सामान्यतः प्राप्त का विशेष अर्थ में संकोचन रूप व्यापार विशेष उपसंहार है। यह व्यापार विशेष कहीं कथन रूप, कहीं अनुसंधान रूप और कहीं भावना रूप में होता है। उक्त प्रकार से गुणों का अनुसंधान करना या भावना करना गुणोपसंहार है। वेदांत के प्रसंग में अन्य देवता की उपासना में अन्य देवों के गुणों का अनुसंधान करना और उसी रूप में उपासना करना गुणोपसंहार शब्द से विवक्षित है (अ.भा.पृ. 991)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
गृहिणोपसंहार
गृहस्थ भी क्रमशः ब्रह्मलोक की प्राप्ति कर सकता है, इस बात का निष्कर्ष के रूप में प्रतिपादन करना गृहिणोपसंहार है। जैसे, `आचार्यकुलाद् वेदमधीत्य यथाविधानं गुरोः कर्मातिशेषेणाभिसमावृत्य कुटुम्बे शुचौ देशे स्वाध्यायमधीयानो धार्मिकान् विदधत् आत्मनि सर्वेन्द्रियाणि सम्प्रतिष्ठाप्याहिंसन् सर्वभूतान्यन्यत्र तीर्थेभ्यः स खल्वेवं वर्तयन् यावदायुषं ब्रह्म लोकम मिनिष्पद्यते न च पुनरावर्तते` (छा.उ.) इस मंत्र द्वारा कहा गया है। इस मंत्र में गृहस्थ के लिए ब्रह्मलोक प्राप्ति का मार्ग बताया गया है (अ.भा.पृ. 1243)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
गोकुलपरत्व
पुष्टिमार्ग में बैकुंठ से भी गोकुल का श्रेष्ठत्व अभिप्रेत है। `ता वां वास्तून्युष्मसि गमध्यै यम गावो भूरिश्रृंगा अयासः तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि`। यह श्रुति गोकुल को परम पद प्रतिपादित करती है क्योंकि गोकुल में ही हृदय और बाहर उभयत्र लीलारसात्मक भगवान् का प्राकट्य होता है। यद्यपि बैकुंठ प्रकृति-काल आदि से अतीत है, तथापि उसमें भगवान की लीलायें नहीं हैं। अतः बैकुंठ से भी गोकुल का उत्कृष्टत्व है (अ.भा.पृ. 1323)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
चतुर्विध पुष्टि भक्ति
पुष्टि भक्ति चार प्रकार की होती है -
1. पुष्टि पुष्टि भक्ति, 2. प्रवाह पुष्टि भक्ति, 3. मर्यादा पुष्टि भक्ति और 4. शुद्ध पुष्टि भक्ति।
1. जो पुष्टि भक्त पुष्टि से अर्थात् भजनोपयोगी भगवान् के विशिष्ट अनुग्रह से युक्त होते हैं; उनकी पुष्टि पुष्टि भक्ति होती है।
2. शास्त्र विहित क्रिया में निरत भक्तों की प्रवाह पुष्टि भक्ति है।
3. भगवत् गुण ज्ञान से युक्त भक्तों की मर्यादा पुष्टि भक्ति है।
4. भगवत् प्रेम से युक्त भक्तों की शुद्ध पुष्टि भक्ति है।
(प्र.र.पृ. 83)
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
चतुर्विध मूल रूप
1. श्री कृष्ण शब्द का वाच्य जो पुरुषोत्तम स्वरूप है, वह भगवान् का ही एक मूल रूप है।
2. अक्षर शब्द का वाच्यार्थ भूत व्यापक बैकुण्ठ रूप जो पुरुषोत्तम का धाम है, वह भी भगवान् का ही एक मूल रूप है।
3. भगवान् का एक मूल रूप वह भी है, जिसमें भगवान् की समस्त शक्तियाँ तिरोहित होकर रहती हैं, अर्थात् प्रकट रूप में नहीं रहती हैं तथा भगवान का वह मूल रूप सभी व्यवहारों से अतीत रहता है।
4. भगवान् का वह भी एक मूल रूप है जिस स्वरूप से वह अंतर्यामी होकर सभी पदार्थों में रहता है।
उक्त चारों ही भगवान् के मूल स्वरूप माने गए हैं।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
चतुष्पात्त्व
चतुष्पात्त्व भगवान का एक विशेषण है। भगवान के एक पाद के रूप में समस्त भूत भौतिक जगत्-तत्त्व है, तथा तीन अमृत पाद हैं, ये हैं - जनलोक, तपःलोक और सत्य लोक। (द्रष्टव्य अमृतपाद शब्द की परिभाषा) (अ.भा.पृ. 963)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
चित्र तांडव
यह एक प्रकार का नृत्य विशेष है। इसका अनुष्ठान भगवान् कृष्ण ने किया था। चित्र तांडव का तन्योक्त लक्षण निम्नलिखित है -
मुक्त जीवों के पिण्डी भाव का अर्थात् पिण्डी भूत मुक्त जीवों का आधारभूत ब्रह्मलोक ही जीवघन है (अ.भा.पृ. 390)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
जीवावस्थात्रय
शुद्धावस्था, संसारी अवस्था और मुक्तावस्था के भेद से जीव की तीन अवस्थायें हैं।
1. सच्चिदानंदात्मक अणु रूप शुद्धावस्था है।
2. पञ्चपर्वात्मक अविद्या से बद्ध और दुःखित अवस्था जीव की संसारी अवस्था है।
देहाध्यास, इन्द्रियाध्यास, प्राणाध्यास, अन्तःकरणाध्यास तथा स्वरूप विस्मृति ये ही अविद्या के पाँच पर्व हैं।
3. जन्म-मरण आदि संसारी धर्मों का अनुभव करता हुआ भी भगवत् कृपा से प्राप्त सत्संग द्वारा पंच पर्वात्मक विद्या पाकर परमानंद स्वरूप मुक्ति जीव की मुक्तावस्था है। वैराग्य, ज्ञान, योग, तप और केशव में भक्ति ये ही विद्या के पाँच पर्व हैं (प्र.र.पृ. 57)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)
ज्ञानावेश
`मैं सर्वरूप हूँ` इस प्रकार का बोध प्रकट होना ज्ञानावेश है। उक्त ज्ञानावेश `अहंमनुरभवं सूर्यश्चाहम्` इत्यादि श्रुति वाक्यों में प्रतिपादित है (अ.भा.पृ. 262)।