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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

गोला गोकर्णनाथ
उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी से बाईस मील पर गोला गोकर्णनाथ नामक नगर है। यहाँ एक सरोवर है, जिसके समीप गोकर्णनाथ महादेव का विशाल मन्दिर है। वराहपुराण में कथा है कि भगवान् शङ्कर एक बार मृगरूप धारण कर यहाँ विचरण कर रहे थे। देवता उन्‍हें ढूँढ़ते हुए आये और उनमें से ब्रह्मा, विष्णु तथा इन्द्र ने मृगरूप में शङ्कर को पहचान कर ले चलने के लिए उनकी सींग पकड़ी। मृगरूपधारी शिव तो अन्तर्धान हो गये, केवल उनके तीन सींग देवताओं के हाँथ में रह गये। उनमें से एक श्रृङ्ग देवताओं ने गोकर्ण नाथ में स्थापित किया, दूसरा भागलपुर जिले (बिहार) के श्रृङ्खेश्वर नामक स्थान में और तीसरा देवराज इन्द्र ने स्वर्ग में। पश्चात् स्वर्ग की वह लिङ्गमूर्ति रावण द्वारा दक्षिण भारत के गोकर्ण तीर्थ में स्थापित कर दी गयी। देवताओं द्वारा स्थापित मूर्ति गोला गोकर्णनाथ में है। इसलिए यह पवित्र तीर्थ माना जाता है।

गोलोक
इसका शाब्दिक अर्थ है ज्योतिरूप विष्णु का लोक (गौर्ज्योतिरूपो ज्योतिर्मयपुरुषः तस्य लोकः स्थानम्)। विष्णु के धाम को मोलोक कहते हैं। यह कल्पना ऋग्वेद के विष्णुसूक्त से प्रारम्भ होती है। विष्णु वास्तव में सूर्य का ही एक रूप है। सूर्य की किरणों का रूपक भूरिश्रृंगा (बहुत सींग वाली) गायों के रूप में बाँधा गया है। अतः विष्णुलोक को गोलोक कहा गया है। ब्रह्मवैवर्त एवं पद्मपुराण तथा निम्बार्क मतानुसार राधा कृष्ण नित्य प्रेमिका हैं। वे सदा उनके साथ 'गोलोक' में, जो सभी स्वर्गों से ऊपर है, रहती हैं। अपने स्वामी की तरह ही वे भी वृन्दावन में अवतरित हुईं एवं कृष्ण की विवाहिता स्त्री बनीं। निम्बार्कों के लिए कृष्ण केवल विष्णु के अवतार ही नहीं, वे अनन्त ब्रह्म हैं, उन्हीं से राधा तथा असंख्य गोप एवं गोपी उत्पन्न होते हैं, जो उनके साथ 'गोलोक' में भाँति-भाँति की लीला करते हैं।
तन्त्र-ग्रन्थों में गोलोक का निम्नांकित वर्णन पाया जाता है :
वैकुण्ठस्य दक्षभागे गोलोकं सर्वमोहनम्। तत्रैव राधिका देवी द्विभुजो मुरलीधरः।।यद्रूपं गोलकं धाम तद्रूपं नास्ति मामके। ज्ञाने वा चक्षुषो किंवा ध्यानयोगे न विद्यते।। शुद्धतत्त्वमयं देवि नाना देवेन शोभितम्। मध्यदेशे गोलोकाख्यं श्रीविष्णोर्लोभमन्दिरम्।। श्रीविष्णोः संत्वरूपस्य यत् स्थलं चित्तमोहनम्। तस्य स्थानस्य माहात्म्यं किं मया कथ्यतेऽधुना।। आदि ब्रह्मवैवर्तपुराण (ब्रह्मखण्ड, 28 अध्याय) में भी गोलोक का विस्तृत वर्णन है।

गोवत्सद्वादशी
कार्तिक कृष्ण द्वादशी से आरम्भ कर एक वर्ष पर्यन्त इस व्रत का आचरण करना चाहिए। इसके हरि देवता हैं। प्रत्येक मास में भिन्न भिन्न नामों से हरि का पूजन करना चाहिए। इससे पुत्र की प्राप्ति होती है। दे० हेमाद्रि, 1.1083--1084।

