आश्विन शुक्ल दशमी को यह व्रत होता है। विशेषतः राजा के लिए इसका विधान है। हेमाद्रि तथा स्मृतिकौस्तुभ के अनुसार श्री राम ने उसी दिन लंका पर आक्रमण किया था। उस दिन श्रवण नक्षत्र था। इसमें देवीपूजा होती है। दे. हेमाद्रि, व्रतखण्ड, पृष्ठ 968 से 973।
अपराधशत व्रत
मार्गशीर्ष द्वादशी से इसका प्रारम्भ होता है। इसमें विष्णु की पूजा होती है। सौ अपराधों की गणना भविष्योत्तर पुराण (146.6-21) में पायी जाती है। उपर्युक्त अपराध इस व्रत से नष्ट हो जाते हैं।
अपरोक्षानुभूति
(1) बिना किसी बौद्धिक माध्यम के साक्षात् ब्रह्मज्ञान हो जाने को ही अपरोक्षानुभूति कहते हैं।
(2) 'अपरोक्षानुभूति' शङ्कराचार्य के लिखे फुटकर ग्रन्थों में से एक है। इस पर माधवाचार्य ने बहुत सुन्दर टीका लिखी है जिसका नाम अपरोक्षानुभूतिप्रकाश है।
अपर्णा
जिसने तपस्या के समय में पत्ते भी नहीं खाये, वह पार्वती अपर्णा कही गयी है। यह दुर्गा का ही पर्याय है :
स्वयं विशीर्णद्रुमपर्णवृत्तिता, परा हि काष्ठा तपसस्तया पुनः। तदप्यपाकीर्णमितः प्रियंवदाम्। वदन्त्यपर्णेति च तां पुराविदः।। (कुमारसम्भव)
[स्वयं गिरे हुए पत्तों का भक्षण करना, यह तपस्वियों के लिए तपस्या की अन्तिम सीमा है। किन्तु पार्वती ने उन गिरे हुए पत्तों का भी भक्षण नहीं किया। अतः उसे विद्वान् लोग अपर्णा कहते हैं।]
अपवर्ग
(1) संसार से मुक्त मानवजीवन के चार पुरुषार्थों में, अर्थ, काम और मोक्ष-में से अन्तिम मोक्ष अपवर्ग कहलाता है।
[क्रिया की सफल समाप्ति हो जाने पर पुरस्कार रूप में सेवकों को दी गयी सम्पत्ति दुर्योधन की कृतज्ञता को प्रकट करती है।]
अपविद्ध
धर्मशास्त्र में वर्णित बारह प्रकार के पुत्रों में एक। स्मृतियों ने इसकी स्थिति एवं अधिकार के बारे में प्रकाश डाला है। मनु (9.171) कहते हैं कि अविपद्ध अपने माता-पिता द्वारा त्याग हुआ पुत्र है। मनु के पुराने भाष्यकार मेधातिथि का कथन है कि इस पुत्रत्याग का कारण परिवार की अधिक गिरी दशा अथवा पुत्र के द्वारा किया हुआ कोई जघन्य अपराध होता था। ऐसे त्यागे हुए बालक पर द्रवित हो यदि कोई उसे पालता था तो उसका स्थान दूसरी श्रेणी के पुत्रों जैसा घटकर होता था। आजकल का पालित पुत्र उन्हीं प्राचीन प्रयोगों की स्मृति दिलाता है।
अपात्र
दान देने के लिए अयोग्य व्यक्ति। इसको कुपात्र अथवा असत्पात्र भी कहते हैं :
[अपात्र को दिया गया सुवर्णदान दाता को नरकरूपी समुद्र में गिरा देता है।]
अपापसङ्क्रान्ति व्रत
यह व्रत संक्रान्ति के दिन प्रारम्भ होकर एक वर्षपर्यन्त चलता है। इसके देवता सूर्य हैं। इसमें श्वेत तिल का समर्पण किया जाता है। दे. हेमाद्रि, व्रतखण्ड, 2.728.740।
अपुनर्भव
पुनर्जन्म न होने की स्थिति। इसको मुक्ति, कैवल्य अथवा पुनर्जन्म का अभाव भी कहते हैं। मानव के चार पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में यह अन्तिम और सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
अपूर्व
जो यज्ञादिक क्रियाएँ की जाती हैं, शास्त्रों में उनके बहुत से फल भी बतलाये गये हैं। किन्तु ये फल क्रिया के अन्त के साथ ही दृष्टिगोचर नहीं होते। कृत कर्म आत्मा में उस अदृश्य शक्ति को उत्पन्न करते हैं जो समय आने पर वेदविहित फल देती है। इस विचार की व्याख्या करते हुए पूर्वमीमांसा में कहा गया है कि धर्म आत्मा में अपूर्व नामक गुण उत्पन्न करता है जो स्वर्गीय सुख एवं मोक्ष का कारण है। कर्म और उसके फल के बीच में अपूर्व एक अदृश्य कड़ी है। विशेष विवरण के लिए दे. 'मीमांसादर्शन'।