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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अष्टाकपाल
आठ कपालों (मिट्टी के तसलों) में पका हुआ होमान्न। यह एक यज्ञकर्म भी है, जिसमें आठ कपालों में पुरोडाश (रोट) पकाकर हवन किया जाता है।

अष्टाङ्ग
देवदर्शन की एक विधि, जिसमें शरीर के आठ अंगों से परिक्रमा या प्रणाम किया जाता है। आत्म उद्धार अथवा आत्मसमर्पण की रीतियों में 'अष्टाङ्ग प्रणिपात' भी एक है। इसका अर्थ है (1) आठों अङ्गों से (पेट के बल) गुरु या देवता के प्रसन्नतार्थ सामने लेट जाना। (2) इसी रूप में पुनः पुनः लेटते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। इसके अनुसार किसी पवित्र वस्तु की परिक्रमा या दण्डवत् प्रणाम उपर्युक्त रीति से किया जाता है। अष्टाङ्ग-परिक्रमा बहुत पुण्यदायिनी मानी जाती है। साधारण जन इसको 'डंडौती देना' कहते हैं। इसका विवरण यों है :
उरसा शिरसा दृष्ट्या मनसा वचसा तथा। पद्भ्यां कराभ्यां जानुभ्यां प्रणामोऽष्टांग उच्यते।।
[छाती, मस्तक, नेत्र, मन, वचन, पैर, जंघा और हाथ---आठ अंगों से झुकने पर अष्टांग प्रणाम होता है।]
(स्त्रियों को पञ्चांग प्रणाम करने का विधान है।)

अष्टाङ्गयोग
(1) पतञ्जलि के निर्देशानुसार आठ अंगों की योग साधना। इसके आठ अङ्ग निम्नांकित हैं :
1. यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह)
(2) नियम (शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान)
(3) आसन (स्थिरता तथा सुख से बैठना)
(4) प्राणायाम (श्वास का नियमन--रेचक, पूरक तथा कुम्भक)
(5) प्रत्याहार (इन्द्रियों का अपने विषयों से प्रत्यावर्तन)
(6) धारणा (चित्त को किसी स्थान में स्थिर करना)
(7) ध्यान (किसी स्थान में ध्येय वस्तु का ज्ञान जब एक प्रवाह में संलग्न है, तब उसे ध्यान कहते हैं।
8. समाधि (जब ध्यान अपना स्वरूप छोड़कर ध्येय के आकार में भासित होता है तब उसे समाधि कहते हैं।) समाधि की अवस्था में ध्यान और ध्याता का भान नहीं रहता, केवल ध्येय रह जाता है। ध्येय के ही आकार को चित्त धारण कर लेता है। इस स्थिति में ध्यान, ध्याता और ध्येय की एक समान प्रतीति होती है।
(2) 'अष्टाङ्गयोग' नामक दो ग्रन्थों का भी पता चलता है। एक तो श्री चरनदास रचित है, जो चरनदासी पंथ के चलाने वाले थे। इस पंथ में योग की प्रधानता है, यद्यपि ये उपासना राधा-कृष्ण की करते हैं। रचना-काल अठारहवीं शती है। दूसरा 'अष्टाङ्गयोग' गुरु नानक का रचा बताया जाता है।
धारणा, ध्यान और समाधि योग के इन तीन अङ्गों को संयम कहते हैं। इनमें सफल होने से प्रज्ञा का उदय होता है। (योगसूत्र)

अष्टांङ्गार्घ्‍य
आठ द्रव्यों से बनाया गया पूजा का एक उपकरण। तन्त्र में कथन है :
आपः क्षीरं कुशाग्राणि दधि सर्पिः सतण्डुलाः। थवाः सिद्धार्थकश्चैव अष्टाङ्गर्घ्‍य: प्रकीर्तितः।।
[जल, दूध, कुश का अग्रभाग, दही, घी, चावल, जौ, सरसों ये मिलाकर अष्टाङ्गार्घ्‍य कहे गये हैं।]
स्कन्दपुराण (काशीखण्ड) में कथन है :
आपः क्षीरं कुशाग्राणि घृतं मधु तथा दधि। रक्तानि करवीराणि तथा रक्तं च चन्दनम्।। अष्टाङ्ग एष अर्घ्‍यो वै मानवे परिकीर्तितः।।
[जल, दूध, कुश का अग्रभाग, धी, मधु, दही, करवीर के रक्तपुष्प तथा लालचन्दन सूर्य के लिए यह अष्टाङ्ग अर्घ्‍य कहा गया है।]

अष्टादशरहस्य
आचार्य रामानुजरचित एक ग्रन्थ।

अष्टादशलीलाकाण्ड
चैतन्यदेव के शिष्य एवं प्रकाण्ड विद्वान् रूप गोस्वामी का रचा हुआ एक ग्रन्थ।

