योगदर्शन के एक आचार्य। इनके शिष्य रामानन्द सरस्वती (16वीं शती के अंत) ने पतञ्जलि के योगसूत्र पर 'मणिप्रभा' नामक टीका लिखी। नारायण सरस्वती इनके दूसरे शिष्य थे, जिन्होंने 1592 ई० में एक ग्रन्थ (योग विषयक) लिखा। इनके शिष्यों के काल को देखते हुए अनुमान किया जा सकता है कि ये अवश्य 16वीं शती के प्रारम्भ में हुए होंगे।
गोष्ठाष्टमी
कार्तिक शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें गौओं के पूजन का विधान है। गौओं को घास खिलाना, उनकी परिक्रमा करना तथा उनका अनुसरण करना चाहिए।
गोष्टीपूर्ण
स्वामी रामानुज के दूसरे दीक्षागुरु। इनसे पुनः श्रीरङ्गम में रामानुज ने दीक्षा ली। गोष्ठीपूर्ण ने इन्हें योग्य समझकर मन्त्र रहस्य समझा दिया और यह आज्ञा दी कि दूसरों को यह मन्त्र न सुनायें। परन्तु जब उन्हें ज्ञात हुआ कि इस मन्त्र के सुनने से ही मनुष्यों का उद्धार हो सकता है, तब वे एक मंदिर की छत पर चढ़कर सैकड़ों नर-नारियों के सामने चिल्ला-चिल्ला कर मन्त्र का उच्चारण करने लगे। गुरु यह सुनकर बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने शिष्य को बुलाकर कहा-- 'इस पाप से तुम्हें अनन्तकाल तक नरक की प्राप्ति होगी।' इस पर रामानुज ने बड़ी शान्ति से उत्तर दिया-- 'गुरुदेव! यदि आपकी कृपा से सब स्त्री-पुरुष मुक्त हो जायेंगे और मैं अकेला नरक में पडूँगा तो मेरे लिए यही उत्तम है।' गोष्ठीपूर्ण रामानुज की इस उदारता पर मुग्ध हो गये और उन्होंने प्रसन्न होकर कहा-- 'आज से विशिष्टाद्वैत मत तुम्हारे ही नाम 'रामानुज संम्प्रदाय' के नाम से विख्यात होगा।'
गोस्वामी
(1) एक धार्मिक उपाधि। इसका अर्थ है 'गो (इन्द्रियों) का स्वामी (अधिकारी)'। जिसने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है वही वास्तव में 'गोस्वामी' है। इसलिए वीतराग सन्तों और वल्लभकुल के गुरुओं को भी इस उपाधि से विभूषित किया जाता है।
(2) चैतन्य सम्प्रदाय के धार्मिक नेता, विशेष कर रूप, सनातन, उनके भतीजे जीव, रघुनाथदास, गोपाल भट्ट तथा रघुनाथ भट्ट 'गोस्वामी' कहलाते हैं। ये इस सम्प्रदाय के अधिकारी नेता थे। इन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं तथा प्रचारार्थ कार्य किये हैं। चैतन्य के साथी अनुयायियों एवं उनसे सम्बन्धित अनुयायियों (भाई, भतीजे आदि) को भी गोस्वामी कहा जाता है।
(3) गौण रूप में गोस्वामी (गुसाँई) उन गृहस्थों को भी कहते हैं जो पुनः विवाह कर लेने वाले विरक्त साधुसंतों के वंशज हैं।
गोस्वामी पुरुषोत्तमजी
वल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख विद्वानों में गोस्वामी पुरुषोत्तमजी विशेष उल्लेखनीय हैं। इनकी अनेक गंभीर रचनाओं से पुष्टिमार्गीय साहित्य की श्रीवृद्धि हुई है।
गौड़पाद
सांख्यकारिका व्याख्या' के रचयिता एवं अद्वैत सिद्धान्त के प्रसिद्ध आचार्य। सांख्यकारिका के पद्यों एवं सिद्धान्तों की ठीक-ठीक व्याख्या करने में इनकी टीका महत्त्वपूर्ण है। गौडपादाचार्य के जीवन के बारे में कोई विशेष बात नहीं मिलती। आचार्य शङ्कर के शिष्य सुरेश्वराचार्य के 'नैष्कर्म्यसिद्धि' ग्रन्थ से केवल इतना पता लगता है कि वे गौड देश के रहने वाले थे। इससे प्रतीत होता है कि उनका जन्म बङ्गाल प्रान्त के किसी स्थान में हुआ होगा। शङ्कर के जीवनचरित से इतना ज्ञात होता है कि गौडपादाचार्य के साथ उनकी भेंट हुई थी। परन्तु इसके अन्य प्रमाण नहीं मिलते।
गौड़पदाचार्य का सबसे प्रधान है 'माण्डूक्योपनिषत्कारिका'। इसका शङ्कराचार्य ने भाष्य लिखा है। इस कारिका की 'मिताक्षरा' नामक टीका भी मिलती है। उनकी अन्य टीका है 'उत्तर गीता-भाष्य'। उत्तर गीता (महाभारत) का एक अंश है। परन्तु यह अंश महाभारत की सभी प्रतियों में नहीं मिलता।
