डॉ० भण्डारकर ने अपने ग्रन्थ (वैष्णविज्म, शैविज्म एण्ड अदर माइनर सेक्टस ऑव इण्डिया) में इस मत के प्रारम्भिक विकास पर अच्छा प्रकाश डाला है। इस सम्प्रदाय का उदय छठी शताब्दी में हुआ कहा जाता है, किन्तु यह तिथि अनिश्चित ही है। गणपति देव की पूजा (स्तुति) का उल्लेख याज्ञवल्क्यस्मृति, मालतीमाधव तथा 8वीं व 9वीं शती के अभिलेखों में प्राप्त होता है। किन्तु इस मत का दर्शन 'वरदतापनीय' अथवा 'गणपतितापनीय' उपनिषदों में प्रथम उपलब्ध होता है। गणेश को अनन्त ब्रह्म कहा गया है तथा उनके सम्मान में एक राजसी मन्त्र नृसिंहतापनीय उप० में दिया गया है। इस मत की दूसरी उपनिषद् गणपति-उपनिषद् है, जो स्मार्तों के अथर्वशिरस् का एक भाग है। वैष्णव संहिताओं की तालिका में गणेशसंहिता का उल्लेख है जो इसी सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। अग्नि तथा गरुड पुराणों में इस देव की पूजा के निर्देश प्राप्त हैं, जो इस सम्प्रदाय से सम्बन्धित न होकर भागवतों या स्मार्तों की पञ्चायतनपूजा से सम्बन्धित हैं।
ईसा की दशम अथवा एकादश शताब्दी तक यह सम्प्रदाय प्रर्याप्त प्रचलित था तथा चौदहवीं शती में अवनत होने लगा। इस सम्प्रदाय का मन्त्र 'श्रीगणेशाय नमः' है तथा ललाट पर लाल तिलक का गोल चिह्न इस मत का प्रतीक है। सम्प्रदाय की उपनिषदों के सिवा इस मत का प्रतिनिधि एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है 'गणेशपुराण' जिसमें गणेश की विभूतियों का वर्णन है और उनके कोढ़ विमोचन की चर्चा है। इस मत के धार्मिक आचरणों के अतिरिक्त गणेश के हजारों नाम इसमें उल्लिखित हैं। रहस्यमय ध्यान से गणेशरूपी सर्वोत्कृष्ण ब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है। साथ ही मूर्तिपूजा की हिन्दू प्रणाली भी यहाँ दी हुई है। 'मुद्गलपुराण' भी एक गाणपत्य पुराण है।
शङ्करदिग्विजय' में गाणपत्य मत के छः विभाग कहे गये हैं--1. महागणपति 2. हरिद्रा 3. उच्छिष्ट गणपति 4. नवनीत गणपति 5. स्वर्ण गणपति एवं 6. सन्तान गणपति। उच्चछिष्ट गणपति सम्प्रदाय की एक शाखा हेरम्भ गणपति की गुह्य प्रणाली (हेरम्ब बौद्धों की तरह) का अनुसरण करती है। गाणपत्य सम्प्रदाय की अनेक शाखाएँ हैं, इनमें से अनेक शाखाएँ मुद्गलपुराण में भी उल्लिखित हैं तथा उनमें से अनेकों का स्वरूप दक्षिण भारत की मूर्तियों में आज भी दृष्टिगोचर होता है, किन्तु यह सम्प्रदाय आज अस्तित्वहीन है।
इस सम्प्रदाय का ह्रास होते हुए भी इस देवता का स्थान आज भी लघु देवों में प्रधानता प्राप्त किये हुए है। इनकी पूजा आज भी विघ्नविनाशक एवं सिद्धिदाता के रूप में प्रत्येक माङ्गलिक अवसर पर सर्वप्रथम होती है। स्कन्दपुराण में इनके इसी रूप (लघु देव) का वर्णन प्राप्त है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के गणेशखण्ड में इनके जन्म तथा गजवदन होने का वर्णन है। दे० 'गणपति' तथा 'गणेश'।
