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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

ज्येष्ठाव्रत
भाद्र शुक्ल अष्टमी को ज्येष्ठा नक्षत्र होने पर इस व्रत का आचरण किया जाता है। इसमें ज्येष्ठा नक्षत्र की पूजा का विधान है। यह नक्षत्र उमा तथा लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। इससे अलक्ष्मी (दारिद्र्य तथा दुर्भाग्य)) दूर हो जाती है। उपर्युक्त योग के दिन रविवार होने पर यह नील ज्येष्ठा भी कहलाती है।

जैत्रायण सहोजित
काठक संहिता (18.5) में वर्णित एक राजा का विरुद, जिसने राजसूय यज्ञ किया था। कुछ विद्वानों ने जैत्रायण को व्यक्तिवाचक बताया है जो पाणिनि के सन्दर्भ 'कर्णादि गण' के अनुसार बना है। किन्तु कपिष्ठल संहिता में पाठ भिन्न है तथा इससे किसी भी व्यक्ति का बोध नहीं होता। यहाँ कर्त्ता इन्द्र है। यह पाठ अधिक सम्भव है तथा इससे उन सभी राजाओं का बोध होता है जो इस यज्ञ को करते हैं।

जैन धर्म
वेद को प्रमाण न मानने वाला एक भारतीय धर्म, जो अपने नैतिक आचरण में अहिंसा, त्याग, तपस्या आदि को प्रमुख मानता है। जैन शब्द 'जिन' से बना है जिसका अर्थ है 'वह पुरुष जिसने समस्त मानवीय वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है।' अर्हन् अथवा तीर्थङ्कर इसी प्रकार के व्यक्ति थे, अतः उनसे प्रवर्तित धर्म जैन धर्म कहलाया। जैन लोग मानते हैं कि उनका धर्म अनादि और सनातन है। किन्तु काल से सीमित है, अतः यह विकास और तिरोभाव-क्रम से दो चक्रों-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में विभक्त है। उत्सर्पिणी का अर्थ है ऊपर जाने वाली। इसमें जीव अधोगति से क्रमशः उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। अवसर्पिणी में जीव और जगत् क्रमशः उत्तम गति से अधोगति को प्राप्त होते हैं। इस समय अवसर्पिणी का पाँचवाँ (अन्तिम से एक पहला) युग चल रहा है। प्रत्येक चक्र में चौबीस तीर्थङ्कर होते हैं। इस चक्र के चौबीसों तीर्थङ्कर हो चुके हैं। इन चौबीसों के नाम और वृत्त सुरक्षित हैं। आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव थे, जिनकी गणना सनातनधर्मी हिन्दू विष्णु के चौबीस अवतारों में करते हैं। इन्हीं से मानवधर्म (समाजनीति, राजनीति आदि) की व्यवस्था प्रचलित हुई। तेईसर्वे तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ हुए जिनका निर्वाण 776 ई० पू० में हुआ। चौबीसवें तीर्थङ्कर वर्धमान महावीर हुए (दे० 'महावीर')। इन्हीं तीर्थङ्करों के उपदेशों और वचनों से जैन धर्म का विकास और प्रचार हुआ।
जैन धर्म की दो प्रमुख शाखाएँ हैं-- दिगम्बर और श्वेताम्बर। 'दिगम्बर' का अर्थ है 'दिक् (दिशा) है अम्बर (वस्त्र) जिसका' अर्थात् नग्न। अपरिग्रह और त्याग का यह चरम उदाहरण है। इसका उद्देश्य है सभी प्रकार के संग्रह का त्याग। इस शाखा के अनुसार स्त्रियों को मोक्ष नहीं मिल सकता, क्योंकि वे वस्त्र का पूर्णतः त्याग नहीं कर सकतीं। इनके तीर्थङ्करों की मूर्तियाँ नग्न होती हैं। इसके अनुयायी श्वेताम्बरों द्वारा मानित अङ्ग साहित्य को भी प्रामाणिक नहीं मानते। 'श्वेताम्बर' का अर्थ है 'श्वेत (वस्त्र) है आवरण जिसका'। श्वेताम्बर नग्नता को विशेष महत्त्व नहीं देते। इनकी देवमूर्तियाँ कच्छ धारण करती हैं। दोनों सम्प्रदायों में अन्य कोई मौलिक अन्तर नहीं है। एक तीसरा उपसम्प्रदाय सुधारवादी स्थानकवासियों का है जो मूर्तिपूजा का विरोधी और आदिम सरल स्वच्छ व्यवहार तथा सादगी का समर्थक है। इन्हीं की एक शाखा तेरह पंथियों की है जो इनसे उग्र सुधारक हैं।
