यह सम्प्रदाय वैष्णव चतुःसंप्रदाय की एक शाखा है। दार्शनिक दृष्टि से यह भेदाभेदवादी है। भेदाभेद और द्वैताद्वैत मत प्रायः एक ही हैं। इस मत के अनुसार द्वैत भी सत्य है और अद्वैत भी। इस मत के प्रधान आचार्य निम्बार्क हो गये हैं परन्तु यह मत अति प्राचीन है। इसे सनकादिसम्प्रदाय भी कहते हैं। ब्रह्मा के चार मानस पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन औऱ सनत्कुमार थे। ये चारों ऋषि इस मत के आचार्य कहे जाते हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में सनत्कुमार-नारद की आख्यायिका प्रसिद्ध हैं। उसमें कहा गया है कि नारद ने सनत्कुमार से ब्रह्मविद्या सीखी थी। इन्हीं नारदजी ने निम्बार्क को उपदेश दिया। निम्बार्क ने अपने वेदान्तभाष्य में सनत्कुमार और नारद के नाम का उल्लेख किया है। निम्बार्क ने साम्प्रदायिक ढंग से जिस मत की शिक्षा पायी थी उसे अपनी प्रतिभा से और भी उज्ज्वल बना दिया।
निम्बार्कसम्प्रदाय की एक प्राचीन गुरुगद्दी मथुरा में यमुना के तटवर्ती ध्रुवक्षेत्र में है। वैष्णवों का यह पवित्र तीर्थ माना जाता है। अब अन्यत्र भी प्रभावशाली गुरुगद्दियाँ स्थापित हो गयी हैं। इस सम्प्रदाय के लोग विशेषकर उत्तर भारत में ही रहते हैं। इस सम्प्रदाय की एक विशेषता यह है कि इसके आचार्यों ने अन्य मतों के आचार्यों की तरह दूसरे मतों का खण्डन नहीं किया है। केवल देवाचार्य के ग्रन्थ में शाङ्कर मत पर आक्षेप किया गया है।
निम्बार्काचार्य
दे० 'निम्बार्क'।
निम्मप्पदास
एक कर्नाटकी भक्त का नाम। प्राकृत भाषाओं में धार्मिक ग्रन्थों के लिखे जाने के आन्दोलन के प्रभाव से कन्नड भाषा में भी ग्रन्थ रचे गये। निम्मप्पदास ने औरों की तरह अपनी रचनाएँ (पद्य में) कन्नड भाषा में लिखी है।
नियति
शाक्त मत के अनुसार प्राथमिक सृष्टि के दूसरे चरण में शक्ति के भूतिरूप का सामूहिक प्रकटन कूटस्थ पुरुष तथा माया शक्ति के रूप में होता है। कूटस्थ पुरुष व्यक्तिगत आत्माओं का सामूहिक रूप है (मधुमक्खियों की तरह एकत्र हुआ) तथा माया विश्व का अभौतिक उपादान है। माया से नियति की उत्पत्ति होती है, जो सभी वस्तुओं को नियमित करती हैं। फिर नियति से काल उत्पन्न होता है जो चालक शक्ति है।
नियम
योगदर्शन में निर्दिष्ट अष्टांग योग का द्वितीय घटक। इसकी परिभाषा है : 'शौच-सन्तोष-तपः--स्वाध्याय-ईश्वर-प्रणिधानानि नियमाः।' [शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, और ईश्वर का ध्यान ये नियम कहलाते हैं।] सामान्य अर्थ है 'स्वेच्छा से अपने ऊपर नियन्त्रण रखकर अच्छा अभ्यास विकसित करना', जैसे स्नान, शुद्धाचार, शरीर को निर्मल बनाना, सन्तोष, प्रसन्नता, अध्ययन, उदासीनता आदि।
नियमयूथमालिका
अप्पय दीक्षित रचित 'नियमयूथमालिका' रामानुज मत का दिग्दर्शन कराती है।
नियोग
इसका शाब्दिक अर्थ है 'नियोजन' अथवा 'योजना' अर्थात् पति की असमर्थता अथवा अभाव में ऐसी व्यवस्था जिससे सन्तान उत्पन्न हो सके। वैदिक काल से लेकर 300 ई० पू० तक विधवा के पति के साथ चित्ता पर जलने का विधान नहीं था। उसके जीवन व्यतीत करने की तीन मार्ग थे-- (1) आजीवन वैधव्य, (2) नियोग द्वारा सन्तान प्राप्त करना और (3) पुनर्विवाह।