गोवर्धन
व्रजमण्डल के एक पर्वत का नाम। जैसा इसके नाम से ही प्रकट है, इससे व्रज (चरागाह) में गायों का विशेष रूप से वर्धन (वृद्धि) होता था। भागवत की कथा के अनुसार भगवान् कृष्ण ने इन्द्रपूजा के स्थान पर गोवर्धनपूजा का प्रचार किया। इससे क्रुद्ध होकर इन्द्र ने अतिवृष्टि के साथ व्रज पर आक्रमण किया और ऐसा लगा कि व्रज जलप्रलय से नष्ट हो जायेगा। भगवान् कृष्ण ने व्रज की रक्षा के लिए गोवर्धन को एक अँगुली पर उठाकर इन्द्र द्वारा किये गये अतिवर्षण के प्रभाव को रोक दिया। तब से कृष्ण का विरुद गोवर्धनधारी हो गया और गोवर्धन की पूजा होने लगी।
यह पर्वत मथुरा से सोलह मील और बरसाने से चौदह मील दूर है, जो एक छोटी पहाड़ी के रूप में है। लम्बाई लगभग चार मील है, ऊँचाई थोड़ी ही है, कहीं कहीं तो भूमि के बराबर है। पर्वत की पूरी परिक्रमा चौदह मील की है। एक स्थान पर 108 बार दण्डवत् प्रणाम करके तब आगे बढ़ना और इसी क्रम से लगभग तीन वर्ष में इस पर्वत की परिक्रमा पूरी करना बहुत बड़ा तप माना जाता है। गोवर्धन बस्ती प्रायः मध्य में है। पद्मपुराण के पातालखण्ड में गोवर्धन का स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है:
अनादिर्हरिदासोऽयं भूधरो नात्र संशयः।
[इसमें सन्देह नहीं कि यह पर्वत अनादि और भगवान् का दास है।]

गोवर्धनपूजा
पद्मपुराण (पाताल खण्ड) और हरिवंश (2.17) में गोवर्धनपूजा का विस्तार से वर्णन पाया जाता है :
प्रातर्गोवर्द्धनं पूज्य रात्रौ जागरणं चरेत्। भूषणीयास्तथा गावः पूज्याश्च दोहवाहनाः।। श्रीकृष्णदासवर्योऽयं श्रीगोवर्द्धनभूधरः। शुक्लप्रतिपदि प्रातः कार्तिकेऽर्च्योऽत्र वैष्णवैः।।
पूजन विधि निम्नांकित है:
मथुरायां तथान्यत्र कृत्वा गोवर्द्धन गिरिम्। गोमयेन महास्थूलं तत्र पूज्यो गिरिर्यथा। मथुरायां तथा साक्षात् कृत्वा चैव प्रदक्षिणम्। वैष्णवं धाम सम्प्राप्य मोदते हरिसन्निधौ।।
गोवर्द्धन पूजा का मन्त्र इस प्रकार है :
गोवर्द्धन धराधार गोकुलत्राणकारक। विष्णुबाहुकृतोच्छायो गवां कोटिप्रदो भव।।
कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को अन्नकूट एवं गोवर्धनपूजा होती है। गोबर का विशाल मानवाकार गोवर्धन बनाकर ध्वजा-पताकाओं से सजाया जाता है। गाय-बैल, रंग, तेल, मौर पंख आदि से अलंकृत किये जाते हैं। सबकी पूजा होती है। घरों में और देवालयों में छप्पन प्रकार के व्यञ्जन बनते हैं और भगवान् को भोग लगता है। यह त्योहार भारतव्यापी है, परन्तु मथुरा-वृन्दावन में यह विशेष रूप से मनाया जाता है।

गोवर्धनमठ
शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों में जगन्नाथपुरी स्थित मठ। इन मठों को आचार्य ने अद्वैत-विद्याध्ययन एवं उसके प्रभाव के प्रसार के लिए स्थापित किया था। शङ्कर के प्रमुख चार शिष्यों में से एक आचार्य पद्मपाद इस मठ के प्रथम अध्यक्ष थे। सम्भवतः 1400 ई० में यहाँ के महन्त श्रीधर स्वामी ने भागवत पुराण की टीका लिखी।

