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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

रात्रि
ऋग्वेद (10.70.6) में रात्रि एवं उषा को अग्नि का रूप कहा गया है। वे एक युग्म देवत्व की रचना करती हैं। दोनों आकाश (स्वर्ग) की बहिन तथा ऋत की माता हैं। रात्रि के लिए केवल एक ऋचा है (10.12.7)।
मैकडॉनेल के अनुसार रात्रि को अन्धकार का प्रतियोगी रूप मानकर 'चमकीली रात' कहा गया है। इस प्रकार प्रकाशपूर्ण रात्रि घने अन्धकार के विरोध में खड़ी होती है।

राधा
महाभारत में कृष्ण की कथा के साथ राधा का उल्लेख नहीं हुआ है। न तो भागवत गण और न माध्व ही राधा को मान्यता देते हैं। वे भागवत पुराण के बाहर नहीं जाते हैं। किन्तु सभी परवर्त्ती सम्प्रदाय, जो अन्य कुछ महापुराणों को महत्त्व देते हैं, राधा को मान्यता देते हैं।
भागवत पुराण में एक गोपी का कृष्ण इतना सम्मान करते हैं कि उसके साथ अकेले घूमते हैं तथा अन्य गोपियाँ उसके इस भाग्य को देखकर यह अनुमान करती हैं कि उस गोपी ने पूर्व जन्म में अधिक भक्ति से कृष्ण की आराधना की होगी। यही वह स्रोत है जिससे राधा नाम की उत्पत्ति होती है। यह शब्द 'राध्' धातु से निर्मित है, जिसका अर्थ है सोच-विचार करना, संपन्न करना, आनन्द या प्रकाश देना। इस प्रकार राधा 'उज्ज्वल आनन्द देने वाली' हैं। इसका प्रथम कहाँ उल्लेख हुआ, यह कहना कठिन है। एक विद्वान् के मत से राधा का प्रथम उल्लेख 'गोपालतापनीयोपनिषद्' में हुआ है जहाँ 'राधा' का वर्णन है और वह सभी राधा-उपासक सम्प्रदायों द्वारा आदृत है। आचार्य निम्बार्क का सम्प्रदाय राधा को सर्वप्रथम और सर्वोपरि मान्यता देता है। विष्णुस्वामी संप्रदाय भी राधा को स्वीकार करता है। परम्परागत मध्व, विष्णुस्वामी, फिर निम्बार्क क्रमबद्ध भागवत वैष्णवों के आचार्य हैं। मध्व राधा का वर्णन नहीं करते। विष्णु-स्वामी-साहित्य बहुत कुछ मध्व से मिलता-जुलता है, जब कि निम्बार्क ने राधा को विशेषता देकर नया उपासनाक्रम चलाया। मध्व के पूर्व उत्तर भारत में राधा सम्बन्धी गीत गाये जाते थे तथा उनकी पूजा भी होती थी, क्योंकि जयदेव का गीतोगोविन्द बारहवीं शताब्दी के अन्त की रचना है। बंगाल में माना जाता है कि जयदेव राधा प्रेयसी हैं, जबकि निम्बार्क राधा को कृष्ण की स्वकीया पत्नी मानते हैं। यद्यपि राधा-सम्प्रदाय के पर्याप्त प्रमाण प्राप्त नहीं होते हैं, किन्तु अनुमान लगाया जाता है कि भागवत पुराण के आधार पर वृन्दावन में राधा की पूजा 1100 ई० के लगभग आरम्भ हुई। फिर यह बंगाल तथा अन्य प्रदेशों में फैली। इस अनुमान को ऐतिहासिक तथ्य मान लें तो जयदेव की राधा सम्बन्धी कविता तथा निम्बार्क एवं विष्णुस्वामी सम्प्रदायों का राधावाद स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। तब यह सम्भव है कि निम्बार्क ने अपने राधावाद को वृन्दावन में विकसित उस समय किया हो जब विष्णुस्वामी अपने सिद्धान्त का दक्षिण में प्रचार कर रहे हों। दे० 'राधावल्लभीय'।

राधावल्लभ (सम्प्रदाय)
(राधा के प्रिय) कृष्ण का उपासक एक प्रेममार्गी सम्प्रदाय, जिसकी स्थापना देवबन्ध (सहारनपुर) के पूर्वनिवासी गोस्वामी हरिवंशजी ने वृन्दावन में की।

