इस सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्म के अतिरिक्त जगत् की जो प्रतीति होती है, वह एकरस वा अनवच्छिन्न सत्ता के भीतर माया द्वारा अवच्छेद अथवा परिमिति के आरोप के कारण होती है।
अवतार
ईश्वर का पृथ्वी पर अवतरण अथवा उतरना। हिन्दुओं का विश्वास है कि ईश्वर यद्यपि सर्वव्यापी, सर्वदा सर्वत्र वर्तमान है, तथापि समय-समय पर आवश्यकतानुसार पृथ्वी पर विशिष्ट रूपों में स्वयं अपनी योगमाया से उत्पन्न होता है। परमात्मा या विष्णु के मुख्य अवतार दस हैं : मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध एवं कल्कि। इनमें मुख्य, गौण, पूर्ण और अंश रूपों के और भी अनेक भेद हैं। अवतार का हेतु ईश्वर की इच्छा है। दुष्कृतों के विनाश और साधुओं के परित्राण के लिए अवतार होता है (भगवद्गीता 4।8)। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि कच्छप का रूप धारण कर प्रजापति ने शिशु को जन्म दिया। तैत्तिरीय ब्राह्मण के मतानुसार प्रजापति ने शूकर के रूप में महासागर के अन्तस्तल से पृथ्वी को ऊपर उठाया। किन्तु बहुमत में कच्छप एवं वराह दोनों रूप विष्णु के हैं। यहाँ हम प्रथम बार अवतारवाद का दर्शन पाते हैं, जो समय पाकर एक सर्वस्वीकृत सिद्धान्त बन गया। सम्भवतः कच्छप एवं वराह ही प्रारम्भिक देवरूप थे, जिनकी पूजा बहुमत द्वारा की जाती थी (जिसमें ब्राह्मणकुल भी सम्मिलित थे)। विशेष रूप से मत्स्य, कच्छप, वराह एवं नृसिंह ये चार अवतार भगवान् विष्णु के प्रारम्भिक रूप के प्रतीक हैं। पाँचवें अवतार वामनरूप में विष्णु ने विश्व को तीन पगों में नाप लिया था। इसकी प्रशंसा ऋग्वेद एवं ब्राह्मणों में है, यद्यपि वामन नाम नहीं लिया गया है। भगवान् विष्णु के आश्चर्य से भरे कार्य स्वाभाविक रूप में नहीं किन्तु अवतारों के रूप में ही हुए हैं। वे रूप धार्मिक विश्वास में महान् विष्णु से पृथक् नहीं समझे गये।
अन्य अवतार हैं-राम जामदग्न्य, राम दाशरथि, कृष्ण एवं बुद्ध। ये विभिन्न प्रकार एवं समय के हैं तथा भारतीय धर्मों में वैष्णव परम्परा का उद्घोष करते हैं। आगे चलकर राम और कृष्ण की पूजा वैष्णवों की दो शाखाओं के रूप में मान्य हुई। बुद्ध को विष्णु का अवतार मानना वैष्णव धर्म की व्याप्ति एवं उदारता का प्रतीक है।
विभिन्न ग्रन्थों मे अवतारों की संख्या विभिन्न है। कहीं आठ, कहीं दस, कहीं सोलह और कहीं चौबीस अवतार बताये गये हैं, किन्तु दस अवतार बहुमान्य हैं। कल्कि अवतार जिसे दसवाँ स्थान प्राप्त है वह भविष्य में होने वाला है। पुराणों में जिन चौबीस अवतारों का वर्णन है उनकी गणना इस प्रकार है :1. नारायण (विराट् पुरुष), 2. ब्रह्मा 3. सनक-सनन्दन-सनत्कुमार-सनातन 4. नर-नारायण 5. कपिल 6. दत्तात्रेय. 7. सुयश 8. हयग्रीव 9. ऋषभ 10. पृथु, 11. मत्स्य. 12. कूर्म 13. हंस 14. धन्वन्तरि 15. वामन 16. परशुराम 17. मोहिनी 18. नृसिंह 19. वेदव्यास 20. राम 21. बलराम 22. कृष्ण 23. बुद्ध 24. कल्कि।