गात्रहरिद्रा
गात्रहरिद्रा का प्रयोग हिन्दुओं में अनेक अवसरों पर किया जाता है। बालिकाओं के रजोदर्शन के अवसर पर, ब्राह्मण कुमारों के यज्ञोपवीत के अवसर पर तथा विवाह संस्कार के दिन या एक दिन पूर्व ही वर तथा कन्या दोनों का गात्रहरिद्रा उत्सव होता है। शरीर पर हरिद्रालेपन नये जन्म अथवा जीवन में किसी क्रान्तिकारी परिवर्तन का प्रतीक है। इससे शरीर की कान्ति बढ़ती है। दक्षिण भारत में यह अंगराग की तरह प्रचलित है।
गाधि
कान्यकुब्ज के चन्द्रवंशी राजा कुशिक के पुत्र तथा विश्वामित्र के पिता का नाम। महाभारत (3.115.19) में इनका उल्लेख है :
[राजा कुशिक ने इन्द्र के समान पुत्र पाने के लिए तपस्या की, तब इन्द्र स्वयं अपने अंश से राजा का पुत्र बनकर गाधि नाम से उत्पन्न हुआ। गाधि की कन्या सत्यवती थी, जो भृगुवंश के ऋचीक की पत्नी हुई।]
गान्धर्वतन्त्र
आगमतत्त्व में उद्धृत चौसठ तन्त्रों की सूची में गान्धर्वतन्त्र का क्रम 57वाँ है। इसमें आगमिक क्रियाओं में गन्धर्वों के महत्त्व तथा उनकी संगीत विद्या का विवरण है।
गन्धर्ववेद
सामवेद का उपवेद। सामवेद की 1000 शाखाओं में आजकल केवल 13 पायी जाती हैं। वार्ष्णेय शाखा का उपवेद गान्धर्व उपवेद के नाम से प्रसिद्ध है। गान्धर्व वेद के चार आचार्य प्रसिद्ध हैं। सोमेश्वर, भरत, हनुमान् और कल्लिनाथ। आजकल हनुमान् का मत प्रचलित है।
गन्धर्ववेद अन्य उपवेदों की तरह सर्वथा व्यवहारात्मक है। इसलिए आधुनिक काल में इसके जो अंश लोप होने से बचे हुए हैं वे ही प्रचलित समझे जाने चाहिए। सामवेद का 'अरण्यगान' एवं 'ग्रामगेयगान' आजकल प्रचार से उठ गया है, इसलिए सामगान की वास्तविक विधि का लोप हो गया है। ऋषियों के मध्य जो विद्या गान्धर्ववेद कहलाती थी वही सर्वसाधारण के व्यवहार में आने पर संगीत विद्या कहलाने लगी। ऋषियों की विद्या ग्रन्थों में मर्यादित होने के कारण अब आधुनिक काल में सर्वसाधारण को उपलब्ध नहीं है। दे० 'उपवेद'।
गान
वैदिक काल में गेय मन्त्रों का संग्रह तथा याज्ञिक विधि सम्बन्धी शिक्षा विशेष गुरुकुलों में हुआ करती थी। ऐसे सामवेद के गुरुकुल थे जहाँ मन्त्रों का गान करना तथा छन्दों का उच्चारण मौखिक रूप में सिखाया जाता था। जब लेखन प्रणाली का प्रचार हुआ तो अनेक स्वरग्रन्थों की, जिन्हें 'गान' कहते थे, रचना हुई। इस प्रकार गान की उत्पत्ति सामवेद से हुई।
गान के दो भेद हैं--(1) मार्ग और देशी। संगीतदर्पण (3.6) के अनुसार।
[मार्ग और देशी भेद से संगीत दो प्रकार का है। ब्रह्मा ने जिसे निर्धारित कर भरत को प्रदान किया और भरत ने शंकर के समक्ष प्रयुक्त किया वह मार्ग संगीत है। जो विभिन्न देशों के अनुसार लोकरंजन में लिए अनेक रीतियों में प्रचलित है वह देशी संगीत है।]
गान्धर्व
(1) विष्णुपुराण के अनुसार भारतवर्ष के नव उपद्वीपों में से एक गान्धर्वद्वीप भी है :
[इन्द्र, कशेरु, ताम्रपर्णी, गभस्तिमान्, नाग, सौम्य, गान्धर्व, वारुण तथा भारत, ये नौ द्वीप हैं।]
