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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

शबर स्वामी
पूर्वमीमांसासूत्र के भाष्यकार। भाष्य की प्राचीन लेख शैली इनके ई० पाँचवीं शती में होने का प्रमाण प्रस्तुत करती है। प्रभाकर एवं कुमारिल दो पूर्वमीमांसाचार्यों ने शबर के भाष्य पर व्याख्यावार्तिक प्रस्तुत किये हैं। प्रभाकर शबर की आलोचना नहीं करते है, जबकि कुमारिल इनसे भिन्न मत स्थापित करते हैं।

शब्द
सब तरह के दृश्य पदार्थ, कल्पना अथवा भावों या विचारों की प्रतिच्छाया वा प्रतिबिम्ब 'शब्द' हैं। शब्द के अभाव में ज्ञान का स्वयंप्रकाशत्व लुप्त हो जाता है। किसी न किसी रूप में सभी योग मतानुयायी शब्द की उपासना करते हैं जो अति प्राचीन विधि है। प्रणव के रूप में इसका मूल वेद में उपलब्ध है। इसका प्राचीन नाम स्फोटवाद है। प्राचीन योगियों में भर्तृहरि ने शब्दाद्वैतवाद का प्रवर्तन किया। नाथ संप्रदाय में भी शब्द पर जोर दिया गया है। आधुनिक राधास्वामी मत, योग साधन ही जिसका लक्ष्य है, शब्द की ही उपासना बतलाता है। चरनदासी पन्थ में भी शब्द का प्राधान्य है।

शब्दप्रमाण
न्याय दर्शन के अनुसार चौथा प्रमाण शब्द है। 'आप्तोपदेश' अर्थात् आप्त पुरुष का वाक्य शब्द प्रमाण है। भाष्यकार ने आप्त पुरुष का यह लक्षण बतलाया है कि जो साक्षात्कृतधर्मा हो, जैसा देखा, सुना, अनुभव किया हो, ठीक-ठीक वैसा ही कहने वाला हो वही आप्त है। शब्दसमूह वाक्य होता है, शब्द वह है जो अर्थ व्यक्त करने में समर्थ हो। शब्द में शक्ति ईश्वर के संकेत से आती है। नव्य न्याय के अनुसार शब्द में शक्ति लम्बी परम्परा से आती है। शब्द प्रमाण दो प्रकार का है-- वैदिक और लौकिक। प्रथम पूर्ण और दूसरा संदिग्ध होता है। लौकिक शब्द (वाक्यों में प्रयुक्त) तभी प्रामाणिक माने जाते हैं जब उनमें आकांक्षा, योग्यता, सन्निधि और तात्पर्य हों।

