(1) तेरहवीं शताब्दी में चित्सुखाचार्य ने अपने 'तत्त्वदीपिका' नामक ग्रन्थ में न्यायलीलावतीकार वल्लभाचार्य के मत का खण्डन किया है। तत्त्वप्रदीपिका का दूसरा नाम 'चित्सुखी' है।
(2) तेरहवीं शती के अन्तिम चरण में त्रिविक्रम ने मध्वाचार्य रचित 'वेदान्तसूत्रभाष्य' पर 'तत्त्वप्रदीपिका' नामक टीका लिखी है।
तत्त्वबोधिनी
सोलहवीं शताब्दी को उत्तरार्ध में अद्वैत मत के प्रमुख आचार्य नृसिंहाश्रम स्वामी उद्भट दार्शनिक एवं प्रौढ़ पण्डित हुए हैं। इनकी रची 'तत्त्वबोधिनी' सर्वज्ञात्ममुनिकृत 'संक्षेपशारीरक' की व्याख्या है।
तत्त्वमञ्जरी
सत्रहवीं शताब्दी में मध्व मतावलम्बी राधवेन्द्र स्वामी रचित यह एक ग्रन्थ है।
तत्त्वमसि
तुम वह (ब्रह्म) हो' यह महावाक्य छान्दोग्य उपनिषद् में आया है। उद्दालक आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को इसका उपदेश किया है। यह सम्पूर्ण औपनिषदिक ज्ञान का सार है। इसका तात्पर्य है व्यक्तिगत आत्मा का विश्वात्मा (ब्रह्म) से अभेद।
तत्त्वमार्तण्ड
अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तृतीय श्रीनिवास द्वारा रचित 'तत्त्वमार्तण्ड' विशिष्टाद्वैत मत का समर्थन एवं अन्य मतों का खण्डन करता है।
तत्त्वमुक्ताकलाप
वेङ्कटनाथ वेदान्ताचार्य लिखित यह ग्रन्थ तमिल भाषा में है। इसकी रचना विक्रम की चौदहवीं या पन्द्रहवीं शती में हुई।
तत्त्वबिन्दु
वाचस्पति मिश्र ने भट्टमत पर 'तत्त्वबिन्दु' नामक टीका लिखी है।
तत्त्वविवेक
इस नाम के दो ग्रन्थ हैं। प्रथम के रचयिता अद्वैत सम्प्रदाय के आचार्य नृसिंहाश्रम हैं। यह ग्रन्थ प्रकाशित है। इसमें केवल दो परिच्छेद हैं। इसके ऊपर उन्होंने स्वयं ही 'तत्त्वविवेकदीपन' नाम की एक टीका लिखी है। दूसरा ग्रन्थ मध्वाचार्य रचित है।
तत्त्ववैशारदी
सं 107 वि० के लगभग योगसूत्र पर वाचस्पति मिश्र ने 'तत्त्ववैशारदी' नामक टीका लिखी। दार्शनिक शैली में यह 'योगसूत्रभाष्य' से भी उत्तम ग्रन्थ है। इसमें विषयों का क्रम एवं शब्दयोजना श्रृंखलाबद्ध है।
तत्त्वशेखर
विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में वैष्णव आचार्यों में प्रसिद्ध लोकाचार्य ने रामानुजीय सिद्धान्त समझाने के लिए दो ग्रन्थों की रचना की--'तत्त्वत्रय' एवं 'तत्त्वशेखर'। प्रथम में तत्त्वों का वर्गीकरण और व्याख्या तथा द्वितीय में उनके उच्चतर दार्शनिक पक्षों का विवेचन है।