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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

शाकसप्तमी
कार्तिक शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का प्रारम्भ होता है। वर्ष के चार-चार महीनों के तीन भाग कर प्रति भाग में एक वर्षपर्यन्त व्रताचरण करना चाहिए। पञ्चमी को एकभक्त, षष्ठी को नक्त तथा सप्तमी को उपवास रखा जाय। इस दिन ब्राह्मणों को अच्छे मसालों से बनी वनस्पतियों (शाकों) से युक्त भोजन कराना विहित है। व्रती को स्वयं रात्रि में भोजन करना चाहिए। सूर्य इसके देवता हैं। चार-चार महीनों के प्रति भाग में भिन्न प्रकार के पुष्प (अगस्ति, सुगन्धित पुष्प, करवीर आदि), प्रलेप (केसर, श्वेत चन्दन, लाल चन्दन), धूप (अपराजित, अगरु तथा गुग्गुलु), नैवेद्य (खीर, गुड़ की चपाती, उबाले हुए चावल) का उपयोग करना चाहिए। वर्ष के अन्त में ब्राह्मणों को भोजन कराना तथा किसी पुराणपाठक से पुराण श्रवण करना चाहिए।

शाकार्य
कात्यायान के वाजसनेय प्रातिशाख्य में अनेक आचार्यों के साथ शाकार्य का नामोल्लेख हुआ है।

शाकिनी
दुर्गा की एक अनुचरी। कात्यायनीकल्प में इसका उल्‍लेख है :
डाकिनी योगिनी चैव खेचरी शाकिनी तथा। दिक्षु पूज्या इमा देव्यः सुसिद्धाः फलदायिकाः।।

शाक्त
शक्ति या दुर्गा के उपासक। जिस सम्प्रदाय की इष्ट देवता 'शक्ति' है उसको ही शाक्त कहते हैं।

