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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

नारदकुण्ड
बदरीनाथ में तप्तकुण्ड से अलकनन्दा तक एक पर्वतशिला फैली हुई है। इसके नीचे अलकनन्दा के किनारे पर नारदकुण्ड है जहाँ यात्री पुण्यार्थ स्नान करते हैं। व्रज में गोवर्धन पर्वत के निकट भी एक नारदकुण्ड है।

नारदपरिव्राजक उपनिषद्
यह एक परवर्ती उपनिषद् है।

नारदपञ्चरात्र
प्राचीन 'पाञ्चरात्र' सम्प्रदाय का प्रतिपादक 'नारदपञ्चरात्र' नामक एक प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ है। उसमें दसों महाविद्याओं की कथा विस्तार से कही गयी है। नारदपञ्चरात्र और ज्ञानामृतसार से पता चलता है कि भागवत धर्म की परम्परा बौद्ध धर्म के फैलने पर भी का नष्‍ट नहीं हो सकी। इसके अनुसार हरिभजन ही मुक्ति का परम कारण है।
कई वर्ष पहले इस ग्रन्थ का प्रकाशन कलकत्ता से हुआ था। यह बहुलअर्थी ग्रन्थ है। इसमें कुछ भाग विष्णुस्वामियों तथा कुछ वल्लभों द्वारा जोड़ दिये गये जान पड़ते हैं।

नारदपुराण
नारदीय महापुराण में पूर्व और उत्तर दो खण्ड हैं। पूर्व खण्ड में 125 अध्याय हैं और उत्तर खण्ड में 82 अध्याय। इसके अनुसार इस पुराण में 25000 श्लोक होने चाहिए। बृहन्नारदीय पुराण उपपुराण है। कार्तिकमाहात्म्य, दत्तात्रेयस्तोत्र, पार्थिवलिङ्गमाहात्म्य, मृगव्याधंकथा, यादवगिरिमाहात्म्य, श्रीकृष्णमाहात्म्य, सङ्कटगणपतिस्तोत्र इत्यादि कई छोटी-छोटी पोथियाँ नारदपुराण के ही अन्तर्गत समझी जाती हैं।
यह वैष्णव पुराण है। विष्णुपुराण में रचनाक्रम से यह छठा बताया गया है। परन्तु इसमें प्रायः सभी पुराणों की संक्षिप्त विषयसूची श्लोकबद्ध दी गयी है। इससे जान पड़ता है कि इस महापुराण में कम से कम इतना अंश अवश्य ही उन सब पुराणों से पीछे का है। इसकी यही विशेषता है कि उक्त उल्लेख से अन्य पुराणों के पुराने संस्करणों का ठीक-ठीक पता लगता है औऱ पुराण तथा उपपुराण का अन्तर भी मालूम हो जाता है।

नारदभक्तिसूत्र
नारद और शाण्डिल्य के रचे दो भक्ति सूत्र प्रसिद्ध हैं जिन्हें वैष्णव आचार्य अपने निर्देशक ग्रन्थ मानते हैं। दोनों भागवत पुराण पर आधारित हैं। दोनों में से किसी में राधा का वर्णन नहीं है। नारदभक्तिसूत्र भाषा तथा विचार दोनों ही दृष्टियों से सरल है।

नारदस्मृति
207-550 ई० के मध्य रचे गये धर्मशास्त्र ग्रन्थों में नारद तथा बृहस्पति की स्मृतियों का स्थान महत्त्वपूर्ण है। व्यवहार पर नारद के दो संस्करण पाये जाते हैं, जिनमें से लघु संस्करण का सम्पादन तथा अनुवाद जॉली ने 1876 ई० में किया था। 1885 ई० में बड़े संस्करण का प्रकाशन भी जॉली ने ही 'बिब्लिओथिका इण्डिका सीरीज' में किया था और इसका अंग्रेजी अनुवाद 'सैक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट सीरीज' (जिल्द, 33 में किया)।
याज्ञवल्क्यस्मृति में जिन स्मृतियों की सूची पायी जाती है उसमें नारदस्मृति का उल्लेख नहीं है और न पराशर ही नारद की गणना स्मृतिकारों में करते हैं। किन्तु विश्वरूप नें वृद्ध-याज्ञवल्क्य के जिन श्लोकों को उद्धृत किया है उनमें स्मृतिकारों में नारद का स्थान सर्वप्रथम है (याज्ञ०, 1.4-5 पर विश्वरूप की टीका)। इससे प्रकट होता है कि नारदस्मृति की रचना याज्ञवल्क्य और पराशर स्मृतियों के पश्चात् हुई।
नारदस्मृति का जो संस्करण प्रकाशित है उसके प्रथम तीन (प्रस्तावना के) अध्याय व्यवहारमातृका (अदालती कार्रवाई) तथा सभा (न्यायालय) के ऊपर हैं। इसके पश्चात् निम्नलिखित वादस्थान दिये गये हैं : ऋणाधान (ऋण वापस प्राप्त करता), उपनिधि (जमानत), सम्भूय समुत्त्‍थान (सहकारिता), दत्ताप्रदानिक (करार करके न देना), अभ्युपेत्य अशुश्रूषा (सेवा अनुबन्ध भङ्ग), वेतनस्य अनपाकर्म (वेतन का भुगतान न करना), अस्वामिविक्रय (विना स्वाम्य के विक्रय), विक्रीयासम्प्रदान (बेचकर सामान न देना), क्रीतानुशय (खरीदकर न लेना), समयस्यानपाकर्म (निगम, श्रेणी आदि के नियमों का भङ्ग), सीमाबन्ध (सीमाविवाद), स्त्रीपुंसयोग (वैवाहिक सम्बन्ध), दायभाग (पैतृक सम्पत्ति का उत्तराधिकार और विभाग), साहस (बलप्रयोग-अपराध), वाक्पारुष्य (मानहानि, गाली), दण्डपारुष्य (चोट और क्षति पहुँचना), प्रकीर्णक (विविध अपराध)। परिशिष्ट में चौर्य एवं दिव्य प्रमाण का निरूपण है।
नारद व्यवहार में पर्याप्त सीमा तक मनु के अनुयायी हैं।

