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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

नरकपूर्णिमा
प्रति पूर्णिमा अथवा मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को व्रतारम्भ करना चाहिए। एक वर्ष तक इसका अनुष्ठान होता है। उस दिन व्रती उपवास, भगवान् विष्णु की पूजा तथा उनके नामक जप करे। अथवा भगवान् विष्णु के केशव से लेकर दामोदर तक बारह नामों का मार्गशीर्ष से प्रारम्भ कर वर्ष के बारहों मास तक क्रमशः जप करता रहे। प्रतिमास जलपूर्ण कलश, खड़ाऊँ, छाता तथा एक जोड़ी वस्त्रों का दान करे। वर्षान्त में इतना करने में असमर्थ हो तो केवल भगवान का नाम ले। इससे उसको सुख प्राप्त होगा तथा मृत्यु के समय भगवान् हरि का नाम स्‍मरण रहेगा, जिससे सीधा स्‍वर्ग प्राप्त होगा।

नर-नारायण
(1) मनुष्य (नर) और नारायण (ईश्वर) की सनातन जोड़ी (युग्म) ही नर-नारायण नाम से अभिहित है। श्वेताश्वतरोपनिषद् (4.6) में दोनों सखारूप से वर्णित हैं:
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषष्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यननन्नन्योऽभिचाकशीति।।
[दो पक्षी साथ साथ सखाभाव से एक ही विश्ववृक्ष का आश्रय लेकर रहते हैं। उनमें से एक वृक्ष के फल खाता (और भोगफल पता) है; दूसरा केवल साक्षी मात्र है।] इस रूपक में परमात्मा तथा आत्मा के सायुज्य का सनातनत्व वर्णित है।
(2) असमदेशीय शाक्ति धर्म के इतिहास पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि अनेक लोगों ने इस धर्म को छोटी जातियों या समुदायों से उस समय ग्रहण किया जब असम की घाटी पश्चिम में कोच तथा पूर्व में अहोम राजाओं द्वारा शासित थी। कोच राजाओं में से एक 'नरनारायण' था जिसकी मृत्यु 1641 वि० में 50 वर्ष के शासन के पश्चात् हुई। उसके शासन काल में कोचों की शक्ति चरम सीमा पर पहुँची थी। इसका कारण था उसकी वीर भाई सिलाराम, जो उसका सेनापति था। नरनारायण स्वयं नम्र तथा अध्ययनशील प्रकृति का था तथा हिन्दू धर्म के प्रचार में बहुत योगदान करता था। अन्य राजाओं की भाँति वह भी शाक्त था तथा उसने कामाख्या देवी का मन्दिर फिर से बनवाया, जो मुसलमानों द्वारा नष्ट कर दिया गया था। उसने धार्मिक क्रियाओं के पालनार्थ वङ्गाल से ब्राह्मण बुलाये। आज भी परवतिया गुसाँई (नवद्वीप का एक ब्राह्मण) यहाँ का प्रमुख पुजारी है। मन्दिर में नरनारायण तथा उसके भाई की दो प्रस्तर मूर्तियाँ वर्तमान हैं।

नर-नारायण आश्रम
बदरीनाथ के मन्दिर के पीछे वाले पर्वत पर नर-नारायण नामक ऋषियों का आश्रम है। विश्वास है कि यहाँ नर-नारायण विश्राम (तपस्या) करते हैं।

