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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

चैतन्यचन्द्रोदय
सं० 1625 वि० के लगभग बङ्गाल में धार्मिक नवजागरण हुआ तथा महाप्रभु कृष्ण चैतन्य के जीवनवृत्तान्त पर भी कतिपय ग्रन्थ कुछ वर्षों में रचे गये। 'चैतन्यचन्द्रोदय' उनमें से एक है। यह कवि कर्णपूर द्वारा रचित संस्कृत नाटक है। इसका नाम 'प्रबोधचन्द्रोदय' नामक आध्यात्मिक नाटक के अनुसार रखा गया प्रतीत होता है।

चैतन्यचरित
मुरारि गुप्त रचित यह महाप्रभु कृष्ण चैतन्य की जीवनलीला का संस्कृत में वर्णन है। इसकी रचना सं० 1629 वि० में हुई थी।

चैतन्यचरितामृत
बँगला भाषा में कृष्णदास कविराज कृत महाप्रभु कृष्ण चैतन्य के जीवन से सम्बन्धित यह एक काव्य ग्रन्थ है। रचनाकाल सं० 1638 वि० है। इसे कविराज ने नौ वर्षों के परिश्रम से उत्तर प्रदेशस्त वृन्दावन (राधाकुण्ड) में तैयार किया था। यह ग्रन्थ बड़ा शिक्षापूर्ण है तथा चैतन्यजीवन पर सर्वोत्तम लोकप्रिय रचना है। इसे सम्प्रदाय के अनेक भक्त लोग कंठस्थ कर लेते हैं। श्री दिनेशचन्द्र सेन के मत से चैतन्य सम्प्रदाय के लिए यह ग्रन्थ बहुत प्रामाणिक और अति महत्त्व का है।

चैतन्यदैव
दे० 'कृष्ण चैतन्य'।

चैतन्यभागवत
महात्मा वृन्दावनदास रचित यह ग्रन्थ बँगला काव्य में चैतन्यदेव का सुन्दर जीवनचरित है। इसकी रचना सं० 1630 वि० में हुई।

चैतन्यमङ्गल
कविवर लोचनदास कृत यह ग्रन्थ भी चैतन्यजीवन का ही बंग भाषा में वर्णन करता है। इसकी रचना सं०1632 वि० में हुई।

चैतन्यसम्प्रदाय
(कृष्ण चैतन्य शब्द की व्याख्या में चैतन्य का जीवनवृत्तान्त देखिए।) चैतन्य की परमपद-प्राप्ति सं० 1590 वि० में हुई तथा 1590 से 1617 वि० तक बंगाल का वैष्णव सम्प्रदाय चैतन्य के वियोग से शोकाकुल रहा। साहित्यरचना तथा संगीत मृतप्राय से हो गये, किन्तु चैतन्य सम्प्रदाय जीवित रहा। नित्यानन्द ने इसकी व्यस्था सँभाली एवं चरित्र की नियमावली सबके समक्ष रखी। उनकी मृत्यु पर उनके पुत्र वीरचन्द्र ने पिता के कार्य को हाथ में लिया तथा एक ही दिन में 2500 बौद्ध संन्यासी तथा संन्यासिनियों को चैतन्य सम्प्रदाय में दीक्षित कर डाला। चैतन्‍य की मृत्यु के कुछ पूर्व से ही रूप, सनातन तथा दूसरे कई भक्त वृन्दावन में रहने लगे थे तथा चैतन्य सम्प्रदाय की सीमा बँगाल से बाहर बढ़ने लगी थी। चैतन्य के छः साथी--रूप, सनातन, उनके भतीजे जीव, रघुनाथदास, गोपाल भट्ट एवं रघुनाथ भट्ट 'गोस्वामी' कहलाते थे। 'गोस्वामी' से धार्मिक नेता का बोध होता था। ये लोग शिक्षा देते, पढ़ाते और दूसरे मतावलम्बियों को अपने सम्प्रदाय में दीक्षित करते थे। इन्होंने अपने सम्प्रदाय के धार्मिक नियमों से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ लिखे। भक्ति, दर्शन, उपासना, भाष्य, नाटक, गीत आदि विषयों पर भी उन्होंने रचना की। ये रचनाएँ सम्प्रदाय के दैनिक जीवन, पूजा एवं विश्वास आदि पर ध्यान रखते हुए लिखी गयी थीं।
उक्त गोस्वामियों के लिए यह बड़ा ही शुभ अवसर था कि उनके वृन्दावन-वास काल में अकबर बादशाह भारत का शासक था तथा उसकी धार्मिक उदारता के कारण इन्होंने अनेक मन्दिर वृन्दावन में बनवाये और अनेक राजपूत राजाओं से आर्थिक सहायता प्राप्त की।
सत्रहवीं शती के प्रारम्भिक 40 वर्षों में चैतन्य आन्दोंलन ने बंगाल में अनेक गीतकार उत्पन्न किये। उनमें सबसे बड़े गोविन्ददास थे। ज्ञानदास, बलरामदास, यदुनन्दन दास एवं राजा वीरहम्बीर ने भी अच्छे ग्रन्थों की रचना की।
अठारहवीं शती के आरम्भ में बलदेव विद्याभूषण ने वेदान्तसूत्र पर सम्प्रदाय के लिए भाष्य लिखा, जिसे उन्होंने 'गोविन्दभाष्य' नाम दिया तथा 'अचिन्त्य भेदाभेद' उसके दार्शनिक सिद्धान्त का नाम रखा।
चैतन्य सम्प्रदाय में जाति-पाँति का भेद नहीं है। कोई भी व्यक्ति इसका सदस्य हो सकता है, पूजा कर सकता है तथा ग्रन्थ पढ़ सकता है। फिर भी विवाह के नियम एवं ब्राह्मण के पुजारी होने का नियम अक्षुण्ण था। केवल प्रारम्भिक नेताओं के वंशज ही गोस्वामी कहलाते थे। इन्हीं नियमों से अनेक मठ एवं मन्दिरों की व्यवस्था होती थी।
चैतन्य दसनामी संन्यासियों में से भारती शाखा के संन्यासी थे। उनके कुछ साथियों ने भी संन्यास ग्रहण किया। किन्तु नित्यानन्द तथा वीरचन्द्र ने आधुनिक साधुओं के सरल अनुशासन को जन्म दिया, जिसके अन्तर्गत वैष्णव साधु वैरागी तथा वैरागिनी कहलाने लगे। ऐसा ही पहले स्वामी रामानन्द ने किया था। इस सम्प्रदाय में हजारों भ्रष्ट शाक्त, और बौद्ध आकर दीक्षित हुए। फलतः बहुत बड़ी अशुद्धता सम्प्रदाय में भी आ गयी। आजकल इस साधुशाखा का आचरण सुधर गया है।
इनके मन्दिरों में मुख्य मूर्तियाँ कृष्ण तथा राधा की होती हैं, किन्तु चैतन्य, अद्वैत तथा नित्यानन्द की मूर्तियों की भी प्रत्येक मन्दिर में स्थापना होती है। कही-कहीं तो केवल चैतन्य की ही मूर्ति रहती है। संकीर्तन इनका मुख्य धार्मिक एवं दैनिक कार्य है। कीर्तनीय (प्रधान गायक) मन्दिर के जगमोहन में करताल एवं मृदंग वादकों के बीच नाचता हुआ कीर्तन करता है। अधिकार 'गौरचन्द्रिका' का गायन एक साथ किया जाता है। संकीर्तन दल व्यक्तिगत घरों में भी संकीर्तन करता है।

