बुड्ढी, वन्ध्या, रोगार्त, सद्यः प्रसूता गाय का गोमय वर्जित है :
अत्यन्तजीर्णदेहाया वन्ध्यायाश्च विशेषतः। रोगार्तायाः प्रसूताया न गोर्गोमयमाहरेत्।। (चिन्तामणि में उद्धृत)
गोमयादिसप्तमी
चैत्र शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त इसका आचरण होता है। इसके सूर्य देवता हैं। प्रत्येक मास में भगवान् भास्कर का भिन्न-भिन्न नामों से पूजन, व्रती को पञ्चगव्य, यावक, अपने आप गिरि हुई पत्तियाँ अथवा दुग्धाहार ही ग्रहण करना चाहिए। दे० कृत्यकल्पतरु, 135-136; हेमाद्रि, 1.724--725।
गोमांस
गोमांसभक्षण हिन्दू मात्र के लिए निषिद्ध है। अज्ञान से अथवा ज्ञानपूर्वक गोमांस भक्षण करने पर प्रायश्चित करना आवश्यक है। अज्ञानपूर्वक प्रथम वार भक्षण के लिए पराशर ने निम्नांकित प्रायश्चित्त का विधान किया है :
[अगभ्यागमन (अयोग्य स्त्री से संयोग), मद्यसेवन तथा गोमांसभक्षण के पाप से शुद्ध होने के लिए समुद्रगामिनी नदी में स्नान करके चान्द्रायणव्रत करना चाहिए। चान्द्रायण व्रत के समाप्त होने पर ब्राह्मण-भोजन कराना चाहिए और ब्राह्मण को दान में बैल के साथ गाय देनी चाहिए।]
ज्ञानपूर्वक गोमांसभक्षण में संवत्सरव्रत का विधान है :
गामश्वं कुञ्जरोष्ट्रौ च सर्व पञ्चनखं तथा। क्रव्यादं कुक्कुटं ग्राम्यं कुर्यात् संवत्सरं व्रतम्।।
दुबारा गोमांसभक्षण के लिए संवत्सरव्रत के साथ पन्द्रह गायों का दान तथा पुनः उपनयन का विधान है (विष्णुस्मृति)। विशेष विवरण के लिए देखिए 'प्रायश्चित्त विवेक'।
हठयोगप्रदीपिका (3.47.48) में गोमांसभक्षण प्रतीकात्मक है :
[जो नित्य गोमांस भक्षण और अमर वारुणी का पान करता है उसको कुलीन मानता हूँ; ऐसा न करने वाले कुलघातक होते हैं। यहाँ गो-शब्द का अर्थ जिह्वा है। तालु में उसके प्रवेश को गोमांसभक्षण कहते हैं। यह महापातकों का नाश करने वाला है।]
गोमुख
(1) हिमालय पर्वत के जिस सँकरे स्थान से गङ्गा का उद्गम होता है उसे 'गोमुख' कहते हैं। यह पवित्र तीर्थस्थल माना जाता है। गङ्गोत्तरी से लगभग दस मील पर देवगाड़ नामक नदी गङ्गा में मिलती है। वहाँ से साढ़े चार मील पर चीड़ोवास (चीड़ के वृक्षों का वन) है। इस वन से चार मील पर गोमुख है। यहीं हिमधारा (ग्लेशियर) के नीचे से गङ्गाजी प्रकट होती हैं। गोमुख में इतना शीत है कि जल में हाथ डालते ही वह सूना हो जाता है। गोमुख से लौटने में शीघ्रता करनी पड़ती है। धूप निकलते ही हिमशिखरों से भारी हिमचट्ठाने टूट-टूटकर गिरने लगती हैं। अतः धूप चढ़ने के पहले लोग चीड़ोवास के पड़ाव पर पहुँच जाते हैं।
(2) यह एक प्रकार का आसन है। हठयोगप्रदीपिका (1.20) में इसका वर्णन इस प्रकार पाया जाता है :
सव्ये दक्षिणगुल्फं तु पृष्ठपार्श्वे नियोजयेत्। दक्षिणेऽपि तथा सव्यं गोमुखं गोमुखाकृति।।
[बायें पीठ के पार्श्व में दाहिनी एड़ी और दायें पृष्ठ पार्श्व में बायीं एड़ी लगानी चाहिए। इस प्रकार गोमुख आकृति वाला गोमुख आसन बनता है।]
(3) जपमाला के गोपन के लिए निर्मित वस्त्र की झोली को गोमुखी कहते हैं। दे० मुण्डमालातन्त्र।
गोयुग्मव्रत
रोहिणी अथवा मृगशिरा नक्षत्र को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें एक साँड़ तथा एक गौ का श्रृंगार कर उनका दान करना चाहिए। दान से पूर्व उमा तथा शङ्कर का पूजन करना चाहिए। इस व्रत का आचरण करने से कभी पत्नी पुत्र की मृत्यु नहीं देखनी पड़ती, ऐसा इस व्रत का माहात्म्य कहा गया है।
गोरक्ष
प्रसिद्ध योगी गोरक्षनाथजी 1200 ई० के लगभग हुए एवं इन्होंने अपने एक स्वतन्त्र मत का प्रचार किया। इनके समाधिस्थ होने के बाद गोरक्ष की कहानियाँ तथा नाथों की कहानियाँ इन्हीं के नाम से चल पड़ी। कहते हैं कि इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। हठयोगप्रदीपिका (2.5) में इनकी गणना सिद्धयोगियों में की गयी है :
श्री आदिनाथ-मत्स्येन्द्र-शावरानन्द-भैरवाः। चौरङ्गी-मीन-गोरक्ष-विरूपाक्ष-बिलेशयाः।।