(2) आठ प्रकार के विवाहों में से एक प्रकार का विवाह गान्धर्व कहलाता है। जिस विवाह में कन्या और वर परस्पर अनुराग से एक दूसरे को पति-पत्नी के रूप में वरण करते हैं उसे गान्धर्व कहते हैं। मनुस्मृति (3.32) में इसका लक्षण निम्नांकित है :
इच्छयाऽयोन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च। गान्धर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसम्भवः।।
[जिसमें कन्या और वर की इच्छा से परस्पर संयोग होता है और जो मैथुन्य और कामसम्भव है उसे गान्धर्व जानना चाहिए।] दे० 'विवाह'।
गायत्री
ऋग्वेदीय काल में सूर्योपासना अनेक रूपों में होती थी। सभी द्विजों की प्रातः एवं सन्ध्या काल की प्रार्थना में गायत्री मन्त्र को स्थान प्राप्त होना सूर्योपासना को निश्चित करता है।
गायत्री' ऋग्वेद में एक छन्द का नाम है। सावित्र (सविता अथवा सूर्य-सम्बन्धी) मन्त्र इसी छन्द में उपलब्ध होता है (ऋग्वेद, 3.62.10)। गायत्री का अर्थ 'गायन्तं त्रायते इति।' 'गाने वाले की रक्षा करने वाली'। पूरा मन्त्र है--भूः। भुवः। स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो न: प्रचोदयात्। [ हम सविता देव के वरणीय प्रकाश को धारण करते हैं। वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।]
गायत्री का एक नाम 'सावित्री' भी है। उपनयन संस्कार के अवसर पर आचार्य गायत्री अथवा सावित्री मन्त्र उपनीत ब्रह्मचारी को प्रदान करता है। सन्ध्योपासना में इस मन्त्र का जप तथा मनन अनिवार्य माना गया है। जो ऐसा नहीं करते वे 'सावित्रीपतित' समझे जाते हैं। गायत्री त्रिपदा, छन्दोयुक्त, मन्त्रात्मिका और वेदमाता कही गयी है। मनुस्मृति (2.77-78; 81-83) में इसका महत्त्व बतलाया गया है।
पद्मपुराण में गायत्री को ब्रह्मा की पत्नी कहा गया है। यह पद गायत्री को कैसे प्राप्त हुआ, इसकी कथा विस्तार से दी हुई है। इसका ध्यान इस प्रकार बताया गया है :
शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें सूर्यपूजन का विधान है। गायत्री (ऋग्वेद 3.62.10) का जप शत बार, सहस्र बार, दस सहस्र बार करने से अनेक रोगों का नाश होता है। दे० हेमाद्रि, 2.62-63 (गरुडपुराण से उद्भृत)। इस ग्रन्थ में गायत्री की प्रशंसा तथा पवित्रता के विषय में बहुत कुछ कहा गया है।
गार्ग्य
शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्यसूत्र (कात्यायन कृत) तथा कात्यायान के ही वाजसनेय प्रातिशाख्य में गार्ग्य का नाम आया है। परवर्ती काल में एक पाशुपत आचार्य के रूप में भी इनका उल्लेख है। चित्रप्रशस्ति में कहा गया है कि शिव ने कारोहण (लाट देश) में अवतार लिया तथा पाशुपत मत के ठीक-ठीक पालनार्थ उनके चार शिष्य हुए-- कुशिक, गार्ग्य, कौरुष्य एवं मैत्रेय।
पाणिनिसूत्रों में प्राचीन व्याकरण-आचार्य के रूप में भी गार्ग्य का उल्लेख हुआ है।