गौडपाद अद्वैतसिद्धान्त के प्रधान उद्घोषक थे। इन्होंने अपनी कारिका में जिस सिद्धान्त को बीजरूप में प्रकट किया, उसी को शङ्कराचार्य नें अपने ग्रन्थों में विस्तृत रूप से समझाकर संसार के सामने रखा। कारिकाओं में उन्होंने जिस मत का प्रतिपादन किया है उसे 'अजातवाद' कहते हैं। सृष्टि के विषय में भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कोई काल से सृष्टि मानते हैं और कोई भगवान के संकल्प से इसकी रचना मानते हैं। इस प्रकार कोई परिणामवादी हैं और कोई आरम्भवादी। किन्तु गौडपाद के सिद्धान्तानुसार जगत् की उत्पत्ति ही नहीं हुई, केवल एक अखण्ड चिंद्धन सत्ता ही मोहवश प्रपञ्चवत् भास रही है। यही बात आचार्य इन शब्दों में कहते हैं :
[यह जितना द्वैत है सब मन का ही दृश्य है। परमार्थतः तो अद्वैत ही है, क्योंकि मन के मननशून्य हो जाने पर द्वैत की उपलब्धि नहीं होती।] आचार्य ने अपनी कारिकाओं में अनेक प्रकार की युक्तियों से यही सिद्ध किया है कि सत्, असत् अथवा सदसत् किसी भी प्रकार से प्रपञ्च की उत्पत्ति सिद्ध नहीं हो सकती। अतः परमार्थतः न उत्पत्ति है, न प्रलय है, न बद्ध है, न साधक है, न मुमुक्षु है और न मुक्त ही है :
न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः। न मुमुक्षुर्न वै मुक्त, इत्येषा परमार्थता।।
बस, जो समस्त विरुद्ध कल्पनाओं का अधिष्ठान, सर्वगत, असङ्ग, अप्रमेय और अविकारी आत्मतत्त्व है, एक मात्र वही सद्वस्तु है। माया की महिमा से रज्जू में सर्प, शुक्ति में रजत और सुवर्ण में आभूषणादि के समान उस सर्वसङ्गशून्य निर्विशेष चित्तत्त्व में ही समस्त पदार्थों की प्रतीति हो रही है।
गौडीय वैष्णवसमाज
बङ्गाल के चैतन्य सम्प्रदाय का दूसरा नाम 'गौडीय वैष्णव समाज' है, जिसके दार्शनिक मत का नाम 'अचिन्त्य भेदाभेद वाद' है। विशेष विवरण के लिए 'चैतन्य सम्प्रदाय' अथवा 'अचिन्त्यभेदाभेदवाद' देखें।
गौतम
न्यायदर्शन के रचयिता का नाम। यह एक गोत्र नाम भी है। शाक्यगण इसी गोत्र का था। अतः बुद्ध गौतम भी कहलाते हैं। दे० 'न्याय दर्शन'।
गौतमधर्मसूत्र
प्रारम्भिक धर्मसूत्रों में से यह सामवेदीय धर्मसूत्र है। इसमें दैनिक एवं व्यावहारिक जीवन सम्बन्धी विधि संकलित है। इसमें सामाजिक जीवन, राजधर्म तथा विधि अथवा व्यवहार (न्याय) का विधान है। हरदत्त के अनुसार इसमें कुल 28 अध्याय हैं। इसके कलकत्ता संस्करण में एक अध्याय और 'कर्मविपाक' पर जोड़ दिया गया है।
गौतम बुद्ध
562 ई० पू० शाक्य गण में इनका जन्म हुआ था। इन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया। सनातनी हिन्दू इन्हें भगवान् विष्णु का नवाँ अवतार मानते हैं। नित्य के संकल्प में प्रत्येक हिन्दू बुद्ध को वर्तमान अवतार के रूप में स्मरण करता है। बोधगया में इनका मन्दिर है जिसके बारे में सनातनियों का विश्वास है कि भगवान् विष्णु ने यह नवाँ अवतार असुरों को माया-मोह में फँसाने के लिए लिया, वेदप्रतिपादित यज्ञविधि की निन्दा की और अहिंसा एवं प्रव्रज्या का प्रचार किया कि असुर लोग, जो उस समय बहुत प्रबल थे, शान्त और संसार से विरत रहें। विष्णुपुराण, श्रीमद्भागवता, अग्निपुराण, वायुपुराण, स्कन्दपुराण एवं बाद के ग्रन्थों में ये ही भाव गौतम बुद्ध के प्रति प्रकट किये गये हैं। वल्लभाचार्य ने ब्रह्मसूत्र, द्वितीय पाद, छब्बीसवें सूत्र की व्याख्या में एक आख्यायिका दी है, जो सनातनियों के उपर्युक्त विचारों की पोषिका है।