इनकी समाधि गोरखपुर (उ.प्र.) में है जो गोरखपंथियों का प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। दे० 'गोरखनाथ' और 'गोरखनाथी'।
गोरखनाथजी का यह संस्कृत नाम है। 'गोरक्ष' शिव का भी पर्याय है।
गोरखनाथ
नाथ सम्प्रदाय का उदय यौगिक क्रियाओं के उद्धार के लिए हुआ, जिनका रूप तान्त्रिकों और सिद्धों ने विकृत कर दिया था। नाथ सम्प्रदाय के नवें नाथ प्रसिद्ध है। इस सम्प्रदाय की परम्परा में प्रथम नाम आदिनाथ (विक्रम की 8वीं शताब्दी) का है, जिन्हें सम्प्रदाय वाले भगवान् शङ्कर का अवतार मानते हैं। आदिनाथ के शिष्य मत्स्येन्द्रनाथ एवं मत्स्येन्द्र के शिष्य गोरखनाथजी हुए। नौ नाथों में गोरखनाथ का नाम सर्वप्रमुख एवं सबसे अधिक प्रसिद्ध है। उत्तर प्रदेश में प्रसिद्ध है। यहाँ नाथपंथी कनफटे योगी साधु रहते हैं। इस पन्थ वालों का योगसाधन पातञ्जलि विधि का विकसित रूप है। नेपाल के निवासी गोरखनाथ को पशुपतिनाथजी का अवतार मानते हैं। नेपाल के भोगमती, भातगाँव, मृगस्थली, चौधरी, स्वारीकोट, पिडठान आदि स्थानों में नाथ पन्थ के योगाश्रम हैं। राज्य के सिक्कों पर 'श्रीगोरखनाथ' अंकित रहता है। उनकी शिष्यता के कारण ही नेपालियों में गोरखा जाति बन गयी है और एक प्रान्त का नाम गोरखा कहलाता है। गोरखपुर में उन्होंने तपस्या की थी जहाँ वे समाधिस्थ हुए।
गोरखनाथकृत हठयोग, गोरक्षशतक, ज्ञानामृत, गोरक्षकल्प, गोरक्षसहस्रनाम आदि ग्रन्थ हैं। काशी नागरी प्रचारिणी सभा की खोज में चतुरशीत्यासन, योगचिन्तामणि, योगमहिमा, योगमार्त्तण्ड, योगसिद्धान्तपद्धति, विवेकमार्त्तण्ड और सिद्ध-सिद्धान्तपद्धति आदि संस्कृत ग्रन्थ और मिले हैं। सभा ने गोरखनाथ के ही लिखे हिन्दी के 37 ग्रन्थ खोज निकाले हैं, जिनमें मुख्य ये हैं :
(1) गोरखनाथ (2) दत्त-गोरखसंवाद (3) गोरखनाथजीरा पद (4) गोरखनाथजी के स्फुट ग्रन्थ (5) ज्ञानसिद्धान्त योग (6) ज्ञानतिलक (7) योगेश्वरीसाखी (8) नखैबोध (9) विराटपुराण और (10) गोरखसार आदि।
गोरखनाथी
गोरखनाथ के नाम से सम्बद्ध और उनके द्वारा प्रचारित एक सम्प्रदाय। गोरखनाथी (गोरक्षनाथी) लोगों का सम्बन्ध कापालिकों से अति निकट का है। गोरखनाथ की पूजा उत्तर भारत के अनेक मठ-मन्दिरों में, विशेष कर पंजाब एवं नेपाल में होती है। फिर भी इस धार्मिक सम्प्रदाय की भिन्नतासूचक कोई व्यवस्था नहीं है। संन्यासी, जिन्हें 'कनफटा योगी' कहते हैं, इस सम्प्रदाय के वरिष्ठ अंग हैं। सम्भव है (किन्तु ठीक नहीं कहा जा सकता है) गोरखनाथ नामक योगी ने ही इस सम्प्रदाय का प्रारम्भ किया हो। इसका संगठन 13वीं शताब्दी में हुआ प्रतीत होता है, क्योंकि गोरखनाथ का नाम सर्वप्रथम मराठा भक्त ज्ञानेश्वररचित 'अमृतानुभव' (ई० 1290) में उद्धृत है।
गोरखनाथ ने एक नयी योगप्रणाली को जन्म दिया, जिसे हठयोग कहते हैं। इसमें शरीर को धार्मिक कृत्यों एवं कुछ निश्चित शारीरिक क्रियाओं से शुद्ध करके मस्तिष्क की सर्वश्रेष्ठ एकाग्रता (समाधि), जो प्राचीनयोग का रूप है, प्राप्त की जाती है। विभिन्न शारीरिक प्रणालियों के शोधन और दिव्य शक्ति पाने के लिए विभिन्न आसन प्रक्रियाओं, प्राणायाम तथा अनेक मुद्राओं के संयोग से आश्चर्यजनक सिद्धि लाभ इनका लक्ष्य होता है।
गोरखपुर
उत्तरप्रदेश के पूर्वाञ्चल में नाथपन्थियों का यहाँ प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। यहाँ गोरखनाथजी की समाधि के ऊपर सुन्दर मन्दिर बना हुआ है। गर्भगृह में समाधिस्थल है, इसके पीछे काली देवी की विकराल मूर्ति है। यहाँ अखण्ड दीप जलता रहता है। गोरखपंथ का साम्प्रदायिक पीठ होने के कारण यह मठ और इसके महन्त भारत में अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। यहाँ के महंत सिद्ध पुरुष होते आये हैं।
गोरत्नव्रत
यह गोयुग्म का वैकल्पिक व्रत है। इसमें उन्हीं मन्त्रों का उच्चारण होता है, जिनका प्रयोग गोयुग्म व्रत में किया जाता है।