राधावल्लभीय
गोस्वामी हरिवंश उपनाम हितजी आरम्भ में माध्वों तथा निम्बार्कों के घनिष्ठ सम्पर्क में थे। किन्तु उन्होंने अपना नया सम्प्रदाय सन् 1585 ई० में स्थापित किया, जिसे राधावल्लभीय कहते हैं। इस सम्प्रदाय का सबसे प्रमुख मन्दिर वृन्दावन में वर्तमान है, जो राधा के वल्लभ (प्रिय) कृष्ण का मन्दिर है। संस्थापक के तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं--राधासुधानिधि (170 संस्कृत छन्दों में), चौरासी पद तथा स्फुट पद (हिन्दी)। इस प्रकार हितजी ऐसे भक्त हैं जो राधा को कृष्ण से उच्च स्थान देते हैं। सम्प्रदाय के एक सदस्य का मत है कि कृष्ण राधा के सेवक या दास हैं, वे संसार की सुरक्षा का काम कर सकते हैं, किन्तु राधा रानी जैसी बैठी रहती हैं। वे (कृष्ण) राधा के मंत्री हैं। राधावल्लभीय भक्त राधा की पूजा आराधना द्वारा कृष्ण की कृपा प्राप्त करना अपना लक्ष्य मानते हैं।

राधाष्टमी
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को राधा अष्टमी कहते हैं। राधा भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में सप्तमी को उत्पन्न हुई थीं। अष्टमी को राधा का पूजन करने से अनेक गम्भीर पाप नष्ट हो जाते हैं।

राधासुधानिधि
राधावल्लभीय सम्प्रदाय का एक स्तोत्र ग्रन्थ। यह संस्कृत का पद्यात्मक मधुर काव्य है जिसमें राधाजी की प्रार्थना की गयी है। दे० 'राधावल्लभीय'।

राधास्वामी मत
उपनाम 'सन्तमत'। इसके प्रवर्त्तक हुजूर राधास्वामी दयालु थे, जिन्हें आदरार्थ स्वामीजी महाराज कहा जाता था। जन्मनाम शिवदयालुसिंह था। इनका जन्म खत्री वंश में आगरा के मुहल्ला पन्नीगली में विक्रम सं० 1875 की भाद्रपद कृष्ण को 12।। बजे रात में हुआ। छः सात वर्ष की अवस्था से ही ये कुछ विशेष लोगों को परमार्थ का उपदेश देने लगे। इन्होंने किसी गुरु से दीक्षा नहीं ली, हृदय में अपने आप परमार्थज्ञान का उदय हुआ। 15 वर्षों तक लगातार ये अपने घर की भीतरी कोठरी में बैठकर 'सुरत शब्दयोग' का अभ्यास करते रहे। बहुत से प्रेमी सत्संगियों के अनुरोध और बिनती पर आपने संवत् 1917 की वसन्तपञ्चमी से सार्वजनिक उपदेश देना प्रारम्भ किया और तब से 17 वर्ष तक लगातार सत्सङ्ग जारी रहा। इस अवधि में देश-देशान्तर के बहुत से हिन्दू, कुछ मुसलमान, कुछ जैन, कोई-कोई ईसाई, सब मिलकर लगभग 3000 स्त्री-पुरुषों ने सन्तमत या राधास्वामी पंथ का उपदेश लिया। इनमें दो-तीन सौ के लगभग साधु थे। स्वामीजी महाराज 60 वर्ष की अवस्था में सं० 1935 वि० में राधास्वामी लोक को पधारे।
आप का स्थान 'हुजूर महाराज' राय सालिगराम बहादुर माथुर ने लिया, जो पहले उत्तर-प्रदेश के पोस्टमास्टर जनरल थे। इन्हीं के गुरुभाई जयमलसिंह ने व्यास (पंजाब) में, बाबा बग्गासिंह ने तरनतारन में और बाबा गरीबदास ने दिल्ली में अलग-अलग गद्दीयां स्थापित कीं। परन्तु मुख्य गद्दी आगरे में तब तक रही जब तक हुजूर महाराज सद्गुरु रहे। इनके बाद महाराज साहब पंडित ब्रह्मशंकर मिश्र गद्दी के उत्तराधिकारी हुए। इनके पश्चात् श्री कामताप्रसाद सिन्हा उपनाम सरकार साहब गाजीपुर में रहे और बुआजी साहिबा स्वामीवाग की देखरेख करती रहीं। सरकार साहब के उत्तराधिकारी सर आनन्दस्वरूप 'साहबजी महाराज' हुए जिन्होंने आगरा में दयालबाग की स्थापना की।
इस प्रकार पन्थ की स्थापना के 70 वर्षों के भीतर मुख्य गद्दी के अतिरिक्त सात गद्दियाँ और चल पड़ी। इस पन्थ में जाति-पाँति का बन्धन नहीं है। हिन्दू संस्कृति का विरोध अथवा बहिष्कार तो नहीं है, परन्तु उसकी ओर से उदासीनता अवश्य है। यह सुधारवादी सम्प्रदाय है। राधास्वामी पन्थ केवल निर्गुण योगमार्ग का साधक कहा जा सकता है।

