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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

श्रीरङ्गपट्टन
कर्णाटक प्रदेश का प्रसिद्ध वैष्णव तीर्थ। कावेरी नदी की धारा में तीन द्वीप हैं--आदिरङ्गम्, मध्यरङ्गम्, और अन्तरङ्गम्। श्रीरङ्गपट्टन ही आदरङ्गम् है। यहाँ भगवान् नारायण की शेषशायी श्रीमूर्ति है। कहते हैं कि यहाँ महर्षि गौतम ने तपस्या की थी और श्रीरङ्गमूर्ति की स्थापना भी की थी।

श्री राम
राम अथवा रामचन्द्र अयोध्या के सूर्यवंशी राजा दशरथ के पुत्र थे। त्रेता युग में इनका प्रादुर्भाव हुआ था। ये भगवान् विष्णु के अवतार माने जाते हैं। वैष्णव तो इनको परब्रह्म ही समझते हैं। भारत के धार्मिक इतिहास में विशेष और विश्‍व के धार्मिक इतिहास में भी इनका बहुत ऊँचा स्थान है। राम को मर्यादापुरुषोत्तम कहते हैं जिन्होंने अपने चरित्र द्वारा धर्म और नीति की मर्यादा की स्थापना की। उनका राज्य न्याय, शान्ति और सुख का आदर्श था। इसीलिए अब भी 'रामराज्य' नैतिक राजनीति का चरम आदर्श है। रामराज्य वह राज्य है जिसमें मनुष्य को त्रिविध ताप--आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक--नहीं हो सकते।
इनका अवतार एक महान् उद्देश्य को लेकर हुआ था। वह था आसुरी शक्ति का विनाश तथा दैवी व्यवस्था की स्थापना। पिता द्वारा इनका वनवास भी इसी उद्देश्य से हुआ था एवं सीता का अपहरण भी इसी की सिद्धि के लिए। रावण वध भी इसीलिए हुआ। रामपूर्वतापनीयोपनिषद् के ऊपर ब्रह्मयोगी के भाष्य (अप्रकाशित) में इसका एक दूसरा ही उद्देश्य बताया गया है। वह है रावण का उद्धार। वैष्णव साहित्य में रावण पूर्व जन्म में विष्णु का पार्षद माना गया है। एक ब्राह्मण के शाप से वह राक्षस योनि में जन्मा। उसको पुनः विष्णुलोक में भेजना भगवान् राम (विष्णु) का उद्देश्य था।
रामभक्ति का भारत में व्यापक प्रचार है। रामपञ्चायतन में चारों भाई तथा सीता और उनके पार्षद हनुमान् की पूजा होती है। हनुमान् की मूर्ति तो राम की मूर्ति से भी अधिक व्यापक है। शायद ही ऐसी कोई गाँव या टोला हो जहाँ उनकी मूर्ति अथवा चबूतरा न हो। रामसंप्रदाय में इतिहास, धर्म और दर्शन का अद्भुत समन्वय है। सीता राम की पत्नी हैं, किन्तु वे आदिशक्ति औऱ दिव्य श्री भी हैं। वे स्वर्गश्री हैं जो तप से प्राप्त हुई थीं। वे विश्व की चेतनाचेतन प्रकृति हैं (देवी उपनिषद् 2.294)।
रामावत सम्प्रदाय का मन्त्र 'रामाय नमः' अथवा तान्त्रिक रूप में 'रां रामाय नमः' है। 'राम' का शाब्दिक अर्थ हैं '(विश्व में) रमण करने वाला' अथवा 'विश्व को अपने सौन्दर्य से मुग्ध करने वाला'। रामपूर्वतापनीयोपनिषद् (1.11-13) में इस मन्त्र का रहस्य बतलाया गया है :
जिस प्रकार विशाल वटवृक्ष की प्रकृति एक अत्यन्त सूक्ष्म बीज में निहित होती है, उसी प्रकार चराचर जगत् बीजमन्त्र 'राम' में निहित है। पद्मपुराण की लोमशसंहिता में कहा गया है कि वैदिक और लौकिक भाषा के समस्त शब्द युग-युग में 'राम' से ही उत्पन्न और उसी में विलीन होते हैं। वास्तव में वैष्णव रामावत सम्प्रदाय में राम का वही स्थान है जो वेदान्त में ओम् का। तारसार उपनिषद् (2.2-5) में कहा गया है कि राम की सम्पूर्ण कथा 'ओम्' की ही अभिव्यक्ति है :
अ से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई है, जो रामावतार में जाम्बवान् (ऋक्षों के राजा) हुए। उसे विष्णु (उपेन्द्र) की उत्पत्ति हुई, जो सुग्रीव हुए (वानरों के राजा)। म से शिव का प्रादुर्भाव हुआ, जो हनुमान हुए। सानुनासिक बिन्दु से शत्रुघ्न प्रकट हुए। ओम् के नाद से भरत का अवतरण हुआ। इस शब्द की कला से लक्ष्मण ने जन्म लिया। इसकी कालातीत ध्वनि से लक्ष्मी का प्रादुर्भाव हुआ जो सीता हुईं। इन सबके ऊपर परमात्मा विश्वपुरुष स्वयं राम के रूप में अवतरित हुए।
रामावत पूजा पद्धति में सीता औऱ राम की युगल मूर्तियाँ मन्दिरों में पधरायी जाती हैं। राम का वर्ण श्याम होता है। वे पीताम्बर धारण करते हैं। केश जूटाकृति रखे जाते हैं। उनकी आजानु भुजाएँ तथा दीर्घ कर्णकुण्डल होते हैं। वे गले में वनमाला धारण करते हैं, प्रसन्न और दर्पयुक्त मुद्रा में धनुष--बाण धारण करते हैं। अष्ट सिद्धियाँ उनके सौन्दर्य को बढ़ाती हैं। उनकी बायीं ओर जगज्जननी आदिशक्ति सीता की मूर्ति स्वतन्त्र अथवा राम की बायीं जंघा पर स्थित होती हैं। वे शुद्ध काञ्चन के समान विराजती हैं। उनकी भी दो भुजाएँ हैं। वे दिव्य रत्नों से विभूषित रहती हैं और हाथ में दिव्य कमल धारण करती हैं। इनके पीछे लक्ष्मण की मूर्ति भी पायी जाती है। दे० रामपूर्वतापनीयोपनिषद्, 4.7.10। दे. 'राम'।

