logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

शारदामठ
स्वामी शङ्कराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों में से एक। द्वारकापुरी के मठ का नाम शारदामठ या शारदापीठ है।

शारीरक
ब्रह्माण्ड या पिण्ड शरीर में निवास करने वाला अद्वैत आत्मा ही शारीर है। उसको आधार मानकर लिखे गये ग्रन्थ को 'शारीरक' कहते हैं। वेदव्यासकृत वेदान्तसूत्रों को ही 'शारीरकसूत्र' कहा जाता है। इनके ऊपर लिखे गये शाङ्करभाष्य का नाम भी 'शारीरक भाष्य' है।

शालग्राम
विष्णुमूर्ति का प्रतीक गोल शिलाखण्ड। नेपाल की गण्डकी अथवा नारायणी नदी में प्राप्‍त वज्रकीट से कृत चक्रयुक्त शिला, अथवा द्वारका में प्राप्त ऐसी ही (गोमतीचक्र) शिला शालग्राम कहलाती है। इसके लक्षण और माहात्म्य आदि पुराणों में विस्तार से वर्णित हैं। पद्मपुराण के पातालखण्ड में इसका विशेष वर्णन है।

शास्त्र
शास्त्र वह है जिससे शासन, आदेश अथवा शिक्षण किया जाता है। शास्त्र की उत्पत्ति का वर्णन मत्स्यपुराण (अ० 3) में इस प्रकार दिया हुआ है :
पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम्। नित्यशब्दमयं पुण्यं शतकोटिप्रविस्तरम्।। अनन्तरञ्च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिःसृताः। मीमांसा-न्याय-विद्याश्च प्रमाणं तर्कसंयुतम्।। कार्याकार्य में शास्त्र ही प्रमाण माना गया है।

शास्त्रदर्पण
इस वेदान्तग्रन्थ के रचयिता आचार्य अमलानन्द हैं। इसमें ब्रह्मसूत्र के अधिकरणों की व्याख्या की गयी है। इसका रचनाकाल तेरहवीं शती का उत्तरार्ध है।