शब्‍दाद्वैतवाद
जो दर्शन यह मानता है कि `शब्द` ही एकमात्र अद्वैत तत्त्व है, वह शब्दाद्वैतवाद कहलाता है। योग मार्ग में इस दर्शन का विशेष विकास हुआ। प्रत्येक योगसाधक किसी न किसी रूप में शब्द की उपासना करता है। यह उपासना अत्यन्त प्राचीन है। प्रणव या ओंकार के रूप में इसका बीज वेदों में वर्तमान है। उपनिषदों में प्रणवोपासना का विशेष विकास हुआ। माण्डूक्योपनिषद् में कहा गया है कि मूलतः प्रणव ही एक तत्त्व है जो तीन प्रकार से विभक्त है। पाणिनी की अष्टाध्यायी में भी इस दर्शन के संकेत पाये जाते हैं। उन्होंने सिद्धान्त प्रतिपादन किया है कि शब्दव्यवहार अनादि और अनन्त (सनातन) है (तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणत्वात्, 2.4.16)। शब्दाद्वैत के लिए `स्फोट` शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग महाभाष्य में पाया जाता है। सबसे पहली शब्द की परिभाषा भी महाभाष्य में ही पायी जाती है : येनोच्चारितेन सास्ना-लाङ्गूल-ककुद-खुर-विषाणिनां सम्प्रत्ययो भवति स शब्दः।`
भर्तृहरि ने शब्दाद्वैतवाद को 'वाक्यपदीय' में दार्शनिक रूप दिया। इसके पश्चात् भर्तृमित्र ने इस विषय पर स्फोटसिद्धि नामक ग्रन्थ लिखा। इसके अनन्तर पुण्यराज और कैयट की व्याख्याओं में इस मत का प्रतिपादन हुआ। इसके प्रबल समर्थक नागेश भट्ट अठारहवीं शती में हुए।
वैयाकरण, नैयायिक, मीमांसक, वेदान्ती सभी ने शब्द पर दार्शनिक ढंग से विचार किया है। वैयाकरणों के अनुसार शब्द से ही अर्थबोध और संसार का ज्ञान होता है। उसके अभाव में ज्ञान का प्रकाशकत्व नष्ट हो जाता है। सब दृश्य जगत् और उसके पदार्थ कल्पना मात्र हैं, विचारों की प्रतिच्छाया अथवा प्रतिबिम्ब हैं। इस प्रकार शब्द ही सत्य है; बाह्य जगत् अवास्तविक है। वैयाकरणों का यह सिद्धान्त निम्नांकित उपनिषद्वाक्य का भाष्य है : 'वाचारम्भणम् विकारो नामधेयम् मृत्तिकेत्येव सत्यम्।' यह मानते हुए कि शब्द से अर्थबोध होता है, यह प्रश्‍न उठता है कि क्या केवल ध्वनि मात्र से अर्थबोध होता है? 'गौः' शब्द लीजिए। यह तीन ध्वनियों से बना है--ग्+औ+स्। यह कहना कठिन है कि आदि, मध्य अथवा अन्तिम ध्वनि से अर्थबोध होता है।
नैयायिकों की आपत्ति है कि एक ध्वनि एक-दो क्षण से अधिक अस्तित्व में नहीं रहती; जब अन्तिम ध्वनि का उच्चारण होता है तब तक आदि औऱ मध्य ध्वनियाँ लुप्त हो जाती हैं। नैयायिकों के अनुसार प्रथम दो ध्वनियों के संस्कार के साथ जब अन्तिम ध्वनि मिलती है तब अर्थबोध होता है। इससे वैयाकरणों की कठिनाई तो दूर हो जाती है परन्तु दूसरा दोष उत्पन्न हो जाता है। नैयायिक और भाषाविज्ञानी दोनों मानते हैं कि भाषा की इकाई वाक्य है और अर्थबोध के लिए वाक्य में प्रतिज्ञा की एकता होना चाहिए। यदि प्रथम ध्वनियों का संस्कार और अन्तिम ध्वनि दो वस्तुएँ हैं तो फिर एकता कैसी होगी?
मीमांसकों के अनुसार वर्ण नित्य हैं और ध्वनि से व्यक्त किया जाते हैं। मीमांसकों की अर्थप्रत्यायकत्व प्रक्रिया नैयायिकों से मिलती-जुलती है। परन्तु वर्णों की ऐक्यानुभूति में उन्हें कोई कठिनाई नहीं जान पड़ती, क्योंकि सभी वर्ण नित्य हैं। किन्तु यह आपत्ति बनी रहती है कि वर्णों की अनुभूति क्षणिक है और इस परिस्थिति में सभी वर्णों की एकता शक्य नहीं है। वैयाकरणों ने इस कठिनाई को दूर करने के लिए वाचकता का एक नया अधिष्ठान ढूँढ़ निकाला, वह था स्फोटवाद। 'स्फोट' भिन्न शब्दों और अर्थों में एक होकर भी स्थायी रूपसे व्यक्त होता है। अतः वाक्य में एकतानता बनी रहती है। वैयाकरणों ने इस स्फोट का वाचक प्रणव को माना, जिससे सम्पूर्ण विश्व की अभिव्यक्ति हुई है।
शब्दाद्वैतवाद का पूर्ण विकास और पूर्ण संगति तब हुई जब इसका सम्बन्ध अद्वैत वेदान्त (शाङ्कर वेदान्त) से जोड़ा गया। शब्दतत्व उसी प्रकार विश्व का कारण है जिस प्रकार ब्रह्म विश्व का कारण है। इस प्रकार शब्द को शब्दब्रह्म मान लिया गया। शब्दब्रह्मवाद (शब्दाद्वैतवाद) का विवेचन भर्तृहरि ने अपने वाक्यपदीय में निम्नांकित प्रकार से किया है :
अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्‍त्वं यदक्षरम्। विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः।। एकस्य सर्वबीजस्य यस्य चेयमनेकधा। भोक्तृ-भोक्तव्यरूपेण भोगरूपेण च स्थितिः।।
जिस प्रकार शाङ्कर वेदान्त में विश्व ब्रह्म का विवर्त माना गया है उसी प्रकार शब्दाद्वैतवाद के अनुसार यह विश्व शब्द का विवर्त है। यह बाद परिणामवाद (सांख्य) है और आरम्भवाद (न्याय) का प्रत्याख्यान करता है।
शब्द और अर्थ के बीच सम्बन्ध नित्य है। शब्दब्रह्म की अनुभूति के लिए शब्द के स्वरूप को जानना आवश्यक है। शब्द चार रूपों में प्रकट होता है : परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। इनमें से तीन गुप्त रहती हैं; परा मूलाधार में, पश्यन्ती नाभिस्थान में औऱ मध्यमा हृदयावकाश में निवास करती है। इनकी अनुभूति और ज्ञान केवल ब्रह्मज्ञानी मनीषियों को होता है। इनमें चौथी वैखरी वाणी ही बाहर व्यक्त होती है जिसको मनुष्य बोलते हैं। वास्तव में शब्दब्रह्म की उपासना ब्रह्म की ही उपासना है। शब्दब्रह्म की अनुभूति प्रणव की उपासना और यौगिक प्रक्रिया द्वारा नाभिचक्र में स्थित कुण्डलिनी को जागृत करने से होती है।

