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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अर्थशास्त्र
प्राचीन हिन्दू राजनीति का प्रसिद्ध ग्रन्थ कौटिलीय अर्थशास्त्र। यद्यपि यह धार्मिक ग्रन्थ नहीं है, किन्तु स्थान-स्थान पर इसमें तत्कालीन धर्म एवं नैतिकता का वर्णन विशद रूप से प्राप्त होता है। राज्य, विधान, अपराध एवं उसके दण्ड, सामाजिक एवं आर्थिक दशा (जो उस समय देश में व्याप्त थी) का इसमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण वर्णन है। तत्कालीन धर्माचरण का भी यह ग्रन्थ सर्वोत्तम प्रमाण है।
अर्थशास्त्र' बहुत व्यापक शब्द है। इसमें समाजशास्त्र, दण्डनीति और सम्पत्तिशात्र तीनों का समावेश है। वार्ता अर्थात् व्यापार सन्बन्धी सभी बातें सम्पत्तिशास्त्र के विषय हैं। राजनीति सम्बन्धी सभा बातें दण्डनीति के विषय हैं। त्रयी में वर्णाश्रम विभाग और उनके सम्बन्ध में कर्त्तव्य-अकर्त्‍तव्‍य का विचार समाजशास्त्र का विषय है। कौटिलीय अर्थशास्त्र में इन सभी विषयों का समाहार है।

अर्धनारीश
अर्धाङ्गिनी पार्वती और उनके ईश शंकर का संयुक्त रूप। उनका ध्यान इस प्रकार बताया गया है :
नीलप्रवालरुचिरं विलसत्त्रिनेत्रं, पाशारुणोत्पलकपालकशूलहस्तम्। अर्धाम्बिकेशमनिशं प्रविभक्तभूम्, बालेन्दुबद्धमुकुटं प्रणमामि रूपम्।।
[नीले प्रवाल के समान सुन्दर, तीन नेत्रों से सुशोभित, हाथ में पाश, लाल कमल, कपाल और त्रिशूल लिये हुए, अङ्गों मे भूषण धारण किये हुए, बालचन्द्रमा रूपी मुकुट पहने हुए शिव-पार्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।]

अर्धनारीश्वर
आधे-आधे रूप एक देह में संमिलित गौरी-शंकर। यह शिव का एक रूप है। तिथ्यादितत्त्व में कथन है :
अष्टमी नवमीयुक्ता नवमी चाष्टमीयुता। अर्धनारीश्वरप्राया उमामाहेश्वरी तिथिः।।
[अष्टमी नवमी से युक्त अथवा नवमी अष्टमी से युक्त हो, उसे अर्धनारीश्वरी या उमामाहेश्वरी तिथि कहते हैं।]
यह रूप शिव और शक्ति के मिलन का प्रतीक है। इसमें आधे पुरुष और आधी स्त्री का मिलन है। इससे आनन्द की उत्पत्ति होती है, और फिर सम्पूर्ण विश्व में इसकी अभिव्यक्ति।

अर्धलक्ष्मीहरि
आधे लक्ष्मी के आकार में तथा आधे हरि के आकार में जो हरि भगवान् हैं वे अर्धलक्ष्मीहरि हैं। यह विष्णु का एक स्वरूप है। गौतमीय तन्त्र में कथन है :
ऋषिः प्रजापतिश्छन्दो गायत्री देवता पुनः। अर्धलक्ष्मीहरिः प्रोक्तः श्रीबीजेन षडङ्गकम्।।
[प्रजापति ऋषि, छन्द गायत्री, देवता अर्धलक्ष्मीहरि कहे गये हैं। श्री बीज के द्वारा षडङ्गन्यास होता है।]
यह प्रतीक अर्धनारीश्वर (शिव) के समानान्तर है। यह भी सत् और चित् के मिलन का रूपक है, जिससे आनन्द की सृष्टि होती है।

अर्धश्रावणिका व्रत
श्रावण शुक्ल प्रतिपदा को व्रतारम्भ करके एक मास पर्यन्त उसका अनुष्ठान करना चाहिए। पार्वती की, जिन्हें अर्द्धश्रावणी भी कहा जाता है, पूजा होनी चाहिए। व्रती को एक मास तक एक समय अथवा दोनों समय विधि से आहार करना चाहिए। दे० हेमाद्रि, 2. 753-754।

