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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

चान्द्रायण व्रत
(1) ब्रह्मपुराणोक्त यह व्रत पौष मास की शुक्ल चतुर्दशी को मनाया जाता है। शास्त्र में एक और चान्द्रायण व्रत का विधान है। चन्द्रमा के ह्रास के साथ आहार के ग्रासों में ह्रास और वृद्धि के साथ वृद्धि करके एक महीने में यह व्रत पूरा किया जाता है। उद्देश्य पापमोचन है। घोर अपराधों के प्रायश्चित रूप में यह व्रत किया जाता है।
(2) यह व्रत पूर्णिमा के दिन आरम्भ होता है। एक मास तक इसका आचरण करना चाहिए। प्रत्येक दिन तर्पण तथा होम का विधान है।

चामुण्डा
(1) शिवपत्नी रुद्राणी के अनेक नाम हैं, यथा देवी, उमा, गौरी, पार्वती, दुर्गा, भवानी, काली, कपालिनी एवं चामुण्डा। दूसरे देवों की देवियों (पत्नियों) के विपरीत इन्हें धार्मिक आचारों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है तथा शिव से कुछ ही कम महत्व इनका है। इनको पति के समान स्थान शिव के युगल (अद्वैत) रूप अर्द्धनारीश्वर में प्राप्त होता है, जिसमें दक्षिण भाग शिवका एवं वाम देवी का है। देवी के अनेक नामों एवं गुणों (दयालु, भयानक, क्रूर एवं अदम्य) से यह प्रतीत होता है कि शिव के समान ये भी अनेक दैवी शक्तियों के संयोग से बनी हैं।
(2) मैसूर (कर्नाटक) में चामुण्डा का प्रसिद्ध मन्दिर है जहाँ बहुसंख्यक यात्री पूजा के लिए जाते हैं।
(3) चण्ड और मुण्ड नामक राक्षसों के बध के लिए दुर्गा से चामुण्डा की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, इसका वर्णन मार्कण्डेयपुराण में इस प्रकार पाया जाता है: अम्बिका (दुर्गा) के क्रोध से कुञ्चित ललाट से एक काली और भयंकर देवी उत्पन्न हुई। इसके हाथ में खड्ग और पाश तथा नरमुण्ड से अलंकृत विशाल गदा थी। वह शुष्क, जीर्ण तथा भयानक हस्तिचर्म पहने हुए थी। मुख फैला हुआ और जिह्वा लपलपाती थी। उसकी आँखे रक्तिम और उसके भयंकर शब्द से आकश भर रह था।` इस देवी ने दोनों राक्षसों का वध करके उनके शिरों को दुर्गा के सम्मुख अर्पित किया। दुर्गा ने कहा, `तुम दोनों राक्षसों के संकुचित समस्त नाम `चामुण्डा` से प्रसिद्ध होगी।`

चामुण्डातन्त्र
आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत तन्त्रों में से एक तन्त्र 'चामुण्डातन्त्र' है। इसमें चामुण्डा के स्वरूप तथा पूजाविधि का सविस्तार वर्णन है।

चारायणीय काठकधर्मसूत्र
कृष्ण यजुर्वेद की एक प्राचीन शाखा 'चारायणीय काठक' है। इस शाखा के धर्मसूत्र से विष्णुस्मृति के गद्यसूत्रों की सामग्री ली गयी ज्ञात होती है। किन्तु कुछ नियम बदले और कुछ नये भी जोड़े गये हैं।