प्राचीन काल में नियोग अनेक सभ्यताओं में प्रचलित था। इसका कारण ढूँढना कठिन नहीं है। स्त्री पति की ही नहीं बल्कि उसके परिवार की सम्पत्ति समझी जाती थी और इसी कारण पति के मरने के बाद उसका देवर (पति का भाई) उसे पत्नी के रूप में ग्रहण करता तथा सन्तानोत्पादन करता था। प्राचीन काल में ग्रहण किये गये 'दत्तक' पुत्र से नियोग द्वारा पैदा किया गया पुत्र श्रेष्ठ समझा जाता था। इसलिए उसे औरस के बाद दूसरा स्थान प्राप्त होता था। महाभारत तथा पुराणों के अनेक नायक नियोग से पैदा हुए थे।
नियोग प्रणाली के अनुसार जब किसी स्त्री का पति मर जाता या सन्तानोत्पादन के अयोग्य होता था तो वह अपने देवर या किसी निकटवर्ती सम्बन्धी के साथ सहवास कर कुछ सन्तान उत्पन्न करती थी। देवर इस कार्य के लिए सर्वश्रेष्ठ समझा जाता था। देवर अथवा सगोत्र के अभाव में किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण से नियोग कराया जाता था।
परवर्त्ती स्मृतियों में नियोग द्वारा एक ही पुत्र पैदा करने की आज्ञा दी गयी, किन्तु पहले कुछ भिन्न अवस्था थी। कुन्ती ने अपने पति से बाधित हो नियोग द्वारा तीन पुत्र प्राप्त किये थे। पाण्डु इस संख्या से सन्तुष्ट नहीं थे, किन्तु कुन्ती ने सुझाया कि नियोग द्वारा तीन ही पुत्र पैदा किये जा सकते हैं। क्षत्रियों को अनेक पुत्रों की कामना हुआ करती थी तथा प्रागैतिहासिक काल में नियोग से असंख्य सन्तान पैदा करने की परिपाटी थी।
300 ई० पू० तक नियोग प्रचलित थी। किन्तु इसके बाद इसका विरोध आरम्भ हुआ। आपस्तम्ब, बौधायन तथा मनु ने इसका विरोध किया। मनु ने इसे पशुधर्म कहा है। वसिष्ठ तथा गौतम ने इसका केवल इतना ही विरोध किया कि देवर के प्राप्त होने पर कोई स्त्री किसी अपरिचित से नियोग न करे। कौटिल्य एक बूढ़े राजा को नियोग द्वारा एक नया पुत्र प्राप्त करने की स्वीकृति देते हैं। इस विरोध का इतना फल हुआ कि शारीरिक आनन्द के लिए नियोग न कर पुत्र की कामनावश ही नियोग की प्रथा रह गयी। गर्भाधान के बाद दोनों (विधवा तथा नियोजित पति) अलग हो जाते थे। धीरे--धीरे जब सन्तानोत्पत्ति अनिवार्य न रही तो नियोग प्रथा भी बन्द हो गयी। आधुनिक युग में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने नियोग का कुछ अनुमोदन किया परन्तु यह प्रथा पुनर्जीवित नहीं हुई। धीरे-धीरे विधवाविवाह के प्रचलन से यह प्रथा बन्द हो गयी। जो विधवा वैधव्य की कठोरता का पालन करने में असमर्थ हो उसके लिए पुनर्विवाह करना उचित माना गया। इससे नियोग की प्रथा एकदम समाप्त हो गयी।
निर्जला एकादशी
ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को निर्जला एकादशी कहते हैं। इस दिन प्रातः से लेकर दूसरे दिन प्रातः तक उपवास करना चाहिए। इस दिन जलग्रहण भी निषिद्ध है, केवल सन्ध्योपासना के समय किये गये आचमनों को छोड़कर। दूसरे दिन प्रातः शर्करामिश्रित जल से परिपूर्ण एक कलश दान में देकर स्वयं जलपानादि करना चाहिए। इससे बारहों द्वादशियों का फल तो प्राप्त होता ही है, व्रती सीधा विष्णुलोक को जाता है।
निराकारमीमांसा
गुरु नानकरचित एक ग्रन्थ। यह संस्कृत भाषा में रचा गया है।