धन आदि से गर्वित मनुष्य। मनु (4।79) के अनुसार इसका साथ वर्जित है :
न संवसेच्च पतितैर्न चाण्डालैर्न पुक्कसैः। न मूर्खैर्नावलिप्तैश्च नान्त्यैः नान्त्यावसायिभिः।।
[पतित, चाण्डाल, पुक्कस, मूर्ख, धन से गर्वित, अन्त्यज और अन्त्यजों के पड़ोसियों के साथ नहीं रहना चाहिए।]
अविकृत परिणामवाद
वैष्णव भक्तों का एक दार्शनिक सिद्धान्त। ब्रह्म और जगत् के सम्बन्ध-निरूपण में इसका विकास हुआ। ब्रह्म की निर्विकारता तथा निरपेक्षता और जीव-जगत् की सत्यता सिद्ध करने के लिए इस मत का प्रतिपादन किया गया। यद्यपि ब्रह्म-जीव-जगत् का वास्तविक अद्वैत है परन्तु ब्रह्म में बिना विकार उत्पन्न हुए उसी से जीव और जगत् का प्रादुर्भाव होता है। अतः यह प्रक्रिया अविकृत परिणाम है। इसी मत को अविकृत परिणामवाद कहते हैं।
सांख्यदर्शन के अनुसार प्रकृति में जब परिणाम (परिवर्तन) होता है तब जगत् की उत्पत्ति होती है। इस मत को प्रकृतिपरिणामवाद कहते हैं। वेदान्तियों के अनुसार ब्रह्म का परिणाम ही जगत् है। इसे ब्रह्मपरिणामवाद कहते हैं। किन्तु वेदान्तियों के कई विभिन्न सांप्रदायिक मत हैं। शङ्कराचार्य ब्रह्म की निर्विकारता की रक्षा के लिए जगत् को ब्रह्म का परिणाम न मानकर उसको ब्रह्म का विवर्त मानते हैं। किन्तु इससे जगत् मिथ्या मान लिया गया। यह सिद्धान्त रामानुजाचार्य को मान्य नहीं था। अतः उन्होंनें जीव और जगत् (चित् और अचित्) को ब्रह्म के अन्तर्गत उसका विशेषण (गुणभूत) माना। मध्वाचार्य ने ब्रह्म को केवल निमित्त माना और प्रकृति को जगत् का उपादान कारण माना।
इस द्वैत दोष से बचने के लिए निम्बार्क ने प्रकृति को ब्रह्म की शक्ति माना, जिससे जगत् का प्रादुर्भाव होता है। इस मान्यता से ब्रह्म में विकार नहीं होता, परन्तु जगत् प्रक्षेप मात्र अथवा मिथ्या ही बन जाता है।
वल्लभाचार्य ने उपर्युक्त मतों की अपूर्णता स्वीकार करते हुए कहा कि जीव-जगत् ब्रह्म का परिणाम है, किन्तु एक विचित्र परिणाम है। इससे ब्रह्म में विकार नहीं उत्पन्न होता। उनके अनुसार जीव और जगत् ब्रह्म के वैसे ही परिणाम हैं, जैसे अनेक प्रकार के आभूषण सोने के, अथवा अनेक प्रकार के भाण्ड मृत्तिका के। अपने मत के समर्थन में इन्होंने उपनिषदों से बहुत से प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। इस मत में ब्रह्म सच्चिदानन्द (सत् +चित् +आनन्द) है जिससे जीव-जगत् प्रादुर्भूत होता है। सत् से जगत्; सत् और चित् से जीव और सत्, चित् और आनन्द से ईश्वर का आविर्भाव होता है। इस प्रकार अविकृत ब्रह्म से यह सम्पूर्ण जगत् उद्भूत होता है।
अविघ्नविनायक अथवा अविघ्नव्रत
(1) फाल्गुन, चतुर्थी तिथि से चार मासपर्यन्त गणेशपूजन। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, जिल्द 1, 524-525।
(2) मास के दोनों पक्षों की चतुर्थी, तीन वर्षपर्यन्त व्रत-अवधि और गणेश देवता। दे० निर्णयामृत, 43, भविष्योत्तर पुराण।
[यह ब्रह्माण्ड अन्धकारपूर्ण, अप्रज्ञात, लक्षणहीन, अतर्कनीय, न जानने योग्य, सर्वत्र सोये हुए के समान था।]
मूल तत्त्व (ब्रह्म) भी अविज्ञेय कहा गया है। वह ज्ञान का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है। वास्तव में वह विषय मात्र नहीं है; अनिर्वचनीय है।
अविद्या
अद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है। आत्मा एवं विश्व, आत्मा एवं पदार्थ में द्वैत की स्थापना माया अथवा अविद्या का कार्य है। अविद्या का अर्थ है मानवबुद्धि की सीमा, जिसके कारण वह देश और काल के भीतर देखती और सोचती है। अविद्या वह शक्ति है जो मानव के लिए सम्पूर्ण दृश्य जगत् का सर्जन या भान कराती है। संपूर्ण दृश्यमान जगत अविद्या का साम्राज्य है। जब मनुष्य इससे ऊपर उठकर अन्तर्दृष्टि और अनुभव में प्रवेश करता है तब अविद्या का आवरण हट जाता है और अद्वैत सत्य ब्रह्म का साक्षात्कार होता है।
अविद्या के पर्याय अज्ञान, माया, अहङ्कारहेतुक अज्ञान, मिथ्या ज्ञान, विद्याविरोधिनी अयथार्थ बुद्धि आदि हैं। कथन है :
अविद्याया अविद्यात्वमिदमेव तु लक्षणम्। यत्प्रमाणासहिष्णुत्वमन्यथा वस्तु सा भवेत्।।
[अविद्या का लक्षण अविद्यात्व ही है। वह प्रमाण से सिद्ध नहीं होती, अन्यथा वह वस्तु सत्ता हो जायगी।]
अविधि
अविधान, अथवा शास्त्र के विरुद्ध आचरण। गीता (9।23) में कथन है :
[हे मुने! प्रलय काल में भी शिव-पार्वती वाराणसी क्षेत्र को नहीं छोड़ते। इसीलिए इसे अविमुक्त कहते हैं। शिव ने पहले इसका नाम आनन्दवन रखा, क्योंकि यह क्षेत्र आनन्द का कारण है। इसके अनन्तर अविमुक्त नाम रखा। इस आनन्दवन में असंख्य शिवलिंगों के रूप में आनन्दकन्द बीजों के अङ्कुर इधर उधर बिखरे हुए हैं। हे अगस्त्य! इस प्रकार यह वाराणसी अविमुक्त नाम से विख्यात हुई।]
पद्मपुराण में काशी के चार विभाग किये गये हैं--
काशी, वाराणसी, अविमुक्त और अन्तर्गृही। विश्वनाथ मन्दिर के चारों ओर दो सौ धन्वा (एक धन्वा = 4 हाथ) का वृत्त अविमुक्त कहलाता है। दे० 'काशी' और 'वाराणसी'।
अवियोद्वादशी
भाद्र शुक्ल 12 तिथि। इस दिन शिव तथा गौरी, ब्रह्मा तथा सावित्री, विष्णु और लक्ष्मी, सूर्य तथा उनकी पत्नी विक्षुब्धा का पूजन होना चाहिए। दे० हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 1177-1180।