किसी विशेष केन्द्र द्वारा सर्वव्यापक परमात्मा की शक्ति के प्रकट होने का नाम अवतार है। अवतार शब्द द्वारा अवतरण अर्थात् नीचे उतरने का भाव स्पष्ट होता है, जिसका तात्पर्य इस स्थल पर भावमूलक है।
परमात्मा की विशेष शक्ति का माया से सम्बन्धित होना एवं सम्बद्ध होकर प्रकट होना ही अवतरण कहा जा सकता है। कहीं से कहीं आ जाने अथवा उतरने का नाम अवतार नहीं होता।
इस अवतारवाद के सम्बन्ध में सर्वप्रथम वेद ही प्रामाण्य रूप में सामने आते हैं। यथा-
प्रजापतिश्चरति गर्भेऽन्तरजायमानो बहुधा विजायते।'
[परमात्मा स्थूल गर्भ में उत्पन्न होते हैं, कोई वास्तविक जन्म न लेते हुए भी वे अनेक रूपों में उत्पन्न होते हैं।]
ऋग्वेद भी अवतारवाद प्रस्तुत करता है, यथा ``रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय। इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दश।``
[भगवान् भक्तों के प्रार्थनानुसार प्रख्यात होने के लिए माया के संयोग से अनेक रूप धारण करते हैं। उनके शतशतरूप हैं।] इस प्रकार निखिल शास्त्रस्वीकृत अवतार ईश्वर के होते हैं, जो कि अपनी कुछ कलाओं से सुशोभित होते हैं, जिन्हें आंशिक अवतार एवं पूर्णावतार की संज्ञा दी जाती है। पूर्ण परमात्मा षोडशकला सम्पन्न माना जाता है।
परमात्मा की षोडश कलाशक्ति जड़-चेतनात्मक समस्त संसार में व्याप्त है। एक जीव जितनी मात्रा में अपनी योनि के अनुसार उन्नत होता है, उतनी ही मात्रा में परमात्मा की कला जीवाश्रय के माध्यम से विकसित होती है। अतः एक योनिज जीव अन्य योनि के जीव से उन्नत इसलिए है कि उसमें अन्य योनिज जीवों से भगवत्कला का विकास अधिक मात्रा में होता है। चेतन सृष्टि में उद्भिज्ज सृष्टि ईश्वर कीं प्रथम रचना है, इसलिए अन्नमयकोष-प्रधान उद्भिज्ज योनि में परमात्मा की षोडश कलाओं में से एक कला का विकास रहता है। इसमें श्रुतियाँ भी सहमत हैं, यथा
[परमात्मा की सोलह कलाओं में एक कला अन्न में मिलकर अन्नमश कोष के द्वारा प्रकट हुई।] अतः स्पष्ट है, उद्भिज्ज योनि द्वारा परमात्मा की एक कला का विकास होता है। इसी क्रम से परवर्ती जीवयोनि स्वेदज में ईश्वर की दो कला, अण्डज में तीन और जरायुज के अन्तर्गत पशु योनि में चार कलाओं का विकास होता है। इसके अनन्तर जरायुज मनुष्ययोनि में पाँच कलाओं का विकास होता है। किन्तु यह साधारण मनुष्य तक ही सीमित है। जिन मनुष्यों में पाँच से अधिक आठ कला तक का विकास होता है वे साधारण मनुष्यकोटि में न आकर विभूति कोटि में ही परिगणित होते हैं। क्योंकि पाँच कलाओं से मनुष्य की साधारण शक्ति का ही विकास होता है, और इससे अधिक छः से लकर आठ कलाओं का विकास होने पर विशेष शक्ति का विकास माना जाता है, जिसे विभूति कोटि में रखा गया है।