शाक्तमत
शक्तिपूजक सम्प्रदाय। शक्तिपूजा का स्रोत वेदों में प्राप्त होता है। वाक्, सरस्वती, श्रद्धा आदि के रूप में स्त्रीशक्ति की कल्पना वेदों में की गयी है। सभी देवताओं की देवियों (पत्नियों) की कल्पना भी शक्ति की ही कल्पना है। ऋग्वेद के अष्टम अष्टक के अन्तिम सूक्त में 'इयं शुष्मेभिः' आदि मन्त्रों से महाशक्ति सरस्वती की स्तुति की गयी है। सामवेद के वाचंयम सूक्त में 'हुवाइवाचम्' आदि तथा ज्योतिष्टोम् में 'वाग्विसर्जन स्तोम' का उल्लेख है। यजुर्वेद (अ० 2.2) में 'सरस्वत्यै स्वाहा' मन्त्र से आहुति देने का विधान है। यजुर्वेद (5.13) में पृथ्वी और अदिति देवियों का वर्णन है। इसके सत्रहवें अध्याय के 55वें मन्त्र में पाँच दिशाओं से विघ्न-बाधा निवारण के लिए इन्द्र, वरुण, यम, सोम और ब्रह्मा देवताओं की शक्तियों का आवाहन किया गया है। अथर्ववेद के चतुर्थ काण्ड के 30 वें सूक्त में महाशक्ति का निम्नांकित कथन है :
मैं सभी रुद्रों और वस्तुओं के साथ संचरण करती हूँ। इसी प्रकार सभी आदित्यों औऱ सभी देवों के साथ, आदि।` उपनिषदों में भी शक्ति की कल्पना का विकास दिखाई पड़ता है। केनोपनिषद् में इस बात का वर्णन है कि उमा हैमवती (पार्वती का एक पूर्व नाम) ने महाशक्ति के रूप में प्रकट होकर ब्रह्म का उपदेश किया। अथर्वशीर्ष, श्रीसूक्त, देवीसूक्त आदि में शक्ति की स्तुतियाँ भरी पड़ी हैं। नैगम (वैदिक) शाक्तों के अनुसार प्रमुख दस उपनिषदों में दस महाविद्याओं (शक्तियों) का ही वर्णन है। पुराणों में मार्कण्डेय पुराण, देवी पुराण, कालिका पुराण, देवी भागवत में शक्ति का विशेष रूप से वर्णन है। रामायण और महाभारत दोनों में देवी की स्तुतियाँ पायी जाती हैं। अद्भुत रामायण में सीताजी का वर्णन परम्परा शक्ति के रूप में है। वैष्णवग्रन्थ नारदपञ्चरात्र में भी दस महाविद्याओं का विस्तार से वर्णन है। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि शाक्तमत अत्यन्त प्राचीन है और उसका भी आधार श्रुति-स्मृति है, जिस प्रकार अन्य धार्मिक संप्रदायों का। शैव मत के समान ही शाक्तमत भी निगमानुमोदित है। परन्तु वैदिक कर्मकाण्ड की अपेक्षा शाक्त उपासना श्रेष्ठ मानी जाती है। आगमों के आचार का विकास होने पर शाक्तमत के दो उपसम्प्रदाय हो गये--(1) दक्षिणाचार (वैदिक मार्ग) और (2) वामाचार। दक्षिणाचार को समयाचार भी कहते हैं और वामाचार को कौलाचार। दक्षिणाचार सदाचारपूर्ण और दार्शनिक दृष्टि से अद्वैतावादी है। इसका अनुयायी अपने को शिव मानकर पञ्चतत्त्वों से शिवा (शक्ति) की पूजा करता है। इसमें पञ्च मकारों (मद्यादि) के स्थान पर विजयारस का सेवन होता है। इसके अनुसार शक्ति और शक्तिमान् की अभिन्नता की अनुभूति योग के द्वारा होती है। योग शक्ति-उपासना का प्रधान अङ्ग है। योग के छः चक्रों में कुण्डलिनी और आज्ञा दो चक्र महाशक्ति के प्रतीक हैं। आज्ञा चक्र की शक्ति से ही विश्व का विकास होता है। यौगिक साधनाओं में `समय` का एक विशेष अर्थ है। हृदयाकाश में चक्रभावना के द्वारा शक्ति के साथ अधिष्ठान, अनुष्ठान, अवस्थान, नाम तथा रूप भेद से पाँच प्रकार का साम्य धारण करनेवाले शिव ही `समय` कहे जाते हैं। समय वास्तव में शिव और शक्ति का सामरस्य (मिश्रण) है। समयाचार की साधना के अन्तर्गत मूलाधार में से सुप्त कुण्डलिनी को जगाकर स्‍आदि चक्रों से ले जाते हुए सहस्रार चक्र में अधिष्ठित सदाशिव के साथ ऐक्य या तादात्म्य करा देना हीसाधक का मुख्य ध्येय होता है। वामाचार अथवा कौलमत की साधना दक्षिणाचार से भिन्न है किन्तु ध्येय दोनों का एक ही हैं। `कौल` उसको कहते हैं जो शिव और शक्ति का तादात्म्य कराने में समर्थ है। `कुल` शक्ति अथवा कुण्डलिनी है; `अकुल` शिव है। जो अपनी यौगिक साधना से कुण्डलिनी को जागृत कर सहस्रार चक्र में स्थित शिव से उसका मिलन कराने में सक्षम है वही कौल है। कौल का आचार कौलाचार अथवा वामाचार कहलाता है। इसमे पञ्च मकारों का सेवन होता है। ये पञ्च मकार हैं (1) मद्य (2) मांस (3) मत्स्य (4) मुद्रा और (5) मैथुनि। वास्तव में ये नाम प्रतीकात्मक हैं और इनका रहस्य गूढ़ है। मध्य भौतिक मदिरा नहीं है, ब्रह्मरन्ध्र में स्थित सहस्रदल कमल से स्यूत अमृत ही मधु या मदिरा है। जो साधक ज्ञानरूपी खड्ग से वासनारूपी (पाप-पुण्य) पशुओं को मारता है और अपने मन को शिव में लगाता है वह मांस का सेवन है। मत्स्य शरीर में स्थित इड़ा तथा पिङ्गला नाड़ियों में प्रवाहित होने वाला श्वास तथा प्रश्वास है। वही साधक मत्स्य का सेवन करता है जो प्राणायाम की प्रक्रिया से श्वास-प्रश्वास को रोककर प्राणवायु को सुषुम्ना नाड़ी के भीतर संचालित करता है। असत् संग का त्याग और सत्संग का सेवन मुद्रा है। सहस्रार चक्र में स्थित शिव और कुण्डलिनी (शक्ति) का मिलन मैथुन (दो का एक होना) हैं।