वीरशैव मत के आचार्य। इनका उद्भव काल 18वीं शताब्दी था। इन्होंने 'वेदसारवीरशैवचिन्तामणि' नामक ग्रन्थ की रचना की थी।
नडाडुरम्मल आचार्य
वरदाचार्य अथवा नडाडुरम्मल आचार्य वरद गुरु के पौत्र थे। सुदर्शनाचार्य के गुरु तथा रामानुजाचार्य के शिष्य और पौत्र जो वरदाचार्य या वरद गुरु थे, उन्हीं के ये पौत्र थे। अतएव इनका समय चौदहवीं शताब्दी कहा जा सकता है। वरदाचार्य ने 'तत्त्वसार' और 'सारार्थचतुष्टय' नामक दो ग्रन्थ रचे। तत्त्वसार पद्य में है और उसमें उपनिषदों के धर्म तथा दार्शनिक मत का सारांश दिया गया है। सारार्थचतुष्टय विशिष्टाद्वैतवाद का ग्रन्थ है। इसमें चार अध्याय हैं और चारों में चार विषयों की आलोचना है। पहले में स्वरूप ज्ञान, दूसरे में विरोधी ज्ञान, तीसरे में शेषत्व ज्ञान चौथे में फलज्ञान की चर्चा है।
नदीत्रिरात्रव्रत
इस व्रत का अनुष्ठान उस समय होता है जब आषाढ़ के महीने में नदी में पूरी बाढ़ हो। उस समय व्रती को चाहिए कि एक कृष्ण वर्ण के कलश में नदी का जल भर ले और घर ले आये, दूसरे दिन प्रातः नदी में स्नान कर उस कलश की पूजा करे। तीन दिन वह उपवास करे अथवा एक दिन अथवा एक समय; एक दीप सतत प्रज्वलित रखे, नदी का नामोच्चारण करते हुए वरुण देवता का भी नाम ले तथा उन्हें अर्घ्य, फल तथा नैवेद्य अर्पण करे, तदनन्तर भगवान् गोविन्द की प्रार्थना करे। इस व्रत का आचरण तीन वर्ष तक किया जाय। तदनन्तर गौ आदि का दान करने का विधान है। इससे सुख, सौभाग्य तथा सन्तान की प्राप्ति होती है।
नदीव्रत
(1) इस व्रत को चैत्र शुक्ल में प्रारम्भ करके नक्त पद्धति से सात दिन आहार करते हुए सात नदियों-- ह्रदिनी (अथवा नलिनी), ह्लादिनी, पावनी, सीता, इक्षु, सिन्धु और भागीरथी का पूजन करना चाहिए। एक वर्ष तक इसका अनुष्ठान किया जाता है। प्रति मास सात दिन तक यह नियम अनवरत चलना चाहिए। जल में दूध मिलाकर समर्पण करना चाहिए तथा एक जलपात्र में दूध भरकर दान करना चाहि। व्रतान्त में फाल्गुन मास में ब्राह्मण को एक पल चाँदी दान में देनी चाहिए। दे० हेमाद्रि, 2.462 : उद्धृत करते हुए विष्णुधर्म०, 3.163, 1--7 को; मत्स्यपुराण, 121, 140-41; वायु पुराण, 47.38-39। उपर्युक्त पुराणों में गङ्गा की सात धाराओं के पूजन का विधान है।
(2) हेमाद्रि, 5.1.792 (विष्णुधर्म० से एक श्लोक उद्धृत करते हुए) के अनुसार सरस्वती नदी की पूजा करने से सात प्रकार के ज्ञान प्राप्त होते हैं।
नदीस्तुति
दिव्य तथा पार्थिव दोनों जलों को ऋग्वेद में अलग नहीं किया गया है। दोनों की उत्पत्ति एवं व्याप्ति एक-दूसरे में मानी गयी है। प्रसिद्ध 'नदीस्तुति' (ऋग्वेद, 10 75) में उत्तर प्रदेश, पंजाब और अफगानिस्तान की नदियों का उल्लेख है। तालिका गङ्गा से प्रारम्भ होती है एवं इसका अन्त सिन्धु तथा उसकी दाहिनी ओर से मिलने वाली सहायक नदियों से होता है। सम्भवतः इस ऋचा की रचना गङ्गा-यमुना के मध्य देश में हुई जहाँ आजकल उत्तर प्रदेश का सहारनपुर जिला है। सरस्वती तथा सिन्धु दो भिन्न नदियाँ हैँ। पंजाब की नदीप्रणाली की सबसे बड़े नदी सिन्धु की प्रशंसा उसकी सहायक नदियों के साथ की गयी है। सिन्धु को यहाँ एक राजा तथा उसकी सहायक नदियों को उसके दोनों ओर खड़े सैनिकों के रूप में वर्णन किया गया है, जो उनको आज्ञा देता है।
