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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

निर्वाण उपनिषद्
यह एक परवर्त्ती उपनिषद् है।

निविद
सार्वजनिक वैदिक पूजा के अवसर पर देवों को जागृत तथा आमन्त्रित करने वाले मन्त्र का नाम। ब्राह्मणों में निविद का बार-बार उल्लेख आया है, जिसका समावेश प्रपाठकों में हुआ है। ऋग्वेद के खिलों में निविदों का एक पञ्चक ही संगृहीत है। किन्तु यह सन्देहात्मक है कि ऋग्वेदीय काल में निविद जैसे सूक्तों के प्रयोग की प्रथा थी, यद्यपि यह ऋग्वेद में पाया जाता है। ब्राह्मणों में जो इसका क्रियात्मक अर्थ है वह यहाँ नहीं प्रयुक्त हुआ है। परवर्त्ती संहिताओं में इस शब्द का प्रयोग क्रियात्मक अर्थ में ही हुआ है।

निशी
अमानवीय आत्माओं में दैत्य एवं दानवों के अतिरिक्त प्रकृति के कुछ भयावने उपादानों को भी प्राचीन काल में दैत्य का रूप दे दिया गया था। अन्धेरी रात, पर्वतगुफा, सघन वनस्थली आदि ऐसे ही उपादान थे। 'निशी' रात के अन्धेरे का ही दैत्यीकरण है। प्राचीन काल में और आज भी यह विश्वास किया जाता है कि निशी (दैत्य के रूप में) आधी रात को आती है, घर के स्वामी को बुलाती है तथा उसे अपने पीछे-पीछे चलने को बाध्य करती है। उसे वन में घसीट ले जाती है तथा काँटों में गिरा देती है। कभी-कभी ऊँचे पेड़ों पर चढ़ा देती है। उसकी पुकार का उत्तर देना बड़ा संकटमय होता है।

निश्चलदास
एक दादूपन्थी सन्त, जो महात्मा दादूजी के शिष्य थे। ये कवि तथा वेदान्ती भी थे। इनकी रचनाएँ उत्कृष्ट हैं, और सबका आधार श्रुति-स्मृति और विशेषतः अद्वैतवाद है। निश्चलदास के प्रभाव से दादूपन्थ के सदस्यों ने अद्वैत सिद्धान्त को ग्रहण किया था।

निश्वास आगम
यह रौद्रिक आगम है।

निश्वासतत्त्वसंहिता
यह ग्यारहवीं शताब्दी वि० का ग्रन्थ है, जो शाक्त जीवन के सभी अङ्गों के लिए विशद नियमावली प्रस्तुत करता है।

निष्कलंकावतार
अठारहवीं शताब्दी वि० के उत्तरार्ध में बुन्देलखण्ड के पन्ना नामक स्थान पर महात्मा प्राणनाथ ने शिक्षा दी कि भारत के सारे धर्म मेरे ही व्यक्तित्व में समन्वित हैं, क्योंकि मैं एक साथ ही ईसाइयों का मसीहा, मुसलमानों का महदी तथा हिन्दुओं का निष्कलंकावतार हूँ। उन्होंने अपना धर्मसिद्धान्त 'कुलज्जम साहेब' नामक ग्रन्थ में व्यक्त किया है। दे० 'कुलज्जम साहेब'।

निष्काम कर्म
मोक्ष की प्राप्ति के लिए भागवत धर्म में और विशेषकर भगवद्गीता में निष्काम कर्म का आदेश है। इसमें फल की इच्छा के बिना कर्म किया जाता है तथा उपास्यदेव के चरणों में कर्म को समर्पित किया जाता है। देवता इसे ग्रहण करता है तथा अपनी स्वर्गीय प्रकृति को उसके फल के रूप में देता है। फिर देवता उपासक अथवा कर्म करनेवाले के हृदय में प्रवेश करता है तथा भक्ति के गुणों को जन्म देता है और अन्त में मोक्ष प्रदान करता है।
निष्काम कर्म के पीछे दार्शनिक विचार यह है कि कर्म के फल--शुभाशुभ के अनुसार मनुष्य संसारचक्र अथवा आवागमन में फँसता है। इसलिए जब तक कर्म से छुटकारा नहीं मिलता तब तक मुक्ति सम्भव नहीं। अब प्रश्‍न यह उठता है कि यह छुटकारा कैसे मिले। एक मार्ग यह है कि कर्म का पूरा परित्याग करके संसार से संन्यास ले लेना चाहिए। इसका अर्थ है अक्षरशः नैष्कर्म्य का पालन। परन्तु गीता में कहा गया है कि ऐसा करना सम्भव नहीं। जब तक मनुष्य शरीरधारण करता है तब तक वह कर्म से मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए सांख्य दर्शन के अनुसार उसे यह ज्ञान प्राप्त करना चाहिए कि सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के द्वारा होता है; पुरुष के ऊपर कर्म का आरोप मिथ्या तथा भ्रममूलक है। जब यह ज्ञान प्राप्त हो जाता है तब मनुष्य बन्धन में नहीं पड़ता। जिस प्रकार भुने हुए चने से फिर पौधा नहीं उत्पन्न होता वैसे ही सांख्यबुद्धि से कर्मफल उत्पन्न नहीं होता। परन्तु यह मार्ग सरल नहीं है। अतएव भक्तिमार्ग में, विशेषकर भागवत सम्प्रदाय में, यह बताया गया है कि कर्म को भगवत्प्रीत्यर्थ करना चाहिए और फल की निजी कामना न करके उसे भगवान् के चरणों में अर्पित कर देना चाहिए। इस प्रकार कृष्णार्पणबुद्धि से कर्म करने से मनुष्य बन्धन में नहीं पड़ता।

निष्किरीय
वैदिक पुरोहितों की एक शाखा का नाम निष्किरीय है, जिसका उल्लेख पञ्चविंश ब्राह्मण (12.5,14) में हुआ है। इसके द्वारा एक सत्र चलाया गया था।

निषिद्ध तिथि आदि
कुछ निश्चित मासों, तिथियों, साप्ताहिक दोनों, संक्रान्तियों तथा व्रतों के अवसरों पर कुछ क्रियाएँ तथा आचार व्यवहार निषिद्ध हैं। इनकी एक लम्बी सूची है। जीमूतवाहन के कालविवेक (पृष्ठ 334-345) में इस प्रकार के निषिद्ध क्रियाकलापों की एक सूची दी गयी है, किन्तु अन्त में यह भी कह दिया गया है कि ये क्रियाकलाप उन्हीं लोगों के लिए निषिद्ध है, जो वेद, शास्त्र, स्मृति ग्रन्थ तथा पुराण जानते हैं। ऐसे अवसर कदाचित् असंख्य हैं, जिनका परिगणन असम्भव है।


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