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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

रङ्गरामानुज
इन वैष्णवाचार्य की स्थिति 18वीं शताब्दी में मानी जाती है। इन्होंने विशिष्टाद्वैत वेदान्तभाष्य पर व्याख्या ग्रन्थावली वैष्णवों के प्रयोगार्थ लिखी है।

रजस्
प्रकृति तथा उससे उत्पन्न पदार्थ तीन गुणों से निर्मित हैं---- सत्त्व (प्रकाश), रजस् (शक्ति) तथा तमस् (जड़ता)। प्रकृति में ये अमिश्रित, सन्तुलित रहते हैं, तथा उससे उत्पन्न पदार्थों में विभिन्न परिमाणों में मिल जाते हैं। मैत्रायणी उपनिषद् में एक महत् सत्य के तीन रूप विष्णु, ब्रह्मा एवं शिव को क्रमशः सत्त्व, रजस् एवं तमस् के रूप में दर्शाया गया है। जगत् में सारी क्रिया और गति रजस् के ही कारण होती है।

रज्जबदास
महात्मा दादू दयाल के शिष्य एक दादूपन्थी कवि रज्जबदास हुए हैं। इन्होंने 'बानी' नामक उपदेशात्मक भजनों का संग्रह लिखा है।

रटन्ती चतुर्दशी
माघ कृष्ण चतुर्दशी। यह तिथिव्रत है। यम की आराधना इस व्रत में की जाती है। अरुणोदय काल में स्नान कर यम के चौदह नाम (कृत्यतत्त्व, 450) लेकर उनका तर्पण करना चाहिए।

रणछोर राय
(1) गुजरात प्रदेश के द्वारका धाम और डाकौर नगर में प्रतिष्ठित भगवान् कृष्ण की दो मूर्तियों के नाम। इन स्थानों में रणछोरजी के भव्य मन्दिर अत्यन्त आकर्षक बने हुए हैं। इनमें सहस्रों यात्रियों का नित्य आगमन होता रहता है। भक्तजनों में प्रसिद्धि है कि मध्यकाल में डाकौर निवासी 'बोढ़ाणा' नामक भील के प्रेमानुराग से आकृष्ट होकर श्री कृष्ण द्वारका त्याग कर यहाँ चले आये थे। पंडों ने द्वारका से आकर बोढ़ाणा को सताया, इस पर भगवान् ने उसके ऊपर पंडों का अपने बदले का ऋण एक तराजू में सोने से तुलकर चुकाया था। सोने के रूप में भी बोढ़ाणा की पत्नी की केवल नाक की बाली थी, जो मूर्ति के समान भारी हो गयी थी। इसकी स्मृति में आजकल भी डाकौर के मन्दिर में विभिन्न वस्तुओं के तुलादान होते रहते हैं। भक्त का 'ऋण छुड़ाने' के कारण इन भगवान् का नाम 'रणछोर राय' प्रसिद्ध हो गया है।
(2) भागवत पुराण के अनुसार मथुरा पुरी पर कालयवन और जरासन्ध की दो दिशाओं से चढ़ाई होने पर श्री कृष्ण ने रातोंरात समस्त यादवों को द्वारकापुरी में भेज दिया। फिर दोनों सेनाओं को व्यामोहित कर उनके आगे-आगे वे बहुत दूर निकल भागे। उन्हे पकड़ने के लिए कालयवन पीछा करने लगा। श्री कृष्ण ने उसे एकान्त में ले जाकर एक राजा के द्वारा भस्म करा दिया तथा जरासन्ध की सेना के सामने से जंगल-पहाड़ों में छिपते हुए द्वारका जा निकले। इस घटना की स्मृति में भक्तजनों ने प्रेमलांछनपूर्वक उनको (रण+छोड़) रणछोर राय नाम से विख्यात कर दिया।

रणथम्‍भौर
राजस्थान में सवाई माधोपुर से कुछ दूर पर यह किला है। किले के भीतर गणेशजी की विशाल मूर्ति है। पर्वत पर अमरेश्वर, शैलेश्वर, कमलधार और फिर आगे एक प्रपात के पास झरनेश्वर और सीताजी के मन्दिर हैं। सामने (चरणों में से) पानी बहकर दो कुण्डों में क्रमशः जाता है। वह जल पहले कुण्ड में काला, फिर दूसरे कुण्ड में आकर सफेद हो जाता है।

रत्नत्रयपरीक्षा
अप्पय दीक्षित रचित यह ग्रन्थ श्रीकण्ठ मत (शैव सिद्धान्त) से सम्बन्धित है। इसमें हरि, हर और शक्ति की उपासना की मीमांसा की गयी है।

रत्नप्रभा
आचार्य गोविन्दानन्द कृत शारीरक भाष्य की प्रसिद्ध टीका। शाङ्करभाष्य की टीकाओं में यह सबसे सरल है।

रत्नषष्ठी
ग्रीष्म ऋतु का एक व्रत, जो षष्ठी तिथि को सम्पादित होता था। भास के चारुदत्त और शूद्रक के मृच्छकटिक नाटक के "अहं रत्नषष्ठीम् उपोषिता" कथन में संभवतः इसकी ओर ही संकेत है।
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रत्नहवि
राजसूय या सोम यज्ञ का कार्यक्रम फाल्गुन के प्रथम दिन से प्रारम्भ होता था। इसकी अनेकानेक क्रियाओं में अभिषेचनीय, रत्नहवियाँ तथा दशपेय महत्त्वपूर्ण हैं। यह बारह दिन लगातार किये जाने वाले यज्ञों का समूह है, जो राजा के 'रत्नों' के गृहों में भी होता था।
वैदिक राज्यव्यवस्था के अन्तर्गत राजा के मुख्य परामर्शदाता 'रत्न' (या रत्नी) कहे जाते थे, जिनमें सेनानी, सूत, पटरानी, पुरोहित, श्रेष्ठी, ग्रामप्रधान आदि गिनेचुने व्यक्ति होते थे। राजसूय के कुछ होम इन लोगों के हाथों से भी सपन्न होते थे। विक्रमादित्य और अकबर के 'नवरत्न' ऐसी ही राज्यव्यवस्था के अंग जैसे थे। वर्तमान भारतशासन द्वारा दी जानेवाली सर्वोच्च पदवी 'भारतरत्न' उक्त वैदिक प्रथा की स्मृति जैसी है।


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