अथर्ववेदीय कर्मकाण्ड तीन भागों में विभक्त है-- (1) स्वस्तिक (कल्याणकारी) (2) पौष्टिक (पोषण करने वाला) और (3) शान्तिक (उपद्रव शान्त करनेवाला)। वे सभी कर्म शान्तिकर्म कहलाते हैं जिनसे आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक उपद्रव शान्त होते हैं। आगे चलकर ज्योतिष की व्यापकता बढ़ जाने पर ग्रहशान्ति कर्मकाण्ड का प्रधान अङ्ग बन गया। यह माना जाने लगा कि दुष्ट ग्रहों के कारण ही मनुष्य पर विपत्तियाँ आती हैं, इसलिए विपत्तियों से बचने के लिए ग्रहशान्ति अथवा ग्रहों की पूजा आवश्यक है।
शान्तिकर्मों में अद्भुतशान्ति नामक भी कर्म है। प्रकृतिविरुद्ध अद्भुत आपदाओं की पूर्व सूचना के लिए देवता 'उपसर्ग' उत्पन्न करते हैं। इस सम्बन्ध में शान्तिकर्म करने से भावी आपत्तियों की निवृत्ति होती है (दे० 'अद्भुतसागर' में आथर्वण अद्भुतवचनम्)। इन उपसर्गों के कारण प्रायः नैतिक होते हैं :
यह अथर्ववेद का एक उपांग है। इस कल्प में पहले विनायकों द्वारा ग्रस्त प्राणी के लक्षण हैं। उनकी शान्ति के लिए द्रव्य एवं सामग्री इकट्ठा करने, पूजा, अभिषेक और वैनायक होमादि करने का विधान इस कल्प में बतलाया गया है। आदित्यादि नवग्रहों के जप, यज्ञ आदि भी इसी में सन्निविष्ट हैं।
शान्तिपञ्चमी
श्रावण शुक्ल पञ्चमी को काले तथा अन्य रंगों से सर्पों की आकृति बनाकर उनकी गन्ध-अक्षत-लावा आदि से पूजा करनी चाहिए तथा अग्रिम मास की पञ्चमी को दर्भों से साँप बनाकर उनकी तथा इन्द्राणी की पूजा करनी चाहिए। इससे सर्प सर्वदा व्रतकर्ता के ऊपर प्रसन्न रहते हैं। इसका मन्त्र है 'कुरुकुल्ले हुं फट् स्वाहा'।
शाप
क्रोधपूर्वक किसी के अनिष्ट का उद्घोष 'शाप' कहलाता है। विशेषकर ऋषि, मुनि, तपस्वी आदि के अनिष्ट कथन को शाप कहते हैं। किसी महान् नैतिक अपराध के हो जाने पर शाप दिया जाता था। इसके अनेक उदाहरण प्राचीन साहित्य में उपलब्ध हैं। गौतम ने पतिव्रत भङ्ग के कारण अपनी पत्नी अहल्या को शाप दिया था कि वह शिला हो जाय। दुर्वासा अपने क्रोधी स्वभाव के कारण शाप देने के लिए प्रसिद्ध थे।
शाबर भाष्य
दे० 'शबर स्वामी'।
शाम्बव्य गृह्यसूत्र
मुख्य गृह्य ग्रन्थों में शाम्बव्य के सूत्र का नाम भी उल्लेखनीय है। यह ऋग्वेद से सम्बन्धित गृह्यसूत्र है।
शाम्भरायणी व्रत
यह नक्षत्रव्रत है और अच्युत इसके देवता हैं। सात वर्षपर्यन्त इसके आचरण का विधान है। बारह नक्षत्रों, जैसे--कृतिका, मृगशिरा, पुष्य तथा इसी प्रकार के अन्य नक्षत्रों के हिसाब से वर्ष के बारह मासों का नामोल्लेख किया गया है, यथा कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष आदि। कार्तिक मास की पूर्णिमा से व्रत का आरम्भ कर विष्णु का पूजन करना चाहिए। कार्तिक मास से अग्रिम चार मासों के लिए कृशरा (खिचड़ी) नैवेद्य है, फाल्गुन से संयाव (हलुआ) तथा आषाढ़ से पायस (खीर)। ब्राह्मणों को भी नैवेद्य के हिसाब से भोजन कराया जाय। शाम्भरायणी नामक ब्राह्मणी स्त्री की चाँदी की प्रतिमा की स्थापना की जाय। शाम्भरायणी उस ब्राह्मणी का नाम है जिससे बृहस्पति ने इन्द्र के पूर्वजों के बारे में पूछा था। भगवान् कृष्ण ने भी इस आदरणीय महिला की कथा सुनायी है। (भविष्योत्तरपुराण)।
शारदातिलक
शारदातिलक तन्त्र शाक्त मत का अधिकारपूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थ है। इसके रचयिता लक्ष्मण देशिक हैं। ये ग्यारहवीं शती में उत्पन्न हुए थे। इस ग्रंन्थ में केवल मन्त्र एवं यातु (जादू) हैं, क्रियाएँ बहुत कम हैं। यह सरस्वती से सम्बधित है जो शारदा भी कहलाती हैं। यह मन्त्रों का वर्गीकरण उपस्थित करता है, उनके प्रयोगार्थ प्रारम्भिक दीक्षा तथा याज्ञिक अग्नि में होम करने के लिए मन्त्रों का प्रयोजन बतलाता है। मुद्राओं तथा अनेक यन्त्रों का वर्णन करता है। अन्तिम अध्याय में तान्त्रिक योग है।
शारदापूजा
शरद् काल की नवमी तिथि की देवताओं के द्वारा दुर्गा देवी का आवाहन हुआ था, इसलिए ये शारदा कहलाती हैं :
शरत्काले पुरा यस्माद् नवम्यां बोधिता सुरैः। शारदा सा समाख्याता पीठे लोके च नामतः।।
शरत्कालीन दुर्गापूजा का नाम ही शारदापूजा है। देवीभागवत (अ० 29-30) में शारदापूजा का विस्तृत वर्णन पाया जाता है।