श्रीवत्साङ्कमिश्र (कुरेश स्वामी)
स्वामी रामानुजाचार्य के अनन्य सेवक और सहकर्मी शिष्य। इनका तमिल नाम कूरत्तालवन था, जिसका तद्भव कूरेश है। काञ्चीपुरी के समीप कुरम ग्राम में इनका जन्म हुआ था। ये व्याकरण, साहित्य और दर्शनों के पूर्ण ज्ञाता थे। 'पञ्चस्तवी' आदि इनकी भक्ति और कवित्वपूर्ण प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। काञ्ची में ये रामानुज स्वामी के शरणागत हुए और आजीवन उनकी सेवा में निरत रहे।
रामानुज स्वामी जब ब्रह्मसूत्र की बोधायनाचार्य कृत वृत्ति की खोज में कश्मीर गये थे, तब कूरेशजी भी उनके साथ थे। कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों ने इनको उक्त ब्रह्मसूत्रवृत्ति केवल पढने को दी थी; साथ ले जाने या प्रतिलिपि करने की स्वीकृति नहीं थी। अनधिकारी कश्मीरी पंडितों की अपेक्षा वह रामानुज स्वामी के लिए अधिक स्पृहणीय थी। किन्तु पंडितों ने उस ग्रन्थ को स्वामीजी से बलपूर्वक छीन लिया। सुदूर दक्षिण से यहाँ तक की यात्रा को विफल देखकर रामानुज स्वामी को बड़ा खेद हुआ। उस समय कूरेशजी ने अद्भुत स्मृतिशक्ति के बल से बोधायनवृत्ति गुरूजी को आनुपूर्वी सुना दी। गुरु-शिष्य दोनों ने उसकी प्रतिलिपि तैयार कर ली। पश्चात् काञ्ची लौटकर आचार्य ने इसी वृत्ति के आधार पर ब्रह्मसूत्र के श्रीभाष्य की रचना की थी।

श्रीविद्या
आद्या महाशक्ति की मन्त्रमयी मूर्ति। वास्तव में त्रिपुरसुन्दरी ही श्रीविद्या है। इसके छत्तीस भेद हैं। ज्ञानार्णवतन्त्र में श्रीविद्या के बारे में निम्नाङ्कित वर्णन मिलता है :
भूमिश्चन्द्रः शिवो माया शक्तिः कृष्णाध्वमादिनी। अर्द्धचन्द्रश्च बिन्दुश्च नवार्णो मेरूरुच्यते।। महात्रिपुरसुन्‍दर्या मन्त्रा मेरुसमुद्भवाः।। सकला भुवनेशानी कामेशो बीजमुद्धृतम्।। अनेन सकला विद्याः कथयामि वरानने। शक्त्यन्तस्तूर्यवर्णोऽयं कलमध्ये सुलोचने।। वाग्भवं पञ्चवर्णाढ्यं कामराजमथोच्यते। मादनं शिवचन्द्राढ्यं शिवान्तं मीनलोचने।। कामराजमिदं भद्रे षड्वर्णं सर्वमोहनम्। शक्तिबीजं वरारोहे चन्द्राद्यं सर्वमोहनम्।। एतामुपास्य देवेशि कामः सर्वाङ्गसुन्दरः। कामराजो भवेद्देवि विद्येयं ब्रह्मरूपिणी।।
तन्त्रसार में इसके ध्यान की विधि इस प्रकार बतायी गयी है :
बालार्कमण्डलाभासां चतुर्बाहुं त्रिलोचनाम्। पाशाड्कुशशरांश्चापं धारयन्तीं शिवां श्रये।।