शम्बर
इन्द्र के एक शत्रु का नाम। इसका उल्लेख शुश्न, पिप्रु एवं वर्चिन के साथ, दास के रूप में तथा कुलितर (ऋ० 6.26.5) के पुत्र के रूप में हुआ है। इसके नब्बे, निन्यानबे तथा सौ दुर्ग कहे गये हैं। इसका सबसे बड़ा शत्रु दिवोदास अतिथिग्व था, जिसने इन्द्र की सहायता से उस पर विजय प्राप्त की। यह कहना कठिन है कि शम्बर वास्तविक व्यक्ति था या नहीं। हिलब्रैण्ट इसको दिवोदास का विरोधी सामन्त मानते हैं। वास्तव में शम्बर पर्वतवासी शत्रु था, जिससे दिवोदास को युद्ध करना पड़ा।

शम्भुदेव
शैव सिद्धान्त के सोलहवीं शती के एक प्रसिद्ध आचार्य। इन्होंने अपने मत के नियमों को दर्शाने के लिए शैवसिद्धान्तदीपिका तथा शम्भुपद्धति नामक दो ग्रन्थों की रचना की।

शय्यादान
पर्यङ्क और उसके उपयोगी समस्त वस्त्रों का दान। यह मासोपवासव्रत तथा शर्करासप्तमी आदि अनेक व्रतों में वांछनीय है।

शरभ उपनिषद्
एक परवर्ती उपनिषद्। इसमें उग्र देवता शरभ की महिमा और उपासना बतायी गयी है।

शरभङ्ग आश्रम
मध्य प्रदेशवर्ती वैष्णव तीर्थस्थान। विराधकुण्ड एवं टिकरिया गाँव के समीप वन में यह स्थान है। आश्रम के पास एक कुण्ड है, जिसमें नीचे से जल आता है। यहाँ राममन्दिर है, वन्य पशुओं के भय से मन्दिर का बाहरी द्वार संध्या के पहले बन्द कर दिया जाता है। महर्षि शरभङ्ग ने भगवान् राम के सामने यहीं अग्नि प्रज्वलित करके शरीर छोड़ा था।
इस प्रकार के तपोमय जीवन यापन करने की पद्धति 'शरभंग सम्प्रदाय' कही जाती है।

शर्करासप्तमी
चैत्र शुक्ल सप्तमी को प्रातः तिलमिश्रित जल से स्नान करना चाहिए। एक वेदी पर केसर से कमलपुष्प हुए धूप-पुष्पादि चढ़ाये जाँय। एक कलश में सुवर्ण खण्ड डालकर उसे शर्करा से भरे हुए पात्र से ढककर पौराणिक मन्त्रों से उसकी स्थापना की जाय। फिर पञ्चगव्य प्राशन तथा कलश के समीप ही शयन करना चाहिए। उस समय धीमे स्वर से सौरमन्त्रों (ऋग्वेद 1.50) का पाठ करना चाहिए। अष्टमी के दिन पूर्वोक्त सभी वस्तुओं का दान करना चाहिए। इस दिन शर्करा, घृत तथा खीर का ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रती स्वयं लवण तथा तैल रहित भोजन करे। प्रति मास इसी प्रकार से व्रत करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण विहित है। व्रत के अन्त में पर्यङ्कोपयोगी वस्त्र, सुवर्ण, एक गौ, एक मकान (यदि सम्भव हो) तथा एक से सहस्र निष्क तक सुवर्ण का दान विहित है। जिस समय सूर्य अमृत पान कर रहे थे उस समय उसकी कुछ बूँदे पृथ्वी पर गिर पड़ीं, जिससे चावल, मूँग तथा गन्ना उत्पन्न हो गये, अतः ये सूर्य को प्रिय हैं। इस व्रत के आचरण से शोक दूर होता है तथा पुत्र, धन, दीर्घायु एवं स्वास्थ्य की उपलब्धि होती है।


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