चार्वाक
नास्तिक (वेदबाह्य) दर्शन छः हैं---चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभापिक एवं आर्हत। इन सबमें वेद से असम्मत सिद्धान्तों का प्रतिपादन है। इनमें से चार्वाक अवैदिक और लोकायत (भौतिकवादी) दोनों हैं।
चार्वाक केवल प्रत्यक्षवादी है, वह अनुमान आदि अन्य प्रमाणों को नहीं मानता। उसके मत से पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार ही तत्त्व हैं, जिनसे सब कुछ बना है। उसके मत में आकाश तत्त्व की स्थिति नहीं है। इन्हीं चारों तत्त्वों के मेल से यह देह बनी है। इनके विशेष प्रकार के संयोजन मात्र से देह में चैतन्य उत्पन्न हो जाता है, जिसको लोग आत्मा कहते हैं। शरीर जब विनष्ट हो जाता है तो चैतन्य भी नष्ट हो जाता है। इस प्रकार जीव इन भूतों से उत्पन्न होकर इन्ही भूतों में नष्ट हो जाता है। अतः चैतन्यविशिष्ट देह ही आत्मा है। देह से अतिरिक्त आत्मा होने का कोई प्रमाण नहीं है। उसके मत से स्त्री-पुत्रादि के आलिङ्गन से उत्पन्न सुख पुरुषार्थ है। संसार में खाना, पीना और सुख से रहना चाहिए :
यावज्जीवेत् सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।
[जब तक जीना चाहिए सुखपूर्वक जीना चाहिए; यदि अपने पास साधन नहीं है तो दूसरों से ऋण लेकर भी मौज करना चाहिए। श्मशान में शरीर के जल जाने पर किसने उसको लौटते हुए देखा है?] परलोक वा स्वर्ग आदि का सुख पुरुषार्थ नहीं है, क्योंकि ये प्रत्यक्ष नहीं हैं। इसके अनुसार जो लोग परलोक के स्वर्गसुख के अमिश्र शुद्ध सुख मानते हैं वे आकाश में प्रासाद रचते हैं, क्योंकि परलोक तो है ही नहीं। फिर उसका सुख कैसा? उसे प्राप्त करने के यज्ञादि उपाय व्यर्थ हैं। वेदादि धूर्तों और स्वार्थियों की रचनायें हैं (त्रयो वेदस्य कर्तारः धूर्त-भाण्ड-निशाचराः), जिन्होंने लोगों से धन पाने के लिए ये सब्जबाग दिखाये हैं। यज्ञ में मारा हुआ पशु यदि स्वर्ग को जायेगा तो यजमान अपने पिता को ही उस यज्ञ में क्यों नहीं मारता? मरे हुए प्राणियों की तृप्ति का साधन यदि श्राद्ध होता है तो विदेश जाने वाले पुरुषों के राहखर्च के वास्ते वस्तुओं को ले जाना भी व्यर्थ है। यहाँ किसी ब्राह्मण को भोजन करा दे या दान दे दे, जहाँ रास्ते में आवश्यक होगा वहीं वह वस्तु उसको मिल जायगी।
जगत् में मनुष्य प्रायः दृष्ट फल के अनुरागी होते हैं। नीतिशास्त्र और कामशास्त्र के अनुसार अर्थ व काम को ही पुरुषार्थ मानते हैं। पारलौकिक सुख को प्रायः नहीं मानते। कहते हैं कि किसने परलोक वा वहाँ के सुख को देखा है? यह सब मनगढ़न्त बातें हैं, सत्य नहीं हैं। जो प्रत्यक्ष है वही सत्य है। इस मत का एक दूसरा नाम, जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, लोकायत भी है। इसका अर्थ हे 'लोक में स्थित' लोकों-जनों में आयत फैला हुआ मत ही लोकायत है। अर्थात अर्थ काम को ही पुरुषार्थ मानने वाले मनुष्यों में यह मत फैला हुआ है।
यद्यपि चार्वाक का नाम प्रसिद्ध नहीं है तथापि उसका मत और उसका तर्क बहुत फैले हुए व्यापक हैं। पाश्चात्य देशों में इस प्रकार का तर्क मानने वाले बहुत लोग हैं। यह मत आधुनिक द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से मिलता जुलता है, केवल तर्क और युक्ति पर आधारित है। परवर्ती दार्शनिक सम्प्रदायों के ऊपर इसके आघात का यह प्रभाव हुआ कि इन सम्प्रदायों ने अपने तर्कपक्ष को पर्याप्त विकसित किया, जिससे वे इसके आक्षेपों का उत्तर दे सकें और इसका खण्डन कर सकें। चार्वाकदर्शन सम्प्रदाय के रूप में भारत में बहुत प्रचलित नहीं हुआ। (पूर्ण विवरण के लिए दे० 'सर्वदर्शनसंग्रह', प्रथम अध्याय।)