श्रुति
श्रवण से प्राप्त होने वाला ज्ञान। यह श्रवण या तो तत्त्व का साक्षात् अनुभव है, अथवा गुरुमुख एवं परम्परा से प्राप्त ज्ञान। लाक्षणिक अर्थ में इसका प्रयोग 'वेद' के लिए होता है। दे० 'वेद'।

श्रोत्रिय
श्रुति अथवा वेद अध्ययन करने वाला ब्राह्मण। पद्मपुराण के उत्तर खण्ड (116 अध्याय) में श्रोत्रिय का लक्षण इस प्रकार बतलाया गया है :
जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैद्विज उच्यते। वेदाभ्यासी भवेद् विप्रः श्रोत्रियस्त्रिभिरेव च।।
[जन्म से ब्राह्मण जाना जाता है, संस्कारों से द्विज, वेदभ्यास करने से विप्र होता है और तीनों से श्रोत्रिय।] मार्कण्डेय पुराण तथा मनुस्मृति में भी प्रायः श्रोत्रिय की यही परिभाषा पायी जाती है। दानकमलाकर में थोड़ी भिन्न परिभाषा मिलती है :
एकां शाखां सकल्पां वा षड्भिरङ्गैरधीत्य च। षट्कर्मनिरतो विप्रः श्रोत्रयो नाम धर्मवित्।।
[कल्प के साथ एक वैदिक शाखा अथवा छः वेदाङ्गों के साथ के एक वैदिक शाखा का अध्ययन कर षट्कर्म में लगा हुआ ब्राह्मण श्रोत्रिय कहलाता है।]
धर्मशास्त्र में श्रोत्रियों के अनेक कर्तव्यों तथा अधिकारों का वर्णन पाया जाता है। श्राद्ध आदि कर्मों में उनका वैशिष्ट्य स्वीकार किया गया था। राजा को यह देखना आवश्यक था कि उसके राज्य में कोई श्रोत्रिय प्रश्रयहीन न रहे।

श्रौतधर्म
वेदविहित धर्म (श्रुति से उत्पन्न श्रौत)। मत्स्य पुराण (120 अध्याय) में श्रौत तथा स्मार्त धर्म का विभेद इस प्रकार किया गया है :
धर्मज्ञैर्विहितो धर्मः श्रौतः स्मार्तो द्विधा द्विजैः। दानाग्निहोत्रसम्बन्धमिज्या श्रौतस्य लक्षणम्।। स्मार्तो वर्णाश्रमाचारो यमश्च नियमैर्युतः। पूर्वेभ्यो वेदयित्वेह श्रौतं समर्षयोऽब्रुवन्।। ऋचो यजूंषि सामानि ब्रह्मणोऽङ्गानि सा श्रुतिः। मन्वन्तरस्यातीतस्य स्मृत्वा तन्मनुरब्रवीत्।। ततः स्मार्तः धर्मो वर्णाश्रमविभागशः। एवं वै द्विविधो धर्मः शिष्टाचारः स उच्यते।। इज्या वेदात्मकः श्रौतः स्मार्तो वर्णाश्रमात्मकः।।
[धर्मज्ञ ब्राह्मणों द्वारा दो प्रकार का, श्रौत तथा स्मार्त, धर्म विहित है। दान, अग्निहोत्र, इनसे सम्बद्ध यज्ञ श्रौत धर्म के लक्षण हैं। यम और नियमों के सहित वर्ण तथा आश्रम का आचार स्मार्त कहलाता है। सप्तर्षियों ने पूर्व (ऋषियों) से जानकर श्रौत धर्म का प्रवचन किया। ऋक्, यजुष्, साम, ब्राह्ण तथा वेदाङ्ग ये श्रुति कहलाते हैं। मनु ने अतीत मन्वन्तरों के धर्म का स्मरण कर स्मार्त धर्म का विधान किया। इसीलिए यह स्मार्त (स्मृति से उत्पन्न) धर्म कहलाता है। यह वर्णाश्रम के विभागक्रम से है। इस प्रकार निश्चय ही यह दो प्रकार का धर्म शिष्टाचार कहलाता है। (संक्षेप में) यज्ञ और वेद सम्बन्धी आचार श्रौत तथा वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार स्मार्त कहलाता है।]

श्वेतकेतु
श्वेतकेतु की कथा उपनिषद् में मूलतः आती है। ये उद्दालक के पुत्र थे। एक बार अतिथिसत्कार में उद्दालक ने अपनी पत्नी को भी अर्पित कर दिया। इस दूषित प्रथा का विरोध श्वेतकेतु ने किया। वास्तव में कुछ पर्वतीय आरण्यक लोगों में आदिम जीवन के कुछ अवशेष कहीं-कहीं अभी चले आ रहे थे, जिनके अनुसार स्त्रियाँ अपने पति के अतिरिक्त अन्य पुरुषों के साथ भी सम्बन्ध कर सकती थी। इस प्रथा को श्वेतकेतु ने बन्द कराया। महाभारत (1.122.9-20) में इसका उल्लेख है।


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