ऋग्वेद की तीन ऋचाओं में अकेले सरस्वती की स्तुति है, जिसे माता, नदी एवं देवी (असुर्या) का रूप दिया गया है। कुछ विद्वान् सरस्वती-ऋचाओं को सिन्धु सम्बन्धी बताते हैं, किन्तु यह सम्भव नहीं है। इसे धातु कहा गया है, जिसके किनारे सेनाध्यक्ष निवास करते थे, जो शत्रुविनाशक (पारावतों के घातक) थे। सरस्वती के पूजन वालों को अपराध की दशा में दूर देश के कारागार में जान से छूट मिलती थी। इसके तटवर्ती ऋषियों के आश्रमों में अनेक ऋचाओं की रचना हुई तथा अनेक यज्ञ हुए। सरस्वती को अच्छी ऋचाओं तथा अच्छे विचारों की प्रेरणादायी समझकर ही परवर्त्ती काल में इसे ज्ञान एवं कला की देवी माना गया। पंजाब की दूसरी नदियों से सम्बन्धी स्थापित करते हुए इस 'सात बहिनों वाली' अथवा सातों में से एक कहा गया है।
पार्थिव नदी होते हुए भी सरस्वती की उत्पत्ति स्वर्ग से मानी गयी है। वह पर्वत (स्वर्गीय समुद्र) से निकलती है। स्वर्गीय सिन्धु ही उसकी माता है। उसे 'पावीरवी' (सम्भवतः विद्युत्पुत्री) भी कहा गया है तथा आकाश के महान् पर्वत से उसका यज्ञ में उतरना बताया गया है। सरस्वती की स्वर्गीय उत्पत्ति ही गङ्गा की स्वर्गीय उत्पत्ति की दृष्टिदायक है। अन्त में सरस्वती को सन्तान वाली तथा उत्पत्ति की सहायक कहा गया है। वध्र्यश्व को दिवोदास का दान सरस्वती ने ही किया था। 'नदीस्तुति' सूक्त से पता लगता है कि वैदिक धर्म का प्रचार मध्यदेश से पंजाब होते हुए अफगानिस्तान तक हुआ था।
नदीस्नान
नदी में स्नान करना पुण्यदायक कृत्य माना गया है। पवित्र नदियों के स्नान के पुण्यों के लिए दे० तिथितत्व, 62-64; पुरुषार्थचिन्तामणि, 144-145; गदाधरपद्धति, 609।
नन्दगाँव
व्रजमंडल का प्रसिद्ध तीर्थ। मथुरा से यह स्थान 30 मील दूर है। यहाँ एक पहाड़ी पर नन्द बाबा का मन्दिर है। नीचे पामरीकुण्ड नामक सरोवर है। यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशाला हैं। भगवान् कृष्ण के पालक पिता से सम्बद्ध होने के कारण यह स्थान तीर्थ बन गया है।
नन्दपण्डित
विष्णुस्मृति के एक टीकाकार। नन्दपण्डित ने विष्णुस्मृति को वैष्णव ग्रन्थ माना है, जो किसी वैष्णव सम्प्रदाय, सम्भवतः भागवतों द्वारा व्यवहृत होता रहा है।
नन्दरामदास
महाभारत के प्रसिद्ध बँगला अनुवादक काशीरामदास के पुत्र। काशीरामदास के पीछे उनके पुत्र नन्दरामदास सहित दर्जनों नाम हैं, जिन्होंने महाभारत के अनुवाद की परम्परा जारी रखी थी।
नन्दा
प्रतिपदा, षष्ठी तथा एकादशी तिथियाँ नन्दा तिथियाँ हैं। नन्दा का अर्थ है 'आनन्दित करने वाली'। इन तिथियों में व्रत करने से आनन्द की प्राप्ति होती है।