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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

नन्दिग्राम
साकेत क्षेत्र के अन्तर्गत वैष्णव तीर्थ। अयोध्या से सोलह मील दक्षिण यह स्थान है। यहाँ श्री राम के वनवास के समय चौदह वर्ष का समय भरतजी ने तपस्या करते हुए व्यतीत किया था। यहाँ भरतकुण्ड सरोवर और भरतजी का मन्दिर है।

नन्दिनीनवमीव्रत
मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की नवमी को इस तिथिव्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें दुर्गाजी का पूजन करना चाहिए। छः--छः मास के वर्ष के दो भाग करके प्रत्येक भाग में तीन दिन उपवास करते हुए दुर्गाजी के पृथक्-पृथक् नाम लेकर पृथक्-पृथक् पुष्पों से पूजन करने के विधान हैं। इस व्रत के आचरण से व्रत स्वर्ग प्राप्त करता है और स्वर्ग से लौटकर शक्तिशाली राजा बनता है।

नन्दी
दिव्य (पवित्र) पशुओं में नन्दी की गणना की जाती है। नन्दी बैल शिव का वाहन है तथा धर्म के प्रतीक रूप में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। शिवमन्दिरों के अन्तराल में प्रायः नन्दी की मूर्ति प्रतिष्ठित होती है। वास्तव में नन्दी (पशु) उपासक का प्रतीक है; प्रत्येक उपासक का प्रकृत्या पशुभाव होता है। पशुपति (शिव) की कृपा से ही उसके पाश (सांसारिक बन्धन) कटते हैं। अन्त में वह नन्दी (आनन्दयुक्त) भाव को प्राप्त होता है।

नमः शिवाय
पञ्चाक्षर' नामक शैव मन्त्र। लिङ्गायत मतानुसार किसी लिङ्गायत के शिशु के जन्म पर पिता-माता गुरु को बुलाते हैं। गुरु बालक के ऊपर शिवलिङ्ग बाँधता है, शरीर पर विभूति लगाता है, रुद्राक्ष की माला पहनाता है तथा उक्त रहस्यमय मन्त्र की शिक्षा देता है। शिशु इस मन्त्र का ज्ञान ग्रहण करने में स्वयं असमर्थ होता है। अतएव गुरु द्वारा यह मन्त्र केवल उसके कान में ही पढ़ा जाता है।

नन्बि-आण्डार-नम्बि
ये महात्मा वैष्णवाचार्य नाथमुनि तथा चोलवंशीय राजा राजराज (1042-4075 वि०) के समकालीन थे। इन्होंने तमिल ऋचाओं (स्तुतिओं) के तीन संग्रहों को एक में संकलित पर उसका नाम तेवाराम (देवाराम) अर्थात् 'दैवी माला' रखा तथा राजराज की सहायता से इन पदों को द्राविड संगीत में स्थान दिलाया।

नम्मालवार
बारह तमिल आलवारों के नाम वैष्णव भक्तों में अति प्रसिद्ध हैं। ये अपने आराध्यदेव की मूर्ति को आँखों से देखने में ही आनन्द लेते थे तथा अपना स्तुतिगान के रूप में देवमूर्ति के सामने उसे उँडेलते थे। ये स्तुतिगान करते-करते कभी आत्मविभोर हो भूमि पर भी गिर जाते थे। तिरुमङ्गै तथा नम्मालवार इनमें सबसे बड़े माने गये हैं। नम्मालवार तो अति प्रसिद्ध हैं, ये आठवीं शताब्दी या उसके आस-पास हुए थे। दूसरे विद्वानों ने नम्मालवार की विभिन्न तिथियाँ बतायी हैं। द्राविड वेदों के रचयिता भी नम्मालवार ही हैं।

नयद्युमणि
विशिष्टाद्वैत सम्प्रदाय का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ। तृतीय श्रीनिवास (अठारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध) ने अपने ग्रन्थों में विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन तथा अन्य मतों का खण्डन किया है। उनके रचे ग्रन्थों में 'नयद्युमणि' भी एक है।

नयनादेवी
अम्बाला से आगे नंगल बाँध है, उससे 12 मील पहले आनन्दपुर साहब स्थान है। वहाँ से 10 मील आगे मोटरबस जाती है। फिर 12 मील पैदल पर्वतीय चढ़ाई है। यहाँ नयना देवी का स्थान पर्वत पर है। यह सिद्धपीठ माना जाता है। श्रावण शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक यहाँ मेला लगता है।

नयनार
शैव भक्तों को तमिल में नयनार कहा जाता है। तमिल शैवों में गायक भक्तों का व्यक्तिवाचक नाम ही प्रसिद्ध है। ये वैष्णव आलवारों के ही समकक्ष हैं, किन्तु इनकी कुछ विशेष उपाधि नहीं हैं। दूसरे धार्मिक नेताओं के समान ये सामूहिक रूप से 'नयनार' कहलाते हैं। किन्तु जब इनके अलग दल का बोध कराना होता है तो ये 'प्रसिद्ध तीन' कहे जाते हैं।

नयनाचार्य
एक वैष्णव वेदान्ती आचार्य। इन्होंने वेदान्ताचार्य के 'अधिकरणसारावली' नामक ग्रन्थ की टीका लिखी थी। आचार्य वरद गुरु इनके ही शिष्य थे।


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