जैन धर्म के धार्मिक उपदेश मूलतः नैतिक हैं, जो अधिकतर पार्श्वनाथ और महावीर की शिक्षाओं से गृहीत हैं। पार्श्‍वनाथजी के अनुसार चार महाव्रत हैं--(1) अहिंसा (2) सत्य (3) अस्तेय और (4) अपरिग्रह। महावीर ने इसमें ब्रह्मचर्य को भी जोड़ा। इस प्रकार जैन धर्म के पाँच महाव्रत हो गये। इनका आत्यन्तिक पालन भिक्षुओं के लिए आवश्यक है। श्रावक अथवा गृहस्थ के लिए अणुव्रत व्यावहारिक है। वास्तव में जैन धर्म का मूल और आधार अहिंसा ही है। मनसा वाचा कर्मणा किसी को दुःख न पहुँचाना अहिंसा है, अप्राणिवध उसका स्थूल रूप किन्तु अनिवार्य है। जीवधारियों को इन्द्रियों की संख्या के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। जिनकी इन्द्रियाँ जितनी कम विकसित हैं उनकों शरीरत्याग में उतना ही कम कष्ट होता है। इसलिए एकेन्द्रिय जीवों (वनस्पति, कन्द, फूल, फल आदि) को ही जैनधर्मी ग्रहण करते हैं, जैनधर्म में आचारशास्त्र का बड़ा विस्तार हुआ है। छोटे से छोटे व्यवहार के लिए भी धार्मिक एवं नैतिक नियमों का विधान किया गया है।
जैनधर्म में धर्मविज्ञान का प्रायः अभाव है, क्योंकि यह जगत् के कर्ता-धर्ता-संहर्ता के रूप में ईश्वर को नहीं मानता। ईश्वर, देव, प्रेत, राक्षस आदि सभी का इसमें प्रत्याख्यान है। केवल तीर्थङ्कर ही अतिभौतिक पुरुष हैं, जिनकी पूजा का विधान है। जैन धर्म आत्मा में विश्वास करता है और प्रकृति के प्रवाह को सनातन मानता है। इसका अध्यात्मशास्त्र काफी जटिल है। जैन दर्शन की ज्ञान-मीमांसा का आधार नय (अथवा न्याय =तर्क) है। यह आगमपरम्परा का है, निगमपरम्परा का नहीं। इसके सप्तभङ्गी नय को 'स्याद्वाद' कहते हैं। यह वस्तु को अनेक धर्मात्मक मानता है और इसके अनुसार सत्य सापेक्ष और बहुमुखी है। इसको 'अनेकान्तवाद' भी कहते हैं। इसके अनुसार एक ही पदार्थ में नित्यत्व और अनित्यत्व, सादृश्य और विरूपत्व, सत्त्व और असत्व आदि परस्पर भिन्न धर्मों का सापेक्ष अस्तित्व स्वीकार किया जाता है।
जैन दर्शन के अनुसार विश्व है, बराबर रहा है और बराबर रहेगा। यह दो अन्तिम, सनातन और स्वतन्त्र पदार्थों में विभक्त है, वे हैं, (1) जीव और (2) अजीव; एक चेतन और दूसरा जड़, किन्तु दोनों ही अज और अक्षर हैं। अजीव के पाँच प्रकार बतलाये गये हैं :
(1) पुद्गल (प्रकृति) (2) धर्म (गति) (3) अधर्म (अगति अथवा लय) (4) आकाश (देश) और (5) काल (समय)। सम्पूर्ण जीवधारी आत्मा तथा प्रकृति के सूक्ष्म मिश्रण से बने हैं। उनमें सम्बन्ध जोड़ने वाली कड़ी कर्म है। कर्म के आठ प्रकार और अगणित उप प्रकार हैं। कर्म से सम्पृक्त होने के ही कारण आत्मा अनेक प्रकार के शरीर धारण करने के लिए विवश हो जाता है और इस प्रकार जन्म-मरण (जन्म-जन्मान्तर) के बन्धन में फँस जाता है।
जैन धर्म और दर्शन का उद्देश्य है आत्मा को पुद्गल (प्रकृति) के मिश्रण से मुक्त कर उसको कैवल्य (केवल= शुद्ध आत्मा) की स्थिति में पहुँचाना। कैवल्य की स्थिति में कर्म के बन्धन टूट जाते हैं और आत्‍मा अपने को पुद्गल के अवरोधक बन्धनों से मुक्त करने में समर्थ होता है। इसी स्थिति को मोक्ष भी कहते हैं, जिसमें वेदना औऱ दुःख पूर्णतः समाप्त हो जाते हैं और आत्मा चिरन्तन आनन्द की दशा में पहुँच जाता है। मोक्ष की यह कल्पना वेदान्ती कल्पना से भिन्न है। वेदान्त के अनुसार मोक्षावस्था में आत्मा का ब्रह्म में विलय हो जाता है, किन्तु जैन धर्म के अनुसार आत्मा का व्यक्तित्व कैवल्य में भी सुरक्षित और स्वतन्त्र रहता है। आत्मा स्वभावतः निर्मल और प्रज्ञ है, किन्तु पुद्गल के सम्पर्क के कारण उत्पन्न अविद्या से भ्रमित हो कर्म के बन्धन में पड़ता है। कैवल्य के लिए नय के द्वारा 'केवल ज्ञान' प्राप्त करना आवश्यक है। इसके साधन हैं--(1) सम्यक् दर्शन (तीर्थङ्करों में पूर्ण श्रद्धा) (2) सम्यक् ज्ञान (शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान) (3) सम्यक् चारित्र्य (पूर्ण नैतिक आचरण)। जैन धर्म बिना किसी बाहरी सहायता के अपने पुरुषार्थ द्वारा पारमार्थिक कल्याण प्राप्त करने का मार्ग बतलाता है। भारतीय धर्म और दर्शन को इसने कई प्रकार से प्रभावित किया। ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में अपने नय सिद्धान्त द्वारा न्याय और तर्कशास्त्र को पुष्ट किया। तत्त्वमीमांसा में आत्मा और प्रकृति को ठोस आधार प्रदान किया। आचारशास्त्र में नौतिक आचरण, विशेष कर अहिंसा को इससे नया बल मिला।

