ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस अवसर पर राम तथा लक्ष्मण की सुवर्ण प्रतिमाओं का पूजन करना चाहिए। चरणों से प्रारम्भ कर भगवान के शरीरावयवों का भिन्न-भिन्न नामों को लेते हुए पूजन करना चाहिए। प्रातःकाल रामलक्ष्मण के पूजन के उपरान्त एक लोटा में घी भरकर दान करना चाहिए। इस आचरण से व्रती युगों तक स्वर्ग में निवास करता है। इससे पापों का क्षय होता है। यदि व्रती निष्काम रहता है तो उसे मोक्ष की उपलब्धि होती है।
राघवाङ्क
वीरशैवाचार्य राघवाङ्क हरिहर के शिष्य थे। ये 14वीं शताब्दी में हुए थे तथा इन्होंने 'सिद्धराय' नामक एक कर्नाटकी पुराण लिखा है।
राघवेन्द्रपति
इन्होंने तैत्तिरीयोपनिषद् की वृत्ति, बृहदारण्यक उपनिषद् की खण्डाग्रवृत्ति एवं माण्डूक्योपनिषद् की वृत्ति लिखी है। राघवेन्द्रपति तथा राघवेन्द्र स्वामी एक ही व्यक्ति हैं यह कहा नहीं जा सकता।
राघवेन्द्र स्वामी
माध्व मतावलम्बी संत एवं ग्रन्थकार। इन्होंने जयतीर्थाचार्य की टीका पर वृत्ति लिखी है। जयतीर्थ के प्रधान-प्रधान सब ग्रन्थों पर इन्होंने वृत्ति लिखी है। इनके ग्रन्थों के नाम हैं, तत्त्वोद्योतटीकावृत्ति, न्यायकल्पलतावृत्ति, तत्त्वप्रकाशिकावृत्ति, भावद्वीप, वादावलीटीका, मन्त्रार्थमञ्जरी, तत्त्वमंजरी और गीताविवृति। इन्होंने ईश, केन, प्रश्न, मुण्डक, छान्दोग्य तथा तैत्तिरीय उपनिषदों के खण्डार्थ प्रस्तुत किये। इनके ग्रन्थों की भाषा सरल है। ये सम्भवतः सत्रहवीं शताब्दी में वर्तमान थे। राघवेन्द्र यति तथा राघवेन्द्र स्वामी एक ही व्यक्ति हैं।
राजकर्ता (राजकृत)
यह विरुद अथर्ववेद तथा ब्राह्मणों में उनके लिए व्यवहृत है जो स्वयं राजा नहीं होना चाहते थे, किन्तु दूसरों को राजा बनाने में समर्थ थे। ये राजा के अभिषेक में सहायता करते थे। शतपथ ब्रा० में सूत, ग्रामणी (ग्रामप्रमुख) आदि इनमें सम्मिलित हैं। राजसूय तथा राज्याभिषेक दोनों में राजकर्ता (बहुवचन= राजकर्तारः) का बड़ा महत्त्व था।
राजगृह
गया जिले (बिहार) में स्थित प्राचीन तीर्थ और राजा जरासन्ध की राजधानी। यह सनातनधर्मी, बौद्ध, जैन तीनों का पुण्यस्थल है। पाटलिपुत्र की स्थापना से पूर्व राजगृह ही मगध की राजधानी थी। पुरुषोत्तम मास में बहुत यात्री यहाँ आते हैं। यहाँ दर्शन करने योग्य स्थान भी पर्याप्त हैं। इनमें ब्रह्मकुण्ड, केदारनाथ, सीताकुण्ड वैतरणी, वानरीकुण्ड, सोनभण्डार आदि प्रसिद्ध हैं।
राजन्यबन्धु
राजन्यबन्धु का अर्थ राजन्य ही है किन्तु मूल्यांकन में राजन्यबन्धु राजन्य से घटकर है। शतपथ ब्रा० में जनक को राजन्यबन्धु कहा गया है, जिन्होंने ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में हरा दिया था। प्रवाहण जैवलि को भी बृह० उप० में राजन्यबन्धु कहा गया है। शतपथ के एक और परिच्छेद (10.5.2010) में, जहाँ पुरुषों के स्त्रियों से अलग खाने की चर्चा है, राजन्यबन्धु को तब तक घृणात्मक नहीं दर्शाया गया है जब तक कि वास्तव में कोई ब्राह्मण किसी राजकुमार के प्रति घृणा न व्यक्त करे। फिर चारों वर्णों के वर्णन में (शत० 1.1.4.12) वैश्य को राजन्यबन्धु के पहले स्थान प्राप्त है जो विचित्र है। ऐसा लगता है कि राजन्य (क्षत्रिय) के वे भाई-बन्धु, जो कर्मणा अथवा पदेन राजन्य नहीं होते थे, राजन्यबन्धु कहलाते थे। कुछ ऐसा ही दृष्टिकोण 'ब्रह्मबन्धु' के लिए भी है।
राजमार्त्तण्ड
योगसूत्र की यह व्याख्या धारा नगरी के महाराज भोज ने (1010--55ई०) लिखी थी। यह बहुत स्पष्ट तथा सरल है। योगशास्त्राभ्यासी सम्प्रदाय में इसका भी विशेष महत्त्व है।
राजयोग
योगमार्ग का एक सम्प्रदाय। यह हठयोग से भिन्न है। हठयोग में शारीरिक क्रियाओं द्वारा चित्तवृत्तिनिरोध की प्रक्रिया पर बल दिया जाता है। राजयोग में बौद्धिक अनुशासन पर अधिक बल दिया जाता है।
राजराजेश्वरव्रत
बुधवार को स्वाती नक्षत्रयुक्त अष्टमी हो तो उस दिन उपवास करना चाहिए। उस दिन भगवान् शिव को अनेक स्वादिष्ट खाद्यान्न, मिष्टान्न तथा नैवेद्य अर्पण करने चाहिए। व्रती शिवपूजन के पश्चात् आचार्य को हार, मुकुट, करधनी, कर्णाभरण, अँगूठियाँ, हाथी अथवा घोड़े का दान दे। इस कृत्य से वह असंख्य वर्षों के लिए कुबेर के समान पद प्राप्त करने में समर्थ होता है। 'राजराज' का अर्थ है कुबेर, जो शिवजी के मित्र हैं। कदाचित् राजराजेश्वर का अर्थ भी शिव अथवा कुबेर हो (जो यक्षों के स्वामी हैं)।