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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

गोपिनी
वीराचार (तान्त्रिक) सम्प्रदाय के पश्वाचारी साधकों की पूजनीय नायिकाओं का एक प्रकार गोपिनी व्युत्पत्ति बतलायी गयी है :
आत्मानं गोपयेद् या च सर्वदा पशुसङ्कटे। सर्ववर्णोद्भवा रम्या गोपिनी सा प्रकीर्तिता।।

गोपी
वैष्णव वाङ्मय में भागवतपुराण, हरिवंश एवं विष्णुपुराण का प्रमुख स्थान है। तीनों में कृष्ण के जीवन काल का वर्णन मिलता है। भागवत में उनके परवर्ती जीवन की अपेक्षा बाल्य एवं युवा काल का वर्णन अति सुन्दर हुआ है। इसमें गोपियों के बीच उनकी क्रीड़ा का वर्णन प्रमुख हो गया है। गोपियाँ अनन्य भक्ति की प्रतीक हैं। गोपीभाव का अर्थ है अनन्यभक्ति। दार्शनिक दृष्टि से गोपियाँ 'गोपाल-विष्णु' की ह्लादिनी शक्ति की अनेक रूपों में अभिव्यक्ति हैं, जो उनके साथ नित्य विहार अथवा रास करती हैं।
गोपीतत्व और गोपीभाव के उद्गम और विकास का इतिहास बहुत लम्बा और मनोरञ्जक है। सर्वप्रथम ऋग्वेद के विष्णुसूक्त (1.155.5) में विष्णु के लिए 'गोप', 'गोपति', 'गोपा' आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। यह भी कहा गया है कि विष्णुलोक में मधु का उत्स है और उसमें भूरश्रृंगा गौएँ चरती हैं। ये शब्द निश्चित रूप से विष्णु का सम्बन्ध, चाहे प्रतीकात्मक ही क्यों न हो, गो, गोप और गोपियों से जोड़ते हैं। यहाँ पर गो, गोप आदि शब्द यौगिक हैं, व्यक्तिवाचक अथवा जातिवाचक नहीं। इनका सम्बन्ध है गमन, विक्रम, समृद्धि, माधुर्य और आनन्द से। इसी मूल वैदिक कल्पना के आधार पर वैष्णव साहित्य में कृष्ण के गोपस्वरूप, उनके गोपसखा, गोपी, गोपी भाव की सारी कल्पनाएँ और भावनाएँ विकसित हुईं। यह कहना कि कृष्ण का मूलतः सम्बन्ध केवल गोप-प्रजाति से था, वैष्णव धर्म के इतिहास को बीच में खण्डित रूप से देखना है। हाँ, यहाँ कहना ठीक है कि विष्णु का गोप रूप गोचारण करने वाले गोपों और गोपियों में अधिक लोकप्रिय हुआ।
महाभारत में कृष्ण और विष्णु का ऐक्य तो स्थापित हो गया था, परन्तु उसमें कृष्ण की बाललीला की चर्चा न होने से गोपियों का कोई प्रसंग नहीं है। किन्तु पुराणों में गोप-गोपियों का वर्णन (रूपकात्मक) मिलना प्रारम्भ जाता है। भागवत (10.1.23) पुराण में तो स्पष्ट कथन है कि गोपियाँ देवपत्नियाँ थीं, भगवान् कृष्ण का अनुरञ्जन करने के लिए वे गोपी रूप में अवतरित हुईं। ब्रह्मवैवर्त और पद्मपराण में गोपीकल्पना और गोपीभावना का प्रचुर विस्तार हुआ है। इनमें गोलोक, नित्य वृन्दावन, नित्य रासक्रीड़ा, कृष्ण के ब्रह्मरत्न, राधा की आह्लादिका शक्ति, आदि का सरहस्य वर्णन पाया जाता है।
मध्ययुगीन कृष्णभक्त सन्तों ने गोपीभाव को और अधिक प्रोत्साहन दिया और गोपियों की अनन्त कल्पनाएँ हुईं। सनकादि अथवा हंस सम्प्रदाय के आचार्य निम्बार्क ने गोपीभाव की दार्शनिक तथा रहस्यात्मक व्याख्या की है। इनके अनुसार कृष्ण ब्रह्म हैं। इनकी दो शक्तियाँ हैं-- (1) ऐश्वर्य और (2) माधुर्य। उनकी ऐश्वर्यशक्ति में रमा, लक्ष्मी, भू आदि की गणना है। उनकी माधुर्य शक्ति में राधा तथा अन्य गोपियों की गणना है। गोपियाँ कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति हैं। निम्बार्क ने कहा :
अङ्गे तु वामे वृषभानुजां मुदा, विराजमानामनुरूपसौभगाम्। सखीसहस्रैः परिसेवितां सदा, स्मरेम देवीं सकलेष्टकामदाम्।। (दशश्लोकी) स्पष्टतः यहाँ राधा की कल्पना शक्तिरूप में हुई है।
गौडीय वैष्णव (चैतन्य) सम्प्रदाय के द्वारा गोपीभाव का सबसे अधिक विस्तार और प्रसार हुआ। पुष्टिमार्ग ने इसे और पुष्ट किया। इन दोनों सम्प्रदायों के अनुसार गोपियाँ भगवान् कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति हैं। लीला में कृष्ण के साथ उनका प्रत्यक्ष औऱ अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में नित्य साहचर्य है। वृन्दावन की प्रत्यक्ष रासलीला में वे भगवान् की गुह्य ह्लादिनी शक्ति का प्रवर्तन करती हैं। वे नित्यसिद्धा मानी गयी हैं। चैतन्य मत के आचार्यों ने गोपियों का सूक्ष्म किन्तु विस्तृत वर्गीकरण किया है। दे० रूप गोस्वामीकृत 'उज्जवलनीलमणि', कृष्णवल्लभा अध्याय। गोपियों के स्वरूप और नाम के विषय में अन्यत्र भी कथन है :
गोप्यस्तु श्रुतयो ज्ञेयाः स्वाधिजा गोपकन्यका। देवकन्याश्च राजेन्द्र न मानुष्यः कथञ्चन।।
[गोपियों को श्रुति (वेद अथवा मधुस्वर) समझना चाहिए। ये गोपकन्यका अपनी अधिष्ठान शक्ति से उत्पन्न हुई हैं। हे राजेन्द्र! ये देवकन्याएँ हैं; किसी प्रकार ये मानुषी नहीं हैं।] ब्रजबाला के रूप में इनके निम्नांकित नाम हैं : पूर्णरसा, रसमन्थरा, रसालया, रससुन्दरी, रसपीयूषधामा, रसतरङ्गिणी, रसकल्लोलिनी, रसवापिका, अनङ्गमञ्जरी, अनङ्गमानिनी, मदयन्ती, रङ्गविह्वला, ललितयौवना, अनङ्गकुसुमा, मदनमञ्जरी, कलावती, ललिता, रतिकला, कलकण्ठी आदि।
श्रुतिगण के रूप में इनके निम्नलिखित नाम हैं : उद्गीता, रसगीता, कलगीता, कलस्वरा, कलकण्ठिता, विपञ्ची, कलपदा, बहुमता, कर्मसुनिष्ठा, बहुहरि, बहुशाखा, विशाखा, सुप्रयोगतमा, विप्रयोगा, बहुप्रयोगा, बहुकला, कलावती, क्रियावती आदि।
मुनिगण के रूप में गोपियों के नाम अधोलिखित हैं :
उग्रतपा, सुतपा, प्रियव्रता, सुरता, सुरेखा, सुयