वेद का अर्थ स्पष्ट करने वाले दो ग्रन्थ अति प्राचीन समझे जाते हैं, एक तो निघण्टु तथा दूसरा यास्क का निरुक्त। कुछ विद्वानों के अनुसार निघण्टु के भी रचयिता यास्क ही थे। दुर्गाचार्य ने निरुक्त पर अपनी सुप्रसिद्ध वृत्ति लिखी है। निरुक्त से शब्दों की व्युत्पत्ति समझ में आती है और प्रसंगानुसार अर्थ लगाने में सुविधा होती है।
वास्तव में वैदिक अर्थ को स्पष्ट करने के लिए निरुक्त की पुरानी परम्परा थी। इस परम्परा में यास्क का चौदहवाँ स्थान है। यास्क ने निघण्टु के प्रथम तीन अध्यायों की व्याख्या निरुक्त के प्रथम तीन अध्यायों में की है। निघण्टु के चतुर्थ अध्याय की व्याख्या निरुक्त के अगले तीन अध्यायों में की गयी है। निघण्टु के पञ्चम अध्याय की व्याख्या निरुक्त के शेष छः अध्यायों में हुई है।
जैसा कि कहा गया है, निरुक्त का उद्देश्य है व्युत्पत्ति (प्रकृति-प्रत्यय) के आधार पर अर्थ का रहस्य खोलना। मुख्यतः दो प्रकार के अर्थ होते हैं--(1) सामान्य और (2) विशिष्ट। सामान्य के चार भेद हैं-- (1) कथित, उच्चारित अथवा व्याख्यात (2) उद्घोषित (महाभारतादि में) (3) निर्दिष्ट अथवा विहित (धर्मशास्त्र में) (4) व्युत्पत्त्यात्मक। विशिष्ट का अर्थ है वैदिक शब्दों का व्युत्पत्त्यात्मक अर्थ अथवा व्याख्या करने वाले ग्रन्थ। वेदाङ्गों में निरुक्त का प्रयोग इसी अर्थ में किया गया है।
निरुवनपुराण
नाथपंथी योगियों द्वारा रचित एक ग्रन्थ का नाम।
निरुढपशुबन्ध
एक प्रकार का यज्ञ, जिसमें यज्ञस्तंभ को जिस वृक्ष से काटते थे, उसको अभिषिक्त करते थे। फिर बलिपशु को तेल व हरिद्रा मलकर नहलाते तथा बलि के पूर्व घी से उसको अभिषिक्त करते थे। इसके पश्चात् उसको स्तम्भ से बाँध देते थे और विधि के अनुसार उसकी बलि देते थे।
निर्गुण
इसका अर्थ है गुणरहित। चरम सत्ता ब्रह्म के दो रूप हैं---निर्गुण और समुण। उसके सगुण रूप से दृश्य जगत् का विकास अथवा विवर्त होता है। किंतु वास्तविक वस्तुसत्ता तो निर्गुण ही होती है। गुणों के सहारे से उसका वर्णन अथवा निर्वचन नहीं हो सकता है। सम्पूर्ण विश्व में अन्तर्यामी होते हुए भी वह तात्त्विक दृष्टि से अतिरेकी और निर्गुण ही रहता है।
निर्णयसिन्धु
यह कमलाकर भट्ट का सर्वप्रसिद्ध ग्रन्थ है। यह उनकी विद्या, अध्यवसाय तथा सरलता का प्रतीक है। न्यायालयों में यह प्रमाण माना जाता है। निर्णय सिन्धु में लगभग एक सौ स्मृतियों और तीन सौ निबन्धकारों का उल्लेख हुआ है। यह ग्रन्थ तीन परिच्छेदों में विभक्त है। इसमें विविध धार्मिक विषयों पर निर्णय दिया गया है, जैसे वर्ष के प्रकार (सौर, चान्द्र आदि), चार प्रकार के मास, संक्रान्ति के कृत्य और दान, अधिक मास, क्षयमास, तिथियाँ (शुद्ध और विद्ध), व्रत, उत्सव, संस्कार, सपिण्ड सम्बन्ध, मूर्तिप्रतिष्ठा, मुहूर्त, श्राद्ध अशौच, सतीप्रथा, संन्यास आदि। इसकी रचना काशी में सोलहवीं शती के पूर्वार्द्ध में हुई थी।
निर्मल
सिक्खों के विरक्त सम्प्रदाय का नाम। सिक्ख सम्प्रदाय मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त है--(1) सहिज धारी और (2) सिंघ। पहले के छः तथा दूसरे के तीन उपविभाग हैं। सिंघों की तीन शाखाएँ हैं-- (1) खालसा, (2) निर्मल और (3) अकाली। निर्मल संन्यासियों का दल है। इस दल के संस्थापक वीरसिंह थे, जिन्होंने 1747 वि० में इस शाखा को संगठित किया।
निर्मल पंथ
दे० 'निर्मल'।
निरोधलक्षण
वल्लभाचार्य द्वारा रचित एक ग्रन्थ। इसका पूरा नाम 'निरोधललक्षणनिवृत्ति' है।
निर्वचन ग्रन्थ
निरुक्त के विषयों के 'निर्वचनलक्षण' तथा 'निर्वचनोपदेश' दो विभाग हैं।
निर्वाण
यह मुख्यतः बौद्ध दर्शन का शब्द है, किन्तु आस्तिक दर्शनों में उपनिषदों के समय से इसका प्रयोग हुआ है। निर्वाण तथा ब्रह्मनिर्वाण दोनों प्रकार से इसका विवेचन किया गया है। यह आत्मा की वह स्थिति है जिसमें सम्पूर्ण वेदना, दुःख, मानसिक चिन्ता और संक्षेप में समस्त संसार लुप्त हो जाते हैं। इसमें आत्मतत्त्व की चेतना अथवा सच्चिदानन्द स्वरूप नहीं नष्ट होता, किन्तु उसके दुःखमूलक संकीर्ण व्यक्तित्व का लोप हो जाता है।