृति परिवेश को अर्थात् नदी, नाले, बन, बाग, तड़ाग, खेत, खलिहान, ऋतु, वनस्पति, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु- इन सबको स्वर दिया है। इनका मुक्तक काव्य विविधता से परिपूर्ण है। इन्होंने अनेक छन्दों और विषयों में रचनायें की हैं। बरवै छन्द के ये सफल प्रयोक्ता हैं। इन्होंने अनेक प्रकार के लोकगीत रचे हैं। धार्मिक चिंतन इनमें सर्वाधिक परिलक्षित हुआ है। मृगेश जी मानवतावादी अध्यात्म परायण आस्तिक कवि हैं। इनमें साम्प्रदायिकता की प्रतिक्रिया है। वस्तुतः मृगेश जी ग्रामीण व्यवस्था और कृषि संस्कृति के कवि हैं। सामाजिक कुरीतियों, वर्ग संघर्ष तथा किसानों-मजदूरों की व्यथा-कथा को इन्होंने पूरी सम्वेदना के साथ उभारा है। स्त्रियों की दुर्दशा, पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण, महंगाई, बेकारी, अराजकता, जातिवाद, नेतागीरी, क्षेत्रीयता आदि समस्याओं को भी इन्होंने सतर्कतापूर्वक उभारा है। इनकी रचनाओं में प्रचुर मात्रा में ऋतु वर्णन विद्यमान है। लोक और शास्त्र के बीच समन्वय स्थापित करना इनकी सबसे बड़ी विशेषता है। फलतः आधुनिक अवधी के चतुष्टय में ये गण्यमान हैं। इनमें यथेष्ट कलात्मक सौष्ठव भी है और वैचारिक समृद्धि भी। इन्होंने द्विवेदी युग से लेकर समसामयिक जीवन की विभिन्न भावसरणियों और कलात्मक अभिरुचियों का सन्निवेश करके उनमें नूतन-पुरातन का सफल सामंजस्य किया है।

गुरुभक्ति-प्रकाश
यह चरनदास जी के शिष्य रामरूप जी द्वारा प्रणीत संतपरम्परा का अवधी काव्यग्रंथ है।


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