सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में विश्वनाथ न्यायपञ्चानन ने गौतमप्रणीत न्यायसूत्र पर यह वृत्ति रची।
न्यायस्थिति
न्यायस्थिति एक नैयायिक थे, जिनका उल्लेख विक्रम की छठी शताब्दी में हुए वासवदत्ता-कथाकार सुबन्धु ने किया है।
न्यायामृत
सोलहवीं शताब्दी में व्यासराज स्वामी ने शाङ्कर वेदान्त की आलोचना न्यायामृत नामक ग्रन्थ द्वारा की। आचार्य श्रीनिवास तीर्थ ने इस पर न्यायामृतप्रकाश नामक भाष्य लिखा है।
न्यायालङ्कार
श्रीकण्ठ ने 10 वीं शताब्दी में यह न्यायविषयक ग्रन्थ प्रस्तुत किया।
न्यायलीलावती
बारहवीं शताब्दी में वल्लभ नामक न्यायाचार्य ने वैशेषिक दर्शन सम्बन्धी इस ग्रन्थ को प्रस्तुत किया।
न्यास
शाक्त लोग अपनी साधना में अनेक दिव्य नामों और बीजाक्षर मन्त्रों का प्रयोग करते हैं। वे धातु के पत्तरों पर तथा घट आदि पात्रों पर मन्त्र तथा मण्डल खोदते हैं, साथ ही पूजा की अनेक मुद्राओं (अँगुलियों के संकेतों) का भी प्रयोग करते हैं, जिन्हें न्यास कहते हैं। इसमें मन्त्राक्षर बोलते हुए शरीर के विभिन्न अंगों का स्पर्श किया जाता है और भावना यह रहती है कि उन अंगों में दिव्य शक्ति आकर विराज रही है। अंगन्यास, करन्यास, हृदयादिन्यास, महान्यास आदि इसके अनेक भेद हैं।