मूलतः कौलसाधना यौगिक उपासना थी। कालान्तर में कुछ ऐसे लोग इस साधना में घुस आये जो आचार के निम्न स्तर के अभ्यासी थे। इन लोगों ने पञ्च मकारों का भौतिक अर्थ लगाया और इनके द्वारा भौतिक मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन का खुलकर सेवन होने लगा। वामाचार के पतन और दुर्नाम का यही कारण था। शाक्त दर्शन में छत्तीर तत्त्व माने गये हैं जो तीन वर्गों में विभक्त हैं --(1) शिवतत्त्व (2) विद्यातत्त्व और (3) आत्मतत्त्व। शिवतत्त्व में दो तत्त्वों, शिव और शक्ति का समावेश है। विद्यातत्त्व में सदाशिव, ईश्वर और शुद्ध विद्या सम्मिलित हैं। आत्मतत्त्व में इकतीस तत्त्वों का समाहार है, जिनकी गणना इस प्रकार हैं--माया, कला, विद्या, राग, काल, नियति, पुरुष, प्रकृति, बुद्धि, अहंकार, मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेंन्द्रियाँ, पाँच विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) और पाँच महाभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी)। शिव-शक्तिसंगम में शाक्त मत के अनुसार परा शक्ति की ही प्रधानता होता है। परम पुरुष के हृदय में सृष्टि की इच्छा उत्पन्न होते ही उसके दो रूप, शिव और शक्ति प्रकट हो जाते हैं। शिव प्रकाशरूप है और शक्ति विमर्शरूप। विमर्श का तात्पर्य है पूर्ण और शुद्ध अहंकार की स्फूर्ति। इसके कई नाम हैं--चित्, चैतन्य, स्वातन्त्र्य, कर्तृत्व, स्फुरण आदि। प्रकाश और विमर्श का अस्तित्व युगपत् रहता है। प्रकाश को संवित् औऱ विमर्श को युक्ति भी कहा जता हैं। शिव और शक्ति के आन्तर निमेष को सदाशिव और बाह्य उन्मेष को ईश्वर कहते हैं। इसी शिव-शक्तिसंगम से सम्पूर्ण सृष्टि उत्पन्न होती है। शाक्त मत में वामाचार के उद्गम और विकास को लेकर कई मत प्रचलित हैं। कुछ लोग इसका उद्गम भारत के उस वर्ग से मानते हैं, जिसमें मातृशक्ति की पूजा आदि काल से चली आ रही थी, परन्तु वे लोग स्मार्त आचार से प्रभावित नहीं थे। दूसरे विचारक इस सम्प्रदाय में वामाचार के प्रवेश के लिए तिब्बत और चीन का प्रभाव मानते हैं। बौद्ध धर्म का महायान सम्प्रदाय इसका माध्यम था। चीनाचार आदि कई आगम ग्रन्थों में इस बात का उल्लेख है कि वसिष्ठ ऋषि ने बुद्ध के उपदेश से चीन देश में जाकर तारा देवी का दर्शन किया था। इससे स्पष्ट है कि तारा की उपासना चीन से भारत में आयी। नेपाली बौद्ध ग्रन्थ साधनमाला का तन्त्र के जटासाधन प्रसंग में निम्नांकित कथन भी इस तथ्य की पुष्टि करता हैं :आर्य नागार्जुनपादैर्भोटदेशात् समुद्धृता।`
[तारा देवी की मूर्ति आर्य नागार्जुनाचार्य द्वारा भोट देश (तिब्बत) से लायी गयी।] स्वतन्त्रतन्त्र नामक ग्रन्थ में भी तारा देवी की विदेशी उत्पत्ति का उल्लेख है :
मेरोः पश्चिमकोणे तु चोलनाख्यो ह्रदो महान्। तत्त्र जज्ञे स्वयं तारा देवी नीलसरस्वती।।
शाक्तों के पाँच वेदों, पाँच योगियों और पाँच पीठों का उल्लेख कुलालिकातन्त्र में पाया जाता है। इनमें उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम और ऊर्ध्व ये पाँच आम्नाय अथवा वेद हैं। महेश्वर, शिवयोगी आदि पाँच योगी हैं। उत्कल में उड्डियान, पंजाब में जालन्धर, महाराष्ट्र में पूर्ण, श्रीशैल पर मतङ्ग और कामरूप में कामाख्या ये पाँच पीठ हैं। आगे चलकर शाक्तों के इकावन पीठ हो गये और इस मत में बहुसंख्यक जनता दीक्षित होने लगी। इसका सबसे बड़ा आकर्षण यह था कि (भैरवी) चक्रपूजा में सभी शाक्त (चाहे वे किसी वर्ण के हों) ब्राह्मण माने जाने लगे। धार्मिक संस्कारों के मंडल, यन्त्र और चक्र जो शक्तिपूजा के अधिष्ठान थे, वैदिक और स्मार्त संस्कारों में भी प्रविष्ट हो गये। शाक्त मत का विशाल साहित्य है जिसका बहुत बड़ा अंश अभी तक अप्रकाशित है। इसके दो उपसम्प्रदाय हैं--(1) श्रीकुल और (2) कालीकुल। प्रथम उपसम्प्रदाय के अनेक ग्रन्थों में अगस्त्य का शक्तिसूत्र तथा शक्तिमहिम्नस्तोत्र, सुमेधा का त्रिपुरारहस्य, गौडपाद का विद्यारत्नसूत्र, शंकराचार्य के सौन्दर्यलहरी और प्रपञ्चसार एवं अभिनवगुप्त का तन्त्रालोक प्रसिद्ध हैं। दूसरे उपसम्प्रदाय में कालज्ञान, कालोत्तर, महाकालसंहिता आदि मुख्य हैं।
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शाक्त संन्यासी
शाक्त संन्यासी देश के कोने-कोने में छिटपुट पाये जाते हैं। रामकृष्ण परमहंस के गुरु तोतापुरी स्वयं रामकृष्ण तथा विवेकानन्द शाक्त संन्यासी थे। रामकृष्ण मिशन के अन्य स्वामी लोग भी शाक्त संन्यासियों के उदाहरण हैं तथा शङ्कराचार्य के दसनामियों की पुरी शाखा से सम्बद्ध हैं।