गोविन्द
श्री कृष्ण का एक नाम। भगवद्गीता। (1.32) में अर्जुन ने कृष्ण का संबोधन किया है :
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।
इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति स प्रकार है : 'गां धेनुं पृथ्वीं वा विन्दति प्राप्नोति वा' (जो गाय अथवा पृथ्वी को प्राप्त करता है)। किन्तु विष्णुतिलक नामक ग्रन्थ में दूसरी ही व्युत्पत्ति पायी जाती है :
गोभिरेव यतो वेद्यो गोविन्दः समुदाहृतः।
[गो (वेदवाणी) से जो जाना जाता है वह गोविन्द कहलाता है।] हरिवंश के विष्णुपर्व (75.46-45) में कृष्ण के गोविन्द नाम पड़ने की निम्नलिखित कथा है :
अद्यप्रभृति नो राजा त्वमिन्द्रो वै भव प्रभो। तस्मात्त्वं काञ्चनैः पूर्णैदिव्यस्य पयसो घटैः।। एभिरद्याभिषिच्यस्व मया हस्तावनामितैः। अहं किलेन्द्रो देवानां त्वं गवामिन्द्रतां गतः।। गोविन्द इति लोकास्त्वां स्तोष्यन्ति भुवि शाश्वतम्।।
गोपालतापिनी उपनिषद् (पूर्व विभाग, ध्यान प्रकरण, 7-8) में गोविन्द का उल्लेख इस प्रकार है :
तान् होचुः कः कृष्णो गोविन्दश्च कोऽसाविति गोपीजन वल्लभः कः का स्वाहेति। तानुवाच ब्राह्मणः, पापकर्षणो गोभूमिवेदविदितो विदिता गोपीजना विद्या-कलाप्रेरकस्तन्माया चेति।
महाभारत (1.21.12) में भी गोविन्द नाम की व्युत्पत्ति पायी जाती है :
गां विन्दता भगवता गोविन्देनामितौजसा। वराहरूपिणा चान्तर्विक्षोभितजलाविलम्।। पुनः महाभारत (5.70.13) में ही : विष्णुर्विक्रमाद्देवो जयनाज्जिष्णुरुच्यते। शाश्वतत्वादनन्तश्च गोविन्दो वेदनाद् गवाम्।।
ब्रह्मवैवर्त पुराण (प्रकृतिखण्ड, 24 वाँ अ०) में भी यही बात कही गयी है :
युगे युगे प्रणष्टां गां विष्णो! विन्दसि तत्त्वतः। गोविन्देति ततो नाम्ना प्रोच्यसे ऋषिभिस्तथा।।
[हे विष्णु! आप युग युग में नष्ट हुई गौ (वेद) को तत्वतः प्राप्त करते हैं, अतः आप ऋषियों द्वारा गोविन्द नाम से स्तुत होते हैं।]

गोविन्दद्वादशी
फाल्गुन शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण किया जाता है। प्रत्येक मास की द्वादशी को गौओं को विधिवत् चारा खिलाना चाहिए। घृत, दधि अथवा दुग्ध मिश्रित खाद्य पदार्थों को मिट्टी के पात्रों में रखकर आहार करना चाहिए। क्षार तथा लवण वर्जित हैं। हेमाद्रि, 1.1096.97 (विष्णुरहस्य से) तथा जीमूतवाहन के कालविवेक, 468 के अनुसार द्वादशी के दिन पुष्य नक्षत्र आवश्यक है।

गोविन्ददास
ये चैतन्य सम्प्रदाय के एक भक्त कवि थे। सत्रहवीं शती के प्रारम्भिक चालीस वर्षों में चैतन्य सम्प्रदाय का आन्दोलन पर्याप्त बलिष्ठ था एवं इस काल में बँगला में उत्कृष्ट काव्यरचना (सम्प्रदाय सम्बन्धी) करने वाले कुछ कवि और लेखक हुए। इस दल में सबसे बड़ी प्रतिभा गोविन्ददास की थी।

गोविन्दप्रबोध
कार्तिक शुक्ल एकादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। कुछ ग्रन्थों में द्वादशी तिथि है।


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