अर्धोदय व्रत
स्कन्दपुराण के अनुसार माघ मास की अमावस्या के दिन यदि रविवार, व्यतीपात योग और श्रवण नक्षत्र हो तो अर्धोदय योग होता है। इस योग के दिन यह व्रत किया जाता है। कदाचित् ही इन सबका मिलन संभव होता है और इसे पवित्रता में करोड़ों सूर्यग्रहणों के तुल्य समझा जाता है। अर्धोदय के दिन प्रयाग में प्रातः गंगा-स्नान का बड़ा माहात्म्य है। किन्तु कहा गया है कि इस दिन सभी नदियाँ गङ्गातुल्य हो जाती हैं। इस व्रत के तीन देवता हैं --ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर और वे इसी क्रम में पूजनीय होते हैं। पौराणिक मन्त्रों के अनुसार अग्नि में घृत का हवन करते हैं तथा 'प्रजापते' (ऋ० वे० 10.121.10) ब्रह्मा के लिए, 'इदम् विष्णुः' (ऋ० वे० 1.12.17) विष्णु के लिए एवं 'त्र्यम्वकम्' (ऋ० वे० 7.59.12) महेश्वर के लिए, तीन मन्त्रों का प्रयोग करते हैं।
व्रतार्क (पत्रात्मक, 348 अ--350 ब) में कथित है कि भट्ट नारायण के 'प्रयागसेतु' के अनुसार यह योग पौष मास में पड़ता है जब अमान्त का परिगणन किया गया हो, तथा पूर्णिमान्त का परिगणन किया गया हो तब माघ में। भुजबलनिबन्ध (पृ०364-365) के अनुसार सूर्य उस समय मकर राशि पर होना चाहिए। तिथितत्त्व, 177, एवं व्रतार्क के अनुसार यह योग तभी मान्य होगा जब दिन में पड़े; रात में नहीं। कृत्यसारसमुच्चय (पृ० 30) के अनुसार यदि उपर्युक्त समूह में से कोई एक (जैसे, पौष अथवा माघ, अमावास्या, व्यतीपात, श्रवण नक्षत्र, रविवार) अनुपस्थित हो तो यह महोदय पर्व कहलाता है। अर्द्धोदय के अवसर पर ब्राह्ममुहूर्त में नदी स्नान अत्यन्त पुण्यदायक होता है।

अर्पण
भक्तिभाव से पूजा की सामग्री देवता के समक्ष निवेदन करना। गीता के अष्टम अध्याय में कथन है :
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददाति यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।
[हे अर्जुन, जो काम करते, भोजन करते, हवन करते, दान देते, तप करते हो उसे मेरे प्रति अर्पण करो।]
कैलासगौरं वृषमारुरुक्षो: पादार्पणानुग्रहपूतपृष्ठम्।। (रघुवंश)
[कैलास के समान गौर वर्णवाले नन्दी के ऊपर चढ़ने के लिए उद्यत शंकरजी के पैर रखने के कारण मेरी पीठ पवित्र हो गयी है।]

अर्बुद
(1) पञ्चविंश ब्राह्मण में वर्णित सूर्ययज्ञ में ग्रावस्तुत् पुरोहित के रूप में अर्बुद का उल्लेख है। स्पष्टतया इन्हें ऋषि अर्बुद काद्रवेय समझना चाहिए, जिनका वर्णन ऐतरेय ब्राह्मण (6.1) एवं कौशीतकि ब्राह्मण (29.1) में मन्त्रद्रष्टा के रूप में हुआ है।
(2) यह पर्वतविशेष (आबू) का नाम है। भारत के प्रसिद्ध तीर्थों में इसकी गणना है। सनातनी हिन्दू और जैन सम्प्रदाय वाले दोनों इसे पवित्र मानते हैं। यह राजस्थान में स्थित है।

अर्य
यह शब्द साहित्य में विशेष व्यवहृत नहीं है। वेदभाष्यकार महीधर इसका अर्थ वैश्य लगाते हैं, साधारणतः 'आर्य' नहीं लगाते। यद्यपि 'अर्य' का अर्थ वैश्य परवर्ती काल में प्रचलित रहा है, किन्तु यह निश्चित नहीं है कि यह मौलिक अर्थ है। फिर भी इसका बहुप्रचलित अर्थ 'वैश्य' ही है। वाजसनेयी संहिता में इसका प्रयोग इस अर्थ में मिलता है :
यथेमां वाचं कल्याणीमा वदानि जनेभ्यः ब्रह्मराजन्याभ्‍यां शूद्राय चार्याय च।
[इस कल्याणी वाणी को मैं सम्पूर्ण जनता के लिए बोलता हूँ--ब्राह्मण, राजन्य, शूद्र और अर्य (वैश्य) के लिए।]

अर्यक्त
पञ्चविंश ब्राह्मण में उल्लिखित वह परिवार जिसके सर्पयज्ञ में अर्यक गृहपति एवं आरुणि होता थे।


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