चैत्र
इस मास के सामान्य कृत्यों के लिए देखिए कृत्यरत्नाकर, 83-144; निर्णयसिन्धु, 81-90। कुछ महत्त्वपूर्ण व्रतों का अन्यत्र भी परिगणन किया गया है। शुक्ल प्रतिपदा कल्पादि तिथि है। इस दिन से प्रारम्भ कर चार मास तक जलदान करना चाहिए। शुक्ल द्वितीया को उमा, शिव तथा अग्नि का पूजन होना चाहिए। शुक्ल तृतीया मन्वादि तिथि है। उसी दिन मत्स्यजयन्ती मनानी चाहिए। चतुर्थी को गणेशजी का लड्डुओं से पूजन होना चाहिए। पञ्चमी को लक्ष्मीपूजन तथा नागों के पूजन का भी विधान है। षष्ठी के लिए देखिए 'स्कन्द षष्ठी।' सप्तमी को दमनक पौधे से सूर्यपूजन की विधि है। अष्टमी को भवानीयात्रा होती है। इस दिन ब्रह्मपुत्र नदी में स्नान का महत्त्व है। नवमी को भद्रकाली की पूजा होती है। दशमी को दमनक पौधे से धर्मराज की पूजा का विधान है। शुक्ल एकादशी को कृष्ण भगवान् का दोलोत्सव तथा दमनक से ऋषियों का पूजन होता है। महिलाएँ कृष्णपत्नी रुक्मिणी का पूजन भी करती हैं तथा सन्ध्या काल में सभी दिशाओं मे पञ्चगव्य फेंकती हैं। द्वादशी को दमनकोत्सव मनाया जाता है। त्रयोदशी को कामदेव की पूजा चम्पा के पुष्पों तथा चन्दन लेप से की जाती है। चतुर्दशी को नृसिंहदोलोत्सव मनाया जाता है। दमनक पौधे से एकवीर, भैरव तथा शिव की पूजा की जाती है। पूर्णिमा को मन्वादि, हनुमज्जयन्ती तथा वैशाख स्नानारम्भ किया जाता है।

चौरासी पद
राधावल्लभ सम्प्रदाय के संस्थापक गोस्वामी हरिवंशजी ने तीन ग्रन्थ लिखे थे --- 'राधासुधानिधि', 'चौरासी पद' एवं 'स्फुट पद'। चौरासी पद का अन्य नाम 'हित चौरासी' भी है। हरिवंशजी का उपनाम 'हित' था जिसे उन्होंने इस ग्रन्थ के आरम्भ में जोड़ दिया है। इनका समय 1536 वि० के लगभग है। हितचौरासी तथा स्फुट पद दोनों ही व्रजभाषा में रचे गये हैं। 'हितजी' की उक्त रचनाएँ बडीं मधुर एवं राधाकृष्ण के प्रेमरस से परिपूर्ण हैं।

चौरासी वैष्णवन की वार्ता
वल्लभ सम्प्रदाय के अन्तर्गत व्रजभाषा में कुछ ऐसे ग्रन्थ हैं, जो कृष्णचरित्र सम्बन्धी कथाओं के प्रेमतत्त्व पर अधिक बल देते हैं। इनमें सबसे मुख्य गोस्वामी गोकुलनाथजी की संग्रहरचना "चौरासी वैष्णवन की वार्ता" है जो 1608 वि० सं० में लिखी गयी। इन वार्ताओं से अनेक भक्त कवियों के ऐतिहासिक कालक्रम निर्धारण में सहायता मिलती है।
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