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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

अरुण
सूर्य का सारथि। यह विनता का पुत्र और गरुड़ का जेष्ठ भ्राता है।
पौराणिक कल्पना के अनुसार यह पंगु (पाँवरहित) है। प्रायः सूर्यमन्दिरों के सामने अरुण-स्तम्भ स्थापित किया जाता है।
इसका भौतिक आधार है सूर्योदय के पूर्व अरुणिमा (लाली)। इसी का रूपक है अरुण।

अरुण औपवेशि गौतम
तैत्तरीय संहिता, मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण और बृहदारण्यक उपनिषद् में अरुण औपवेशि गौतम को सर्वगुण सम्पन्न अध्यापक (आचार्य) बतलाया गया है। इनका पुत्र प्रसिद्ध उद्दालक आरुणि था। वह उपवेश का शिष्य तथा राजकुमार अश्वपति का समसामयिक था, जिसकी संगति द्वारा उसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ।

अरुणोदय
रात्रि के अन्तिम प्रहर का अर्ध भाग। दे. हेमाद्रि, काल पर चतुर्वर्गचिन्ताणणि, 259, 272; कालनिर्णय, 241। इस काल का उपयोग सन्ध्या, भजन, पूजन आदि में करना चाहिए।

अरुन्धती
वसिष्ठपत्नी, इसका पर्याय है अक्षमाला। भागवत के अनुसार अरुन्धती कर्दममुनि की महासाध्वी कन्या थी। आकाश में सप्तर्षियों के मध्य वसिष्ठ के पास अरुन्धती का तारा रहता है। जिसकी आयु पूर्ण हो चुकी है, वह इसको नहीं देख पता :
दीपनिर्वाणगन्धञ्च सुहृद्वाक्यमरुन्धतीम्। न जिघ्रन्ति न श्रृण्वन्ति न पश्यन्ति गतायुषः।।
[दीपक बुझने की गन्ध, मित्रों के वचन और अरुन्धती तारे को व्यतीत आयु वाले न सूँघते, न सुनते और न देखते हैं।]
विवाह में सप्तपदी गमन के अनन्तर वर मन्त्र का उच्चारण करता हुआ बधू को अरुन्धती का दर्शन कराता है। अरुन्धती स्थायी विवाह सम्बन्ध का प्रतीक है।

अरुन्धतीव्रत
इसका विधान केवल महिलाओं के लिए है। वैधव्य से मुक्ति तथा सन्तान की प्राप्ति के लिए यह व्रत किया जाता है। इसमें वसन्त ऋतु प्रारम्भ होने के तीसरे दिन व्रतारम्भ और तीन रात्रि तक उपवास होता है। दे० हेमाद्रि, व्रत काण्ड, 2, 312 -315, व्रतराज, 89-93।

अर्कव्रत
मास के दोनों पक्षों में षष्ठी तथा सप्तमी के दिन केवल रात्रि में भोजन किया जाता है। यह व्रत एक वर्ष पर्यन्त चलता है। इसमें अर्क (सूर्य) का पूजन करना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरू, 397; हेमाद्रि, 2.509।

अर्कसप्तमी
यह तिथिव्रत है। दो वर्ष पर्यन्त यह व्रत चलता है, सूर्य देवता है। केवल अर्क के पौधे के पत्तों के बने दोनों में जलपान करना चाहिए। दे०हेमाद्रि, 788--789; पद्मपुराण, 75, 8.6-106। यह व्रत सूर्य के उत्तरायण होने पर शुक्ल पक्ष में किसी रविवार को किया जाना चाहिए। पंचमी को एक समय और षष्ठी को रात्रि में भोजन, सप्तमी को उपवास तथा अष्टमी को व्रत का पारण करना चाहिए।

अर्कसम्पुट सप्तमी
फाल्गुन शुक्ल सप्तमी को व्रताम्भ। एक वर्ष पर्यन्त व्रत का पालन। इसमें सूर्य की पूजा का विधान है। दे० भविष्य पुराण, 210--2-81।

अर्काष्टिमी
शुक्ल पक्ष की रविवासरीय अष्टमी को यह व्रत आचरणीय है। उमा तथा शिव की पूजा इसमें होनी चाहिए, जिनकी आँखों में सूर्य विश्राम करता है। दे० हेमाद्रि, 835-837।

अर्गलास्तोत्र
एक छोटा-सा दुर्गा स्तोत्र है। स्मार्तों की दक्षिणामार्गी शाखा के अनुयायी अपने घरों में साधारणतः यन्त्र के रूप में या कलश के रूप में देवी की स्थापना और पूजा करते हैं। पूजा में यन्त्र पर कुङ्कुम तथा पत्र-पुष्प चढ़ाते हैं। किन्तु देवी की पूजा का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है 'चण्डीपाठ' करना तथा उसके पूर्व एवं पश्चात् दूसरे पवित्र स्तोत्रों का पढ़ा जाना। उनके नाम हैं कीलक, कवच तथा अर्गलास्तोत्र। 'अर्गला-स्तोत्र' मार्कण्डेय तथा वाराह पुराण से लिया गया है।


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