नारायण
(1) महाभारत, मोक्षधर्म के नारायणीय उपाख्यान में वर्णन है कि नारद उत्तर दिशा की लम्बी यात्रा करते हुए क्षीरसागर के तट पर जा निकले। उसके बीच श्वेतद्वीप था, जिसके निवासी श्वेत पुरुष नारायण अर्थात् विष्णु की पूजा करते थे। आगे उन लोगों की पवित्रता, धर्म आदि का वर्णन है।
महोपनिषद् में कहा गया है कि नारायण अर्थात् विष्णु ही अनन्त ब्रह्म हैं, उन्हीं से सांख्य के पचीस तत्त्व उत्पन्न हुए एवं शिव तथा ब्रह्मा उनके आश्रित देवता हैं, जो उनकी ध्‍यानशक्ति से उत्‍पन्‍न हुए हैं।
नारायण तथा आत्मबोध उपनिषदों में नारायण का मन्त्र उद्धृत है तथा इन उपनिषदों का मुख्य विषय ही नारायणमन्त्र है। यह मन्त्र है 'ओम् नमो नारायणाय'। यही मन्त्र श्रीवैष्णव सम्प्रदाय का दीक्षामन्त्र भी है।
(2) महाराष्ट्रीय सन्त नारायण। इनका नाम बाद में समर्थ रामदास (1608-81 ई०) हो गया, जो स्वामी रामानन्दजी के भक्ति आन्दोलन से प्रभावित थे। ये कवि थे किन्तु इनकी रचनाएँ तुकाराम के सदृश साहित्यिक नहीं हैं। इनका व्यक्तिगत प्रभाव शिवाजी पर विशेष था। इनकी काव्यरचना का नाम 'दासबोध' है जो धार्मिक होने की अपेक्षा दार्शनिक अधिक है।
(3) भाष्यकार एवं वृत्तिकार नारायण। नारायण नाम के एक विद्वान् ने शाङ्कायनश्रौतसूत्र का भाष्य लिखा है। ये नारायण तथा आश्वलायनसूत्र के भाष्यकार नारायण दो भिन्न व्यक्ति हैं। तैत्तिरीय उपनिषद् के एक टीकाकार का भी नाम नारायण है। श्वेताश्वतर एवं मैत्रायणीयोपनिषद् (यजुर्वेद की उपनिषदों) के एक वृत्तिकार की भी नाम नारायण है। छान्दोग्य तथा केनोपनिषद् (सामवेदीय) पर भी नारायण ने टीका लिखी है। अथर्ववेदीय उपनिषद् मुण्डक, माण्डूक्य, प्रश्‍न एवं नृसिंहतापिनी पर भी नारायण की टीकाएँ हैं।
उपर्युक्त उपनिषदों के टीकाकार तथा वृत्तिकार नारायण एक ही व्यक्ति ज्ञात होते हैं, जो सम्भवतः ईसा की चौदहवीं शती में हुए थे। ये माधव के गुरु शङ्करानन्द के बाद हुए थे। इन्होंने अपने भाष्यों में 52 उपनिषदों का नाम लिखा है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से प्रसिद्ध हैं।

नारायणतीर्थ
ब्रह्मानन्द सरस्वती के विद्यागुरु स्वामी नारायण तीर्थ थे।

नारायणदेव
(1) सूर्य देवता का पर्याय नारायणदेव है। सौर सम्प्रदाय में सूर्य ही नारायण अथवा जगदात्मा देव और आराधनीय हैं।
(2) 'बैगा' नामक गोंड़ों की अब्राह्मण पुरोहित जाति के कुलदेवता का नाम नारायणदेव है। जो सूर्य के प्रतीक या उनके समान माने जाते हैं। बैगा लोग अपने देवता के यज्ञ में सूअर की बलि देते हैं। ऐसे यज्ञ विवाह, जन्म तथा मृत्यु जैसे अवसरों पर होते हैं। बलिपशु नाना प्रकार से सताये जाने के बाद एक शहतीर के नीचे दबाकर मारा जाता है। कहते हैं कि यही विधि देवता को पसन्द है।

नारायणपुत्र
सामसंहिता के भाष्यकारों में से एक हैं।


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