शिक्षा
छः वेदाङ्गों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्द) में से प्रथम वेदाङ्ग। इसको वेदों की नासिका कहा गया है। यह शुद्ध उच्चारण (ध्वनि) का शास्त्र है। स्वर और व्यंजनों का शुद्ध उच्चारण शब्दों के अर्थ का ठीक-ठीक बोध कराता है। मन्त्रों के ठीक उच्चारण से ही उनका मनोवांछित प्रभाव पड़ता है। वैदिक मन्त्रों के उच्चारण में स्वर प्रक्रिया का विशेष महत्त्व है।
यद्यपि यह शास्त्र बहुत पुराना है, तथापि इस विषय पर लिखे हुए ग्रन्थ बहुत कम मिलते हैं। एक अनुश्रुति के अनुसार जैगीषव्य के शिष्य बाभ्रव्य इस शास्त्र के प्रवर्तक थे। ऋग्वेद के क्रमपाठ की व्यवस्था भी इन्होंने ही की थी। महाभारत (शान्ति, 342.104) के अनुसार आचार्य गालव ने एक शिक्षाशास्त्रीय ग्रन्थ का निर्माण किया था। इनका उल्लेख अष्टाध्यायी में भी पाया जाता है। वास्तव में पाञ्चाल बाभ्रव्य का ही दूसरा नाम गालव था। भारद्वाज ऋषि प्रणीत 'भारद्वाजशिक्षा' नामक ग्रन्थ 'भाण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट' पूना से प्रकाशित हुआ है। परन्तु यह बहुत प्राचीन नहीं है। 'चारायणीशिक्षा' की एक हस्तलिखित प्रति डॉ० कीलहार्न को कश्मीर में प्राप्त हुई थी। राजशेखर की काव्यमीमांसा में पाणिनि के पूर्ववर्ती शब्दवित् आचार्य आपिशलि का उल्लेख हुआ है। पाणिनि के समय तक शिक्षाशास्त्र का पूर्ण विकास हो चुका था। 'पाणिनीय शिक्षा' इस विषय का प्रथम ग्रन्थ है जिसमें इस शास्त्र का सुव्यवस्थित विवेचन हुआ है। इस नाम से उपलब्ध ग्रन्थ का सम्पादन और प्रकाशन आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी सरस्वती ने किया था। वाराणसी से एक ग्रन्थ 'शिक्षासंग्रह' के नाम से प्रकाशित हुआ था, जिसमें गौतमशिक्षा, नारदीय शिक्षा, पाण्डुकीय शिक्षा और भारद्वाज शिक्षा सम्मिलित हैं। मूलतः वेदों के अलग-अलग शिक्षाग्रन्थ थे। आज केवल यजुर्वेद की याज्ञवल्क्यशिक्षा, सामवेद की नारदशिक्षा, अथर्ववेद की माण्डूकीशिक्षा ही उपलब्ध हैं। ऋग्वेद का कोई स्वतन्त्र शिक्षा ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है; उसके उच्चारण के लिए पाणिनीय शिक्षा का ही उपयोग किया जाता है।
ध्वनि का आरोह-अवरोह, उच्चारण की शुद्धता, उच्चारण की कालावधि का परिसीमन शिक्षाशास्त्र के मुख्य विषय हैं। इसके वर्ण्य विषयों में वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम और सन्तान इन छः की गणना होती है। 'अ' से लेकर 'ह' तक जितने वर्ण हैं उनके उच्चारण के विविध स्थान निश्चित हैं। वे हैं--कण्ठ, तालु, मूर्ध्ना, दन्त और ओष्ठ। स्वरों के तीन भेद हैं--उदात्, अनुदात्त और स्वरित। मात्राएँ तीन हैं--ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत। बल प्रयत्न को कहते हैं। प्रयत्न दो प्रकार के हैं--अल्पप्राण और महाप्राण। श्रुतिमधुर पाठ को साम कहा जाता है। सन्धि को सन्तान कहते हैं। शिक्षा के इन छः वर्ण्य विषयों के ज्ञान से ही भाषा का शुद्ध उच्चारण औऱ अर्थ बोध संभव है।

शिक्षावल्ली
तैत्तिरीयोपनिषद् के तीन विभागों में प्रथम विभाग। इसमें व्याकरण सम्बन्धी कुछ विवेचन के पश्चात् अद्वैत सिद्धान्तसमर्थक श्रुतियों का विन्यास है। इसी में स्नातक को दिया जाने वाला आचार्य का दीक्षान्त प्रवचन भी है, जो संप्रति अनेक भारतीय विश्वविद्यालयों के पदवीदानसमारोह में स्नातकों के समक्ष पढ़ा जाता है।

शिखरिणीमाला
अप्पय दीक्षित द्वारा लिखा गया एक ग्रन्थ। इसमें चौसठ शिखरिणी छन्दों में भगवान् शङ्कर के सगुण स्वरूप की स्तुति की गयी है।

शिखा
सिर के मध्य में स्थित केशपुञ्ज। यह हिन्दुओं का विशेष धार्मिक चिह्न है। चूडाकरण संस्कार के समय सिर के मध्य में बालों का एक गुच्छा छोड़ा जाता है। प्रत्येक धार्मिक कृत्य के समय (देवकर्म के समय) शिखा बन्धन किया जाता है। कर्म करने के तीन आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ) में ही शिखा रखी जाती है, चौथे (संन्यास) में शिखा त्याग दी जाती है।

शिरोव्रत
मुण्डकोपनिषद् (3.2.20) तथा विष्णु ध० सू० (26.12) में इस व्रत का उल्लेख मिलता है। शङ्कराचार्य इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि इस व्रत में सिर पर अग्नि (तेज) धारण करना होता है, जो ज्ञान संचय का प्रतीक है।


logo