अष्टादशस्मृति
इस नाम का एक प्रसिद्ध स्मृतिसंग्रह। इसमें मनु और याज्ञवल्क्य की स्मृतियाँ नहीँ हैं। इन दो के अतिरिक्त जिन स्मृतियों का संग्रह इसमें किया गया है, वे हैं :
1. अत्रिस्मृति, 2. विष्णुस्मृति, 3. हारीतस्मृति, 4. औशनसस्मृति, 5. आंगिरसस्मृति, 6. यमस्मृति, 7. आपस्तम्बस्मृति, 8. संवर्तस्मृति, 9. कात्यायनस्मृति, 10. बृहस्पतिस्मृति, 11. पराशरस्मृति, 12. व्यासस्मृति, 13. शङ्ख-लिखितस्मृति, 14. दक्षस्मृति, 15. गौतमस्मृति, 16. शातातपस्मृति, 17. वसिष्ठस्मृति और 18. स्मृतिकौस्तुभ।
इस संग्रह में विष्णुस्मृति भी सम्मिलित है, किन्तु उसके केवल पाँच अध्याय ही दिये गये हैं, जब कि वङ्गवासी प्रेस की छपी विष्णुसंहिता में कुल मिलाकर एक सौ अध्याय हैं।

अष्टाध्यायी
पाणिनिरचित संस्कृत व्याकरण का प्रसिद्ध ग्रन्थ। इसमें आठ अध्याय हैं। इसका भारतीय भाषाओं पर बहुत बड़ा प्रभाव है। साथ ही इसमें यथेष्ट इतिहास विषयक सामग्री भी उपलब्ध है। वैदिक भाषा को ज्ञेय, विश्वस्त, बोधगम्य एवं सुन्दर बनाने की परम्परा में पाणिनी अग्रणी हैं। संस्कृत भाषा का तो यह ग्रन्थ आधार ही है। उनके समय तक संस्कृत भाषा में कई परिवर्त्तन हुए थे, किन्तु अष्टाध्यायी के प्रणयन से संस्कृत भाषा में स्थिरता आ गयी तथा यह प्रायः अपरिवर्त्तनशील बन गयी।
अष्टाध्यायी में कुल सूत्रों की संख्या 3996 है। इसमें सन्धि, सुबन्त, कृदन्त, उणादि, आख्यात, निपात, उपसंख्यान, स्वरविधि, शिक्षा और तद्धित आदि विषयों का विचार है। अष्टाध्यायी के पारिभाषिक शब्दों में ऐसे अनेक शब्द हैं जो पाणिनि के अपने बनाये हैं और बहुत से ऐसे शब्द हैं जो पूर्वकाल से प्रचलित थे। पाणिनि ने अपने रचे शब्दों की व्याख्या की है और पहले के अनेक पारिभाषिक शब्दों की भी नयी व्याख्या करके उनके अर्थ और प्रयोग का विकास किया है। आरम्भ में उन्होंने चतुर्दश सूत्र दिये हैं। इन्हीं सूत्रों के आधार पर प्रत्याहार बनाये गये हैं, जिनका प्रयोग आदि से अन्त तक पाणिनि ने अपने सूत्रों के आधार पर प्रत्याहार बनाये गये हैं, जिनका प्रयोग आदि से अन्त तक पाणिनि ने अपने सूत्रों में किया है। प्रत्याहारों से सूत्रों की रचना में अति लाघव आ गया है। गणसमूह भी इनका अपना ही है। सूत्रों से ही यह भी पता चलता है कि पाणिनि के समय में पूर्व-अञ्चल और उत्तर-अञ्चलवासी दो श्रेणी वैयाकरणों की थीं जो पाणिनि की मण्डली से अतिरिक्त रही होंगी।

अष्टावक्र
एक ज्ञानी ऋषि। इनका शरीर आठ स्थानों में वक्र (टेढ़ा) था, अतः इनका नाम `अष्टावक्र` पड़ा। पुराकथा के अनुसार ये एक बार राजा जनक की सभा में गये। वहाँ सभासद् इनको देखकर हँस पड़े। अष्टावक्र क्रुद्ध होकर बोले, `यह चमारों की सभा है। मैं समझता था कि पण्डितों की सभा होगी।` जनक ने पूछा, भगवान्! ऐसा क्यों कहा गया? अष्टावक्र ने उत्तर दिया, ``आपकी सभा में बैठे लोग केवल चमड़े को पहचानते हैं, आत्मा और उसके गुण को नहीं।`` इस पर सभासद् बहुत लज्जित हुए। तब अष्टावक्र ने आत्मतत्‍त्व का निरूपण किया।
यह एक पण्डित का नाम भी है, जिन्होंने मानव गृह्यसूत्र पर वृत्ति लिखी है।

अष्टारचक्रवान्
जागृत अष्टकोण चक्रवाला, समाधिसिद्ध योगी, जिसकी कुण्डलिनी का अष्टदल कमल विकसित हो गया है। एक जैन आचार्य, जिनके पर्याय हैं--- (1) मञ्जुश्री, (2) ज्ञानदर्पण, (3) मञ्जुभद्र, (4) मञ्जुघोष, (5) कुमार, (6) स्थिरचक्र, (7) वज्रधर, (8) प्रज्ञाकाय, 99) वादिराज, (10) नीलोत्पली, (11) महाराज, (12) नील, (13) शार्दूलवाहन, (14) धियाम्पति, (15) पूर्वजिन, (16) खङ्गी, (17) दण्डी, (18) विभूषण, (19) बालव्रत, (20) पञ्चचीर, (21) सिंहकेलि, (22) शिखावर, (23) वागीश्वर।


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