शाक्तानन्दतरिङ्गणी
यह स्वामी ब्रह्मानन्द गिरि रचित एक शाक्त ग्रन्थ है।

शाक्य मुनि
शाक्य वंश में अवतीर्ण होने के कारण गौतम बुद्ध शाक्य मुनि कहलाते थे। शाक शाल वृक्ष को कहते हैं। अयोध्या के इक्ष्वाकु (सूर्यपुत्र) वंश की एक शाखा गौतमगोत्रज कपिल मुनि के आश्रमप्रदेश में, जिसमें शाक वृक्षों का आधिक्य था, आकर बस गयी थी, इसलिए वह शाक्त कहलाने लगी। अमरकोश के टीकाकर भरत का निम्नांकित कथन है :
शाकवृक्षप्रतिच्छन्नं वासं यस्मात् प्रचक्रिरे। तस्मादिक्ष्वाकुवंश्यास्ते भुवि शाक्य इति श्रुताः।। शाक्य मुनि को शाक्यसिंह भी कहते हैं।

शाक्री
शक्र की शाक्ति। यह दुर्गा का पर्याय है :
इन्द्राणी इन्द्रजननी शाक्री शक्रपराक्रमा। वज्रांकुशकरा देवी वज्रा तेनोपगीयते।। (देवीपुराण)

शाख
विशाख को ही शाख भी कहते हैं। इनका दूसरा नाम कृत्तिकापुत्र या कार्तिकेय भी है। वास्तव में ये पार्वती के पुत्र थे, जिनका पालन कृतिकाओं ने किया था।


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