जैमिनि
स्वतन्त्र रूप से 'जैमिनि' का नाम सूत्रकाल तक नहीं पाया जाता, किन्तु कुछ वैदिक ग्रन्थों के विशेषण रूप में प्राप्त होता है। यथा सामवेद की 'जैमिनीय संहिता', जिसका सम्पादन कैलेण्ड द्वारा हुआ है, 'जैमिनीय ब्राह्मण' जिसका एक अंश जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण है।
इनका काल लगभग चतुर्थ अथवा पञ्चम शताब्दी ई० पू० है। ये 'पूर्वमीमांसा सूत्र' के रचयिता तथा मीमांसा दर्शन के संस्थापक थे। ये बादरायण के समकालीन थे क्योंकि मीमांसादर्शन के सिद्धान्तों का ब्रह्मसूत्र में और ब्रह्मसूत्र के सिद्धान्तों का मीमांसादर्शन में खण्डन करने की चेष्टा की गयी है। मीमांसादर्शन ने कहीं-कहीं पर ब्रह्मपुत्र के कई सिद्धान्तों को ग्रहण किया है। पुराणों में ऐसा वर्णन मिलता है कि जैमिनि वेदव्यास के शिष्य थे, इन्होंने वेदव्यास से सामवेद एवं महाभारत की शिक्षा पायी थी। मीमांसादर्शन के अतिरिक्त इन्होंने भारतसंहिता की, जिसे जैमिनिभारत भी कहते हैं, रचना की थी। इन्होंने द्रोणपुत्रों से मार्कण्डेय पुराण सुना था। इनके पुत्र का नाम सुमन्तु और पौत्र का नाम सत्वान था। इन तीनों पिता-पुत्र-पौत्र ने वेदमंत्रों की एक-एक संहिता (संस्करण) बनायी, जिनका अध्ययन हिरण्यनाभ, पौष्यञ्जि और आवन्त्य नाम के तीन शिष्यों ने किया।