नरबलि
नरबलि अथवा नरमेध मूलतः एक प्रतीक अथवा रूपक था। इसका तात्पर्य था मनुष्य के अहंकार का परमात्मा के सम्मुख पूर्ण समर्पण। जब धर्म दुरूह और विकृत हो गया और आत्मसंयम के बदले दूसरों के माध्यम से पुण्यफल पाने की परम्परा चली तो अपने अहंकार के दमन के बदले मानव दूसरे मनुष्यों और पशुओं की बलि देने लगा। मध्य युग में यह विकृति बढ़ी हुई दृष्टिगोचर होती है। पुराणों एवं तन्त्रों में, जो मध्यकाल के प्रारम्भिक चरण में रचे गये, अनेक स्थानों पर नरबलि की चर्चा है। यह बलि देवी चण्डिका के लिए दी जाती थी। कालिकापुराण में कहा गया है कि एक बार नर-बलि देने से देवी चण्डिका एक हजार वर्ष तक प्रसन्न रहती हैं तथा तीन नरबलियों से एक लाख वर्ष तक। मालतीमाधव नाटक के पाँचवें अंक में भवभूति ने इस पूजा का वर्णन बड़े रोचक ढँग से उपस्थित किया है, जबकि अघोरी (अघोरघण्ट) द्वारा देवी चण्डिका के लिए नायिका की बलि देने की चेष्टा की गयी थी।
यह प्रथा क्रमशः निषिद्ध हो गयी। नरबलि मृत्युदण्ड का अपराध है। फिर भी दो चार वर्षों में कही न कहीं से इसका समाचार सुनाई पड़ जाता है।
संसार के कई अन्य देशों में नरबलि और नरभक्षण की प्रथाएँ अब तक पायी जाती रही हैं।

नरमेध
इसका शाब्दिक अर्थ है वह मेध (यज्ञ) जिसमें नर (मनुष्य) की बलि दी जाती है। ब्राह्मण ग्रन्थों में इस यज्ञ का वर्णन मिलता है। यह एक रूपात्मक प्रक्रिया थी। धर्म के विकृत होने पर यह कभी कभी यथार्थवादी रूप भी धारण कर लेती थी। कलि में कलिवर्ज्य के अन्तर्गत गोमेध, नरमेध आदि सभी अवांछनीय क्रियाएँ वर्जित हैं। दे० 'नरबलि'।

नरवैबोध
गुरु गोरखनाथ के रचे ग्रन्थों में से 'नरवैबोध' भी एक है। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के खोज विवरणों में इसका उल्लेख पाया जाता है। इसमें आध्यात्मिक बोध का विवेचन है।

नरसाकेत
महात्मा चरणदास द्वारा रचे गये ग्रन्थों में से एक 'नर साकेत' भी है।

नरसिंह (नृसिंह)
विष्णु के अवतारों में से नरसिंह अथवा नृसिंह चौथा अवतार है। यह मानव और सिंह का संयुक्त विग्रह है। यह हिंसक मानव का प्रतीक है। दुष्टदलन में हिंसा का व्यवहार ईश्वरीय विधान में ही है अतः भगवान् विष्णु ने भी यह अवतार धारण किया। इस अवतार की कथा बहुत प्रचलित है। विष्णु ने दैत्य हिरण्यकशिपु का वध करने तथा भक्त प्रह्लाद के रक्षार्थ यह रूप धारण किया था। यह कथा वैदिक साहित्य तथा तैत्तिरीय आरण्यक (10.1.6) में भी उद्धृत है। पुराणों में तो यह विस्तार से कही गयी है। दे० 'अवतार'।

नरसिंह आगम
रौद्रिक (शैव) आगमों में से एक 'नरसिंह आगम' भी है। इसका दूसरा नाम 'शर्वोक्त' या 'सवेत्तिर' भी है।

नरसिंहचतुर्दशी
वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को नरसिंहचतुर्दशी कहते हैं। यह तिथिव्रत है। यदि उस दिन स्वाती नक्षत्र, शनिवार, सिद्धि योग तथा वणिज करण हो, तो उसका फल करोड़गुना हो जाता है। भगवान् नरसिंह इसके देवता हैं। हेमाद्रि, 2.41-49 (नरसिंहपुराण से) तथा कई अन्य ग्रन्थों में इसे नरसिंहजयन्ती कहा गया है, क्योंकि इसी दिन भगवान् नरसिंह का अवतार हुआ था। उस दिन स्वाती नक्षत्र तथा सन्ध्या काल था। यदि यह त्रयोदशी अथवा पूर्णिमा से विद्ध हो तो जिस दिन सूर्यास्त को चतुर्दशी हो वह दिन ग्राह्य है। वर्षकृत्यदीपिका (पृ० 145-153) में पूजा का एक लम्बा विधान किया हुआ है।


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