इस प्रकार एक कला से लेकर आठ कला तक शक्ति का विकास लौकिक रूप में होता है। नवम कला से लेकर षोडश कला तक का विकास अलौकिक विकास है, जिसे जीवकोटि नहीं अपितु अवतारकोटि कहते हैं। अतः जिन केन्द्रों द्वारा परमात्मा की शक्ति नवम कला से लेकर षोडश कला तक विकसित होती है, वे सभी केन्द्र जीव न कहला कर अवतार कहे जाते हैं। इनमें नवम कला से पन्द्रहवीं कला तक का विकास अंशावतार कहलाता है एवं षोडश कलाकेन्द्र पूर्ण अवतार का केन्द्र है। इसी कलाविकास के तारतम्य से चेतन जीवों में अनेक विशेषताएँ देखने में आती हैं। यथा पाँच कोषों में से अन्नमय कोष का उद्भिज्ज योनि में अपूर्व रूप से प्रकट होना एक कला विकास का ही प्रतिफल है। अतः ओषधि, वनस्पति, वृक्ष तथा लताओं में जो जीवों की प्राणाधायक एवं पुष्टिप्रदायक शक्ति है, यह सब एक कला के विकास का ही परिणाम है।
स्वदेज, अण्डज, पशु और मनुष्य तथा देवताओं तक की तृप्ति अन्नमय-कोष वाले उद्भिज्जों द्वारा ही होती है और इसी एक कला के विकास के परिणामस्वरूप उनकी इन्द्रियों की क्रियाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। यथा महाभारत (शान्ति पर्व) में कथन है :
[ग्रीष्मकाल में गर्मी के कारण वृक्षों के वर्ण, त्वचा, फल, पुष्पादि मलिन तथा शीर्ण हो जाते हैं, अतः वनस्पति में स्पर्शेन्द्रिय की सत्ता प्रमाणित होती है।] इसी प्रकार प्रवात, वायु, अग्नि., वज्र आदि के शब्द से वृक्षों के फल-पुष्प नष्ट हो जाते हैं। इससे उनकी श्रवणेन्द्रिय की सत्ता सत्यापित की जाती है। लता वृक्षों को आधार बना लेती है एवं उनमें लिपट जाती है, यह कृत्य बिना दर्शनेन्द्रिय के सम्भव नहीं। अतः वनस्पतियाँ दर्शनेन्द्रिय शक्तिसम्पन्न मानी जाती हैं। अच्छी बुरी गन्ध तथा नाना प्रकार की धूपों की गन्ध से वृक्ष निरोग तथा पुष्पित फलित होने लगते हैं। इससे वृक्षों में घ्राणेन्द्रिय की भी सत्ता समझी जाती है। इसी प्रकार वे रस अपनी टहनियों द्वारा ऊपर खींचते हैं, इससे उनकी रसनेन्द्रिय की सत्ता मानी जाती है। उद्भिज्जों में सुख-दुःख के अनुभव करने की शक्ति भी देखने में आती है। अतः निश्चित है कि ये चेतन शक्ति-सम्पन्न हैं। इस सम्बन्ध में मनु का भी यही अभिमत है :
[वृक्ष अनेक प्रकार के तमोभावों द्वारा आवृत रहते हुए भी भीतर ही भीतर सुख-दुख का अनुभव करते हैं।] अधिक दिनों तक यदि किसी वृक्ष के नीचे हरे वृक्षों को लाकर चीरा जाय तो वह वृक्ष कुछ दिनों के अनन्तर सूख जाता है। इससे वृक्षों के सुख-दुःखानुभव स्पष्ट हैं। वृक्षों का श्वासोच्छवास वैज्ञानिक जगत् में प्रत्यक्ष मान्य ही है। वे दिन-रात को आक्सिजन तथा कार्बन गैस का क्रम से त्याग-ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार अफ्रिका आदि के पशु-पक्षी-कीट-भक्षी लताएँ वृक्ष प्रख्यात ही हैं। अतः ये सभी क्रियाएँ भगवान् की एक कला मात्र की प्राप्ति से वनस्पति योनि में देखी जाती हैं।
