यह शब्द ऋग्वेद की तीन ऋचाओं में उद्धृत है। इससे एक दानव का बोध होता है जिसे अग्नि ने हराया था। लुडविग तथा ग्रिफिथ ने 'जरूथ' को देवशत्रु बताया है, जो उस युद्ध में मारा गया, जिसमें ऋग्वेद के सप्तम मण्डल के परम्परागत रचयिता वसिष्ठ पुरोहित थे।
जल
पुरुषसूक्त के 13वें मन्त्र (पद्भ्यां भूमिः) के अनुसार पृथ्वी के परमाणुकारणस्वरूप से विराट् पुरुष ने स्थूल पृथिवी उत्पन्न की तथा जल को भी उसी कारण से उत्पन्न किया। 17वें मंत्र में कहा गया है कि उस परमेश्वर ने अग्नि के परमाणु के साथ जल के परमाणुओं को मिलाकर जल को रचा।
धार्मिक क्रियाओं में जल का विशेष स्थान है। जल वरुण देवता का निवास और स्वयं भी देवता होने से पवित्र करने वाला माना जाता है। इसलिए प्रत्येक धार्मिक कृत्य में स्नान, अभिषेक अथवा आचमन के रूप में इसका उपयोग होता है।
जलकृच्छ्र व्रत
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को इस कृच्छ्र व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। इसमें विष्णु पूजन का विधान है। जल में रहते हुए उपवास करना चाहिए। इससे विष्णुलोक की प्राप्ति होती है।
जल जातूकर्ण्य
जातूकर्ण्य के वंशज। इनका शांखायन श्रौत्रसूत्र (16.29.7) में काशी, विदेह एवं कोसल के राजाओं के पुरोहित अथवा गृहपुरोहित के रूप में उल्लेख हुआ है।
जहका
यह यजुर्वेद में अश्वमेध के एक बलिपशु के रूप में उद्धृत किया गया है। सायण ने इसे 'बिलवासी क्रोष्टा' बिल में रहने वाला शृगाल कहा है।
जाग्रद्गौरीपञ्चमी
श्रावण शुक्ल पञ्चमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इससे सर्पभय दूर होता है। इसमें रात्रिजागरण का विधान है। गौरी इसकी देवता हैं।
जातकर्म
गृह्य संस्कारों में से एक संस्कार। यह जन्म के समय नाल काटने के पहले सम्पन्न होना चाहिए। इसमें रहस्यमय मन्त्र पढ़े जाते हैं तथा शिशु को मधु और मक्खन चटाया जाता है। इसके तीन प्रमुख अङ्ग हैं : प्रज्ञाजनन (बुद्धि को जागृत करना), आयुष्य (दीर्घ आयु के लिए प्रार्थना) और शक्ति के लिए कामना। यह संस्कार शिशु का पिता ही करता है। वह शिशु को सम्बोधित करते हुए कहते हैं :
अङ्गाद् अङ्गात् संभवसि हृदयादधिजायसे। आत्मा वै पुत्र नामासि स जीव शरदः शतम्।।
[अङ्ग-अङ्ग से तुम्हारा जन्म हुआ है, हृदय से तुम उत्पन्न हो रहे हो। पुत्र नाम से तुम मेरे ही आत्मा हो। सौ वर्ष तक जीवित रहो।] फिर शिशु की शक्ति वृद्धि के लिए कामना करता है :
अश्मा भव, परशुर्भव, हिरण्यमस्रुतं भव।
[पत्थर के समान दृढ़ हो, परशु के समान शत्रुओं के लिए ध्वंसक बनो, शुद्ध सोने के समान पवित्र रहो।]
जातरूप
जाति के सौन्दर्य को रखनेवाला, स्वर्ण का एक नाम, जिसका उल्लेख परवर्ती ब्राह्मणों एवं सूत्रों में हुआ है। धार्मिक क्रियाओं में इसका प्रायः उपयोग होता है। बहुमूल्य होने के साथ यह पवित्र धातु भी है।
जाति
इसका मूल अर्थ है जन्म अथवा उत्पत्ति की समानता। कहीं-कहीं प्रजाति, परिवार अथवा वंश के लिए भी इसका प्रयोग होता है। हिन्दुओं की यह एक विशेष संस्था है, जो वर्णव्यवस्था (समाज के चार वर्गों में विभाजन) से भिन्न है। इसके आधार जन्म और व्यवसाय हैं तथा समान भोजन, विवाह आदि प्रथाएँ हैं; जब कि वर्ण का आधार प्रकृति के आधार पर कर्तव्य का चुनाव और तदनुकूल वृत्ति (शील और आचार) हैं। प्रत्येक जाति का आचार परम्परा से निश्चित है जिसको धर्मशास्त्र और विधि मान्यता देते हैं। तीन प्रकार के आचारों-- देशाचार, जात्याचार तथा कुलाचार-- में से एक जात्याचार भी है।
महाभारत में 'जाति' शब्द का प्रयोग मनुष्य मात्र के अर्थ में किया गया है। नहुषोपाख्यान में युधिष्ठिर का कथन है :
जातिरत्र महासर्प मनुष्यत्वे महामते। संकरत्वात् सर्ववर्णानां दुष्पपरीक्ष्येति में मतिः।। सर्वे सर्वास्वपत्यानि जनयन्ति सदा नराः। तस्माच्छीलं प्रधानेष्टं विदुर्ये तत्त्वदर्शिनः।।
[हे महामति सर्प (यक्ष=नहुष)! 'जाति' का प्रयोग यहाँ मनुष्यत्व मात्र में किया गया है। सभी वर्णों (जातियों) का इतना संकर (मिश्रण) हो चुका है कि किसी व्यक्ति की (मूल) जाति की परीक्षा कठिन है। सभी जातियों के पुरुष सभी (जाति की) स्त्रियों से सन्तान उत्पन्न करते आये हैं। इसीलिए तत्त्वदर्शी पुरुषों ने शील को ही प्रधान माना है (जाति को नहीं)।]
जातित्रिरात्रव्रत
ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी से तीन दिन तक इस व्रत का अनुष्ठान होता है। द्वादशी को एकभक्त (एक समय भोजन) रहना चाहिए। त्रयोदशी के बाद तीन दिन उपवास का विधान है। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवजी की गणों सहित भिन्न-भिन्न पुष्पों तथा फलों से पूजा करनी चाहिए। यव, तिल तथा अक्षतों से होम करना चाहिए। सती अनसूया ने इसका आचरण किया था, अतएव तीनों देवताओं ने शिशु रूप से उनके यहाँ जन्म लिया।