तीर्थ शिष्यपरम्परा शारदामठ के अन्तर्गत है। विशेष विवरण के लिए दे० 'तीर्थ'।
तीव्रव्रत
पैरों को तोड़कर (बाँधकर) काशी में ही रहना, जिससे मनुष्य बाहर कहीं जा न सके, तीव्र व्रत कहलाता है। अपनी कठोरता के कारण इसका यह नाम है। दे० हेमाद्रि 2.916।
तुकाराम
तुकाराम (1608-49 ई०) एक छोटे दूकानदार और बिठोवा के परम भक्त थे। उनके व्यक्तिगत धार्मिक जीवन पर उनके रचे गीतों (अभंगों) की पंक्तियाँ पूर्णरूपेण प्रकाश डालती हैं। उनमें तुकाराम की ईश्वर भक्ति, निज तुच्छता, अयोग्यता का ज्ञान, असीम दीनता, ईश्वरविश्वास एवं सहायतार्थ ईश्वर से प्रार्थना एवं आवेदन कूट-कूट कर भरे हैं। उन्हें बिठोवा के सर्वव्यापी एवं आध्यात्मिक रूप का विश्वास था, फिर भी वे अदृश्य ईश्वर का एकीकरण मूर्ति से करते थे।
उनके पद्य (अभंग) बहुत ही उच्चकोटि के हैं। महाराष्ट्र में सम्भवतः उनका सर्वाधिक धार्मिक प्रभाव है। उनके गीतों में कोई भी दार्शनिक एवं गूढ़ धार्मिक नियम नहीं है। वे एकेश्वरवादी थे। महाराष्ट्रकेसरी शिवाजी ने उन्हें अपनी राजसभा में आमन्त्रित किया था, किन्तु तुकाराम ने केवल कुछ छन्द लिखकर भेजते हुए त्याग का आदर्श स्थापित कर दिया। उनके भजनों को अभंग कहते हैं। इनका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है।
तुग्र
ऋग्वेद (1.116,3;117,14;6.626) में तुग्र को भुज्यु का पिता कहा गया है और भुज्यु को अश्विनों का संरक्षित। तुग्र को ही 'तुग्रय्य' वा तौग्रय्य कहते हैं। ऋग्वेद के एक अन्य सूक्त में (6.20,8,26;4.10.49,4) दूसरे 'तुग्र' का उल्लेख इन्द्र के शत्रु के रूप में किया गया है।
तुङ्गनाथ
हिमालय के केदार क्षेत्र में स्थित एक तीर्थस्थान। तुङ्गनाथ पंचकेदारों में से तृतीय केदार है। इस मन्दिर में शिवलिङ्ग तथा कई और मूर्तियाँ हैं। यहाँ पातालगङ्गा नामक अत्यन्त शीतल जल की धारा है। तुङ्गनाथशिखर से पूर्व की ओर नन्दा देवी, पञ्चचूली तथा द्रोणाचल शिखर दीख पड़ते हैं। दक्षिण में पौड़ी, चन्द्रवदनी पर्वत तथा सुरखण्डा देवी के शिखर दिखाई देते हैं।
तुमिञ्ज औपोदिति
तौत्तिरीय संहिता (1.6,2,1) में तुमिञ्ज औपोदिति को एक सत्र का होता पुरोहित कहा गया है तथा उन्हें सुश्रवा के साथ शास्त्रार्थरत भी वर्णित किया गया है।
तुरगसप्तमी
चैत्र शुक्ल सप्तमी को तुरगमसप्तमी कहते हैं। इस तिथि को उपवास करना चाहिए तथा सूर्य, अरुण, निकुम्भ, यम, यमुना, शनि तथा सूर्य की पत्नी छाया, सात छन्द, धाता, अर्यमा तथा दूसरे देवगण की पूजा करनी चाहिए। व्रत के अन्त में तुरग (घोड़े) के दान का विधान है।
तुरायण
महाभारत के अनुशासनपर्व (103.34) से प्रतीत होता है कि महाराज भगीरथ ने इस व्रत का तीस वर्ष तक आचरण किया था। पाणिनी की अष्टाध्यायी (5.1.72) में भी यह नाम आया है। स्मृतिकौस्तुभ के अनुसार यह एक प्रकार का यज्ञ है। आपस्तम्बश्रौतसूत्र (2.14) में 'तुरायणेष्टि यज्ञ' बतलाया गया है। मनुस्मृति (6.10) में चातुर्मास्य तथा आग्रयण के साथ इसे वैदिक इष्टि बतलाया गया है।
तुरीयातीतावधूत उपनिषद्
यह परवर्ती उपनिषद् है। इसमें अवदूतों के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है।
तुलसी
भारत में जंगली वृक्ष, क्षुप एवं तृणों में भी दिव्य शक्ति मानी जाती है। जैसे बेल का वृक्ष, क्षुप एवं तृणों में भी दिव्य शक्ति मानी जाती है। जैसे बेल का वृक्ष शैवों के लिए पवित्र है, कुश, दुर्वा कर्मकाण्डियों के लिए; वैसे ही तुलसी वैष्णवों के लिए पवित्र है। लोग उसकी पूजा करते और उसे अपने घर के आँगन में रोपित करते हैं। प्रत्येक दिन स्नानोपरान्त इस वृक्ष को जल दिया जाता है। सन्ध्याकाल में वृक्ष के नीचे इसके चरणों के पास दीपक जलाते हैं। इसमें हरि (विष्णु) का निवास मानते हैं। विष्णु की पूजा के लिए इसकी पत्तियाँ अत्यावश्यक हैं।
तुलसी का एक नाम वृन्दा भी है। पुराणों के अनुसार वृन्दा जालन्धर की पत्नी थी। अपने पातिव्रत के कारण वह विष्णु के लिए भी वन्दनीय थी। इसलिए विष्णु के अवतार कृष्ण की लीलाभूमि का नाम ही वृन्दावन है।
इसकी पत्तियों में मलेरिया ज्वर की नाशक शक्ति है जिससे ग्रामीण वैद्य अधिकतर इसका व्यवहार करते हैं। परन्तु इसका प्रयोग अधिकांश धार्मिक भाव से ही होता है।