इनके अनन्तर स्वेदज योनि में दो कलाओं का विकास माना जाता है, जिससे इस योनि में अन्नमय और प्राणमय कोषों का विकास देखने में आता है। इस प्रकार प्राणमय कोष के ही कारण स्वेदज गमनागमन व्यापार में सफल होते हैं। अण्डज योनि में तीन कलाओं के कारण अन्नमय, प्राणमय तथा मनोमय कोषों को विकास होता है। इस योनि में मनोमय कोष के विकास के परिणामस्वरूप इनमें प्रेम आदि अनेक प्रवृत्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। इसी प्रकार जरायुज योनि के अन्तर्गत चार कलाओं के विद्यमान रहने के कारण इनमें अन्नमय, प्राणमय मनोमय कोषों के साथ ही साथ विज्ञानमय कोष का भी विकास होता है। उत्कृष्ट पशुओं में तो बुद्धि का भी विकास देखने में आता है, जिससे वे अनेक कर्म मुष्यवत् करते हैं। यथा अश्व, श्वान, गज आदि पशु स्वामिभक्त होते हैं, एवं समय आने पर उनके प्राणरक्षक के रूप में भी देखे जाते हैं।
जरायुज योनि के ही द्वितीय प्रभेद मनुष्ययोनि में चार से अधिक एक आनन्दमय कोष का भी विकास है। पञ्चकोषों के विकास के कारण ही मनुष्य में कर्म की स्वतन्त्रता होती है। मनुष्य यदि चाहे तो पुरुषार्थ द्वारा पाँचों कोषों का विकास कर पूर्ण ज्ञानसम्पन्न मानव भी हो सकता है। इसी प्रकार कर्मोन्नति द्वारा मनुष्य जितना-जितना उन्नत होता जाता है, उसमें ईश्वरीय कलाओं का विकास भी उतना हो होता जाता है। इस कला विकास में ऐश्वर्यमय शक्ति का सम्ब्ध अधिक है, अज्ञेय ब्रह्मशक्ति का नहीं। विष्णु भगवान् के साथ ही भगवदवतार का प्रधान सम्बन्ध रहता है। क्योंकि विष्णु ही इस सृष्टि के रक्षक एवं पालक हैं। यद्यपि सृष्टि, स्थिति एवं संहार के असाधारण कार्यों की निष्पन्नता के लिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवों के अवतार हुआ करते हैं, पर जहाँ तक रक्षा का प्रश्न है, इसके लिए विष्णु के ही अवतार माने जाते हैं।
अवतार-तिथिव्रत
अवतारों की वे सब जन्मतिथियाँ जो जयन्तियों के नाम से विख्यात हैं, व्रत के लिए विहित हैं। कृत्यसारसमुच्चय (पृ० 13) के अनुसार ये तिथियाँ निम्नलिखित हैं : मत्स्य चैत्र शुक्ल 3; कूर्म वैशाख पूर्णिमा; वराह भाद्र शुक्ल 3; नरसिंह वैशाख शुक्ल 14; वामन भाद्र शुक्ल 12; परशुराम वैशाख शुक्ल 3; राम चैत्र शुक्ल 9; बलराम भाद्र शुक्ल 6 ; कृष्ण भाद्र कृष्ण 8; बुद्ध ज्येष्ठ शुक्ल 2 या वैशाखी पूर्णिमा। कुछ ग्रन्थों के अनुसार कल्कि अवतार अभी होना शेष है जबकि कुछ ने श्रावण शुक्ल 6 को कल्किजयन्ती का उल्लेख किया है। कुछ ग्रन्थों में इन जयन्तियों अथवा जन्मतिथियों में अन्तर है।
अवधूत
सम्यक् प्रकार से धूत (परिष्कृत), निर्मुक्त। इस शब्द का प्रयोग शैव एवं वैष्णव दोनों प्रकार के साधुओं के अर्थ में होता है। शैव अवधूत वे संन्यासी हैं जो तपस्या का कठोर जीवन बिताते हैं, जो कम से कम कपड़े पहनते हैं और कपड़े की पूर्ति भस्म से करते हैं, तथा अपने केश जटा के रूप में बढ़ाते हैं। वे मौन रहते हैं, हर प्रकार से उनका जीवन बड़ा क्लेशसाध्य होता है। योगी सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरखनाथ को इस श्रेणी के विचित्र अवधूत के नाम से पुकारा जाता है।