चार्वाकदर्शन
दे० 'चार्वाक'।

चित्त
पतञ्जलि के अनुसार मन, बुद्धि और अहंकार तीनों से मिलकर चित्त बनता है। चित्त की पाँच वृत्तियाँ होती हैं-- प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति। चित्त की क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, निरुद्ध एवं एकाग्र ये पाँच प्रकार की भूमियाँ होती हैं। आरम्भ की तीन चित्तभूमियों में योग नहीं हो सकता, केवल अन्तिम दो में हो सकता है।
चित्तवृत्तियों के निरोध का ही नाम योग है। पतञ्जलि ने अष्टाङ्गयोग का वर्णन किया है। ये आठ अंग हैं-- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। योग का अंतिम चरण समाधि है। इसका उद्देश्य है चित्त के निरोध से आत्मा का अपने स्वरूप में लय।

चित्तौड़गढ़
इसका प्राचीन नाम चित्रकूट था। यहाँ पहले पाशुपत पीठ था। मेदपाट के सिसौदिया वंश के राणाओं के समय में इसकी बड़ी प्रतिष्ठा बढ़ी। पुराने उदयपुर राज्य का यह यशस्‍वी दुर्ग है। यह भारत का महान् ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक तीर्थ है। यहाँ का कण-कण मातृभूमि की रक्षा के लिए तथा हिन्दुत्व के गौरव की रक्षा के लिए रक्तसिञ्चित है। दुर्ग के भीतर महाराणा प्रताप का जन्मस्थान, रानी पद्मिनी, पन्ना धाय तथा मीराबाई के महल, कीर्तिस्तम्भ, जयस्तम्भ, जटाशंकर महादेव का मन्दिर, गोमुख कुण्ड, रानी पद्मिनी तथा अन्य राजपूत वीराङ्गनाओं की विस्तृत चिताभूमि, काली माता का मन्दिर आदि दर्शनीय स्थान हैं।

चित्रकूट
यह उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले में करवी स्टेशन के पास पयस्विनी के तट पर स्थित अति रम्य स्थान है। चित्रकूट का सबसे बड़ा माहात्म्य यह है कि भगवान् राम ने वनवास के समय यहाँ निवास किया था। चित्रकूट सदा से तपोभूमि रहा है। महर्षि अत्रि-अनसूया का यहाँ आश्रम है, जहाँ से मध्य प्रदेश लग जाता है। यहाँ तपस्वी, भगवद्भक्त, विरक्त महापुरुष सदा रहते आये हैं।

चित्रगुप्तपूजा
यमद्वितीया को प्रातःकाल सवेरे चित्रगुप्त आदि चौदह यमों की पूजा होती है। इसके बाद बहिनों के घर भाई के भोजन करने की प्रथा बहुत पुरानी है। इस दिन बहिनें शाप के व्याज से भाई को आशीर्वाद देती हैं। शाप देने का उद्देश्य यमराज को धोखा देना है। शाप से भाई को मरा हुआ जानकर वह उस पर आक्रमण नहीं करता।
कायस्थों का यह विश्वास है कि चित्रगुप्त उनके पूर्वज हैं। अतः इस दिन वे उनकी विधिवत् पूजा करता हैं। चित्रगुप्त यमराज के लेखक माने जाते हैं, अतः उनकी कलम-दावात की भी पूजा होती है।


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