राम
विष्णु के भक्तों को वैष्णव कहते हैं, साथ ही विष्णु के दो अवतारों (राम तथा कृष्ण) के प्रति भक्ति रखने वाले भी वैष्णव धर्मावलम्बी ही माने जाते हैं। राम सम्प्रदाय आधुनिक भारत के प्रत्येक कोने में व्याप्त हो रहा है। वाल्मीकि रामायण में राम का ऐश्वर्य स्वरूप तथा चरित्र बहुत ही उच्च तथा आदर्श नैतिकता से भरपूर है। परवर्ती कवियों, पुराण और विशेष कर भवभूति (आठवीं शताब्दी का प्रथमार्द्ध) के दो संस्कृत नाटकों ने राम के चरित्र को और अधिक व्याप्ति प्रदान की। इस प्रकार रामायण के नायक को भारतीय जन ने विष्णु के अवतार की मान्यता प्रदान की। इस बात का ठीक प्रमाण नहीं है कि राम को विष्णु का अवतार कब माना गया, किन्तु कालिदास के रघुवंश काव्य से स्पष्ट है कि ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में यह मान्यता हो चुकी थी। वायुपुराण में राम के दैवी गुणों का वर्णन है। 1014 ई० में अमितगति नामक जैन लेखक ने राम का सर्वज्ञ, सर्वव्याप्त और रक्षक रूप में वर्णन किया है।
यद्यपि राम का देवत्व मान्य हो चुका था परन्तु रामउपासक कोई स्प्रदाय इस दीर्घ काल में था, इस बात का प्रमाण नहीं मिलता। किन्तु यह मानना पड़ेगा कि 11वीं शताब्दी के बाद रामसम्प्रदाय का आरम्भ हो चुका था। तेरहवीं शताब्दी में उत्पन्न मध्व, जो एक वैष्णव सम्प्रदाय के स्थापक थे, हिमालय के बदरिकाश्रम से राम की मूर्ति लाये, तथा अपने शिष्य नरहरितीर्थ को उड़ीसा की जगन्नाथ पुरी से राम की आदि मूर्ति लाने को भेजा (लगभग 1264 ई० में)। हेमाद्रि (तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध) ने रामजन्मोत्सव का वर्णन करते हुए उसकी तिथि चैत्र शुक्ल नवमी का उल्लेख किया है। आज भारत के प्रत्येक नागरिक की जिह्वा पर रामनाम व्याप्त है, चाहे वह किसी भी वर्ग, जाति या सम्प्रदाय का हो। जब दो व्यक्ति मिलते हैं तो एक-दूसरे का स्वागत 'राम राम' कहकर करते हैं। बच्चों के नामों में 'राम' का सर्वाधिक प्रयोग भारत में हुआ है। मृत्युकाल तथा दाहसंस्कार पर राम का ही स्मरण होता है।
रामभक्त से सम्बन्ध रखनेवाला साहित्य परवर्ती है। रामपूजा के अनेक पद्धतिग्रन्थ हैं। सात्वत संहिता इनमें से एक है। अध्यात्मरामायण में जीवात्मा एवं राम का तादात्म्य सम्बन्ध दिखाया गया है। इसका 15वाँ प्रकरण 'रामगीता' है। भावार्थ रामायण एकानाथ नामक महाराष्ट्रीय भक्तरचित 16वीं शताब्दी का ग्रन्थ है। मद्रास से एक अन्य रामगीता प्रकाशित हुई है जो बहुत ही आधुनिक है। इसके पात्र राम और हनुमान् हैं तथा इसमें 108 उपनिषदों की सामग्री का उपयोग हुआ है। राम सम्प्रदाय का महान् उच्च ग्रन्थ है रामचरितमानस जिसे वाल्मीकीय रामायण के हिन्दी प्रतिरूप गोस्वामी तुलसीदास ने प्रस्तुत किया है। भगवद्गीता तथा भागवत पुराण जैसे कृष्णसम्प्रदाय के लिए हैं, वैसे ही तुलसीदासकृत राम चरितमानस तथा वाल्मीकि रामायण रामसंप्रदाय के लिए पारायण ग्रन्थ हैं।
रामानुजाचार्य की परम्परा में स्वामी रामानन्द ने 14वीं शताब्दी में 'रामावत' उपनामक रामसम्प्रदाय की स्थापना की। कील्हदास नामक एक सन्त ने रामानन्द से अलग होकर 'खाकी' सम्प्रदाय प्रचलित किया। दे० 'श्रीराम'।

रामोत्तरतापनीय उपनिषद्
राम सम्प्रदाय की यह उपनिषद् प्राचीन उपनिषदों के परिच्छेदों के गठन से बनी है और परवर्त्ती काल की है।

रामकृष्ण
कर्ममीमांसा के एक आचार्य (1600 वि०) जिन्होंने पार्थसारथि मिश्र द्वारा रचित 'शास्त्रदीपिका' की 'सिद्धान्तचन्द्रिका' नामक टीका लिखी।
(2) विद्यारण्य के एक शिष्य का नाम भी रामकृष्ण था, जिन्होंने 'पञ्चदशी' की टीका लिखी।


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