वैष्णव सम्प्रदाय में भी अवधूत का महत्त्व है। जब स्वामी रामानन्द ने सामान्य जनों को वैष्णवों में दीक्षित करने के लिए अपने धार्मिक सम्प्रदाय से जातिभेद हटा दिया तब उन्होंनें अपने शिष्यों को 'अवधूत' नाम दिया, जिसका अर्थ था कि उन्होंने अपने पुराने रूप (पूर्ववर्ती स्वेच्छाचार) को त्याग दिया है, उन्होंने धार्मिक जीवन स्वीकार कर अपनी व्यक्तिगत आदतों को त्याग दिया है, और इस प्रकार समाज एवं प्रकृति के बन्धनों को तोड़ दिया है। ऐसे रामानन्दी साधु दसनामी संन्यासियों से अधिक कड़ा अनुशासनमय धार्मिक जीवन यापन करते हैं।
[फूल-सहित जल लेकर पिण्डों के पृष्ठ भाग पर अलग-अलग बायीं ओर जल सींचना चाहिए।]
अवन्तिका
मालव देश की प्राचीन राजधानी। उज्जयिनी (उज्जैन) का वास्तव में यही मूल नाम था। यहीं से शिव ने त्रिपुर पर विजय प्राप्त की थी। तब से इसका नाम उज्जयिनी (विजय वाली) पड़ा। इसकी गणना भारत की सप्त पवित्र मोक्षदायिनी पुरियों में हैं :
[(1) अयोध्या, (2) मथुरा, (3) माया, (4) काशी, (5) काञ्ची, (6) अवन्तिका और (7) द्वारावती ये सातों पुरी मोक्षदायिका हैं।]
इसके पर्याय विशाला और पुष्पकरण्डिनी भी हैं। 'संस्कारतत्त्व' में कहा गया है :
उत्पन्नोर्कः कलिङ्गे तु यमुनायाञ्च चन्द्रमाः। अवन्त्यां च कुजो जातो मागधे च हिमांशुजः।।
[कलिङ्ग में सूर्य की, यमुना में चन्द्रमा की, अवन्ती में मङ्गल की और मगध में बुध की उत्पत्ति हुई।]
अवभृथ
दीक्षान्तस्नान; प्रधान यज्ञ समाप्त होने पर सामूहिक नदीस्नान; यज्ञादि के न्यूनाधिक दोष की शांति के निमित्त शेष कर्त्तव्य होम। स्नान इसका एक मुख्य अङ्ग है :
ततश्चकारावभृथं विधिदृष्टेन कर्मणा। (महाभारत)
[शास्त्रोक्त विधान के अनुसार उसने अवभृथ स्नान किया।]
[कुण्ड भर दूध देने वाली गौ ने अवभृथ से भी पवित्र अपने दूध से भूमि को सिंचित किया।]
अवमदिन
सप्ताह का ऐसा दिन, जिसमें दो तिथियों का अन्त हो। इस दिन की दूसरी तिथि की गणना नहीं की जाती और उसका क्षय होना कहा जाता है। प्रथम बार व्रत आचरण करने में इसको त्यक्त समझा जाता है।
अवरोधन
रोक, बाधा, किसी क्रिया की रुकावट। पाण्डव-गीता में कथन है :
कृष्ण त्वदीयपदपंकजपिञ्जरान्ते, अद्यैव मे विशतु मानसराजहंसः। प्राणप्रयाणसमये कफवातपित्तैः, कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते।।
[ हे कृष्ण! तुम्हारे चरणरूपी कमल के पिंजड़े के भीतर मेरा मनरूपी राजहंश आज ही प्रविष्ट हो जाय। क्योंकि प्राण-प्रयाण के समय कफ, बात और पित्त से कण्ठ के अवरुद्ध हो जाने पर तुम्हारा स्मरण कैसे हो सकता है?]
राजाओं के अन्तःपुर को अवरोध कहते हैं, जहाँ उनकी रानियाँ निवास करती हैं।