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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

चण्डमारुतटीका
दे० 'चण्डमारुत'।

चण्डमारुत महाचार्य
विशिष्टाद्वैत सम्बन्धी 'चण्डमारुत' नामक टीका के रचयिता। यह टीका वेदान्तदेशिकाचार्य वेङ्कटनाथ की 'शतदूषणी' के ऊपर रचित है।

चण्डा
भयंकर अथवा क्रुद्ध। यह दुर्गा का एक विरुद है। असुरदलन में दुर्गा यह रूप धारण करती हैं।

चण्डाल (चाण्डाल)
वर्णसंकर जातियों में से निम्न कोटि की एक जाति। चण्डाल शूद्र पिता और ब्राह्मण माता से उत्पन्न माना जाता है। परन्तु वास्तव में यह अन्त्यज जाति है जिसका सभ्य समाज के साथ पूरा सपिण्डीकरण नहीं हुआ। अतः यह बस्तियों के बाहर रहती औऱ नगर के कूड़े-कर्कट, मल-मूत्र आदि साफ करती है। इसमें भक्ष्या-भक्ष्य और शुचिता का विचार नहीं है। चण्डालों की घोर आकृति, कृष्ण वर्ण और लाल नेत्रों का वर्णन साहित्यिक ग्रन्थों में पाया जाता है। मृत्युदण्ड में अपराधी का बध इन्हीं के द्वारा होता था।

चण्डी (चण्डिका)
दुर्गा देवी। काली के समान ही दुर्गा देवी का सम्प्रदाय है। वे कभी-कभी दयालु रूप में एवं प्रायः उग्र रूप में पूजी जाती हैं। दयालु रूप में वे उमा, गौरी पार्वती अथवा हैमवती, जगन्माता तथा भवानी कहलाती हैं; भयावने रूप में वे दुर्गा, काली अथवा श्यामा, चण्डी अथवा चण्डिका, भैरवी आदि कहलाती हैं। आश्विन और चैत्र के नवरात्र में दुर्गापूजा विशेष समारोह से मनायी जाती है। देवी की अवतारणा मिट्टी के एक कलश में की जाती है। मन्दिर के मध्य का स्थान गोबर व मिट्टी से लीपकर पवित्र बनाया जाता है। घट में पानी भरकर, आम्रपल्लव से ढककर उसके ऊपर मिट्टी का ही एक ढकना, जिसमें जौ और चावल भरा रहता है तथा जो एक पीले वस्त्र से ढका होता है, रखा जाता है। पुरोहित मन्त्रोचारण करता हुआ, कुश से जल उठाकर कलश पर तथा उसके उपादानों पर छिड़कता है तथा देवी का आवाहन घट में करता है। उनके आगमन को मान्यता देते हुए एक प्रकार की लाल-धुलि (रोली) घट के बाहर चारों ओर छिड़कते हैं। इस पूजाविधि के मध्य में पुरोहित केवल फल-मूल ही ग्रहण करता है। पूजा का अन्त अग्नि में यज्ञ (होम) से होता है, जिसमें जौ, चीनी, घृत एवं तिल का व्यवहार होता है। यह हवन घट के सामने होता है, जिसमें देवी का वास समझा जाता है। यज्ञ की राख एवं कलश की लाल धूलि पुजारी यजमान के घर लाता है तथा उनके सदस्यों के ललाट पर लगाता है और इस प्रकार वे देवी के साथ एकाकारता प्राप्त करते हैं। भारत के विभिन्न भागों में चण्डी की पूजा प्रायः इसी प्रकार से होती है।

चण्डिकाव्रत
कृष्ण तथा शुक्ल पक्षों की नवमी को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। एक वर्ष तक इसका आचरण होना चाहिए। इसमें चण्डिका के पूजन का विधान है। इस दिन उपवास करना चाहिए।

चण्डीदास
बङ्गाल में चण्डीदास भगवद्भक्त कवि हो गये हैं। बँगला में इनके रचे भक्तिरसपूर्ण भजन तथा कीर्त्तन बहुत व्यापक औऱ प्रचलित हैं। इनका जीवनकाल लगभग 1380 से 1420 ई० तक माना जाता है। बँगला भाषा में राधा-कृष्ण विषयक अनेक सुन्दर भजन इनके रचे हुए पाये जाते हैं।

चण्डीमङ्गल
मुकुन्दराम द्वारा बँगला में लिखित 'चण्‍डीमङ्गल' चण्डीपूजा की एक काव्यमय पद्धति देता है। यह शाक्तों में बहुत प्रचलित है।

चण्डीमाहात्म्य
चण्डीमाहात्म्य को देवीमाहात्म्य भी कहते हैं। हरिवंश के कुछ श्लोकों एवं मार्कण्डेयपुराण के एक अंश से यह माहात्म्य गठित है। इसका रचना काल छठी शताब्दी है, क्योंकि बाणरचित चण्डीशतक इसी ग्रन्थ पर आधारित है। चण्डीमाहात्म्य के अनेक अनुवाद तथा इस पर आधारित अनेक भजन बँगला शाक्तों द्वारा लिखे गये हैं।

चण्डीशतक
बाणभट्ट द्वारा रचित चण्डीशतक सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध का साहित्यिक ग्रन्थ है। यह 'चण्डीमाहात्म्य' पर आधारित है। इसमें देवी की स्तुति 100 श्लोकों में हुई है। विविध भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है।


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