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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

चित्रदीप
विद्यारण्य स्वामी द्वारा विरचित पञ्चदशी अद्वैत वेदान्त का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसके चित्रदीप नामक प्रकरण में उन्होंने चेतन के विषय में कहा है कि घटाकाश, महाकाश, जलाकाश एवं मेघाकाश के समान कूटस्थ, ब्रह्म, जीव और ईश्वर-भेद से चेतन चार प्रकार का है। व्यापक आकाश का नाम महाकाश है, घटावच्छिन्न आकाश को घटाकाश कहते हैं, घट में जो जल है उसमें प्रतिबिम्बित होनेवाले आकाश को जलाकाश कहते हैं और मेघ के जल में प्रतिबिम्बित होनेवाले आकाश का नाम मेघाकाश है। इन्हीं के समान जो अखण्ड और व्यापक शुद्ध चेतन है उसका नाम ब्रह्म है, देहरूप उपाधि से परिच्छिन्न चेतन को कूटस्थ कहते हैं, देहान्तर्गत अविद्या में प्रतिबिम्बित चेतना का नाम जीव है और माया में प्रतिबिम्बित चेतन को ईश्वर कहते हैं।

चित्रपुट
अप्पय दीक्षितकृत मीमांसाविषयक ग्रन्थों में से एक चित्रपुट है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है।

चित्रभानुव्रत
शुक्ल पक्ष की सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। रक्तिम सुगन्धित पुष्पों से तथा घृतधारा से सूर्य का पूजन होता है। इससे अच्छे स्वास्थ्य की उपलब्धि होती है।

चित्रभानुपदद्वयव्रत
उत्तरायण के प्रारम्भ से अन्त तक इसका अनुष्ठान होता है। यह अयन व्रत है। इसमें सूर्य की पूजा होती है।

चित्रमीमांसा
अप्पय दीक्षितकृत अलङ्कार शास्त्र-विषयक ग्रन्थ। इसमें अर्थचित्र का विचार किया गया है। इसका खण्डन करने के लिए पण्डितराज जगन्नाथ ने 'चित्रमीमांसा खण्डन' नामक ग्रन्थ की रचना की।

चित्रमीमांसाखण्डन
पण्डितराज जगन्नाथकृत यह ग्रन्थ अप्पय दीक्षित कृत 'चित्रमीमांसा' नामक अलङ्कार शास्त्र विषयक ग्रन्थ के खण्डनार्थ लिखा गया है।

चित्रशिखण्डी ऋषि
सप्त ऋषियों का सामूहिक नाम। पाञ्चरात्र शास्त्र सात चित्रशिखण्डी ऋषियों द्वारा सङ्कलित है, जो संहिताओं का पूर्ववर्ती एवं उनका पथप्रदर्शक है। इन ऋषियों ने वेदों का निष्कर्ष निकालकर पाञ्चरात्र नाम का शास्त्र तैयार किया। ये सप्तर्षि स्वायम्भुव मन्वन्तर के मरीचि, अङ्गिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ हैं। इस शास्त्र में धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों पुरुषार्थों का विवेचन है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अङ्गिरा ऋषि के अथर्ववेद के आधार पर इस ग्रन्थ में प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्गों की चर्चा है। दोनो मार्गों का यह आधारस्तम्भ है। नारायण का कथन है-- "हरिभक्त वसुराज उपरिचर इस ग्रन्थ को बृहस्पति से सीखेगा और उसके अनुसार चलेगा, परन्तु इसके पश्चात् यह ग्रन्थ नष्ट हो जायगा।" चित्रशिखण्डी ऋषियों का यह ग्रन्थ आजकल उपलब्ध नहीं है।
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चित्सुखाचार्य
आचार्य चित्सुख का प्रादुर्भाव तेरहवीं शताब्दी में हुआ था। उन्होंने 'तत्त्वप्रदीपिका' नामक वेदान्त ग्रन्थ में न्यायलीलावतीकार वल्लभाचार्य के मत का खण्डन किया है, जो बारहवीं शताब्दी में हुए थे। उस खण्डन में उन्होंने श्रीहर्ष के मत को उद्धृत किया है, जो इस शताब्दी के अन्त में हुए थे। उनके जन्मस्थान आदि के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता। उन्होंने 'तत्त्वप्रदीपिका' के मङ्गलाचरण में अपने गुरु का नाम ज्ञानोत्तम लिखा है।
जिन दिनों इनका आविर्भाव हुआ था, उन दिनों न्यायमत (तर्कशास्त्र) का जोर बढ़ रहा था। द्वादश शताब्दी में श्रीहर्ष ने न्यायमत का खण्डन किया था। तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ में गङ्गेश ने श्रीहर्ष के मत को खंडित कर न्यायशास्त्र को पुनः प्रतिष्ठित किया। दूसरी ओर द्वैतवादी वैष्णव आचार्य भी अद्वैत मत का खण्डन कर रहे थे। ऐसे समय में चित्सुखाचार्य ने अद्वैतमत का समर्थन और न्याय आदि मतों का खण्डन करके शाङ्कर मत की रक्षा की। उन्होंने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए 'तत्त्व प्रदीपिका', 'न्यायमकरन्द' की टीका और 'खण्डनखण्डखाद्य' की टीका लिखी। अपनी प्रतिभा के कारण चित्सु खाचार्य ने थोड़े ही समय में बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली। चित्सुख भी अद्वैतवाद के स्तम्भ माने जाते हैं। परवर्ती आचार्यों ने उनके वाक्यों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है।

चित्‍सुखी
चित्सुखाचार्य द्वारा रचित 'तत्त्वप्रदीपिका' का दूसरा नाम 'चित्सुखी' है। यह अद्वैत वेदान्त का समर्थक, उच्चकोटि का दार्शनिक ग्रन्थ है।

चिता
मृतक के दाहसंस्कार के लिए जोड़ी हुई लकड़ियों का समूह। गृह्यसूत्रों में चिताकर्म का पूरा विवरण पाया जाता है।


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