जैमिनिभारत
जैमिनिभारत या जैमिनियाश्वमेध मूलतः संस्कृत भाषा में है, जिसका एक अनुवाद कन्नड़ लक्ष्मीशदेवपुर ने 1760 ई० में किया। इसमें युधिष्ठिर के अश्वमेधयज्ञीय अश्व द्वारा भारत के एक राज्य से दूसरे राज्य में घूमने का वर्णन है। किन्तु इसका मुख्य उद्देश्य भगवान् कृष्ण का यश वर्णन करना है।

जैमिनिश्रौतसूत्र
सामवेद से सम्बन्धित एक सूत्र ग्रन्थ, जो वैदिक यज्ञों का विधान करता है।

जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण
ताण्ड्य और तलवकार शाखाएँ सामवेद के अन्तर्गत हैं। उनमें जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण दूसरी शाखा से सम्बन्धित है। इसका अन्य नाम तलवकार उपनिषद् ब्राह्मण भी है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह ग्रन्थ प्रारम्भिक छः उपनिषदों में गिना जाना चाहिए।

जैमिनीय न्यायमालाविस्तर
जैमिनीय न्यायमाला तथा जैमिनीय न्यायमालाविस्तार एक ही ग्रन्थ है। इसे विजयनगर राज्य के मन्त्री माधवाचार्य ने रचा है। मीमांसा दर्शन की पूर्णरूपेण व्याख्या इस ग्रन्थ में हुई है। न्यायमाला जैमिनिसूत्रों के एक-एक प्रकरण को लेकर श्लोकबद्ध कारिकाओं के रूप में है, विस्तर उसकी विवरणात्मक व्याख्या है। यह पूर्व मीमांसा का प्रमुख ग्रन्थ है। इसकी उपादेयता इसके छन्दोबद्ध होने के कारण भी है।

जैमिनीय ब्राह्मण
कृष्ण यजुर्वेद का ब्राह्मण भाग मन्त्रसंहिता के साथ ही ग्रथित है। उसके अतिरिक्त छः ब्राह्मणग्रन्थ पृथक् रूप से यज्ञ सम्बन्धी क्रियाओं के लिए महत्वपूर्ण हैं। वे हैं ऐतरेय, कौषीतकि, पञ्चविंश, तलवकार अथवा जैमिनीय, तैत्तिरीय एवं शतपथ। इस प्रकार जैमिनीय ब्राह्मण कर्मकाण्ड का प्रसिद्ध ग्रन्थ है।

जैमिनीय शाखा
सामसंहिता की तीन मुख्य शाखाएँ बतायी जाती हैं-- कौथुमीय, जैमिनीय एवं राणायनीय शाखा। जैमिनीय शाखा का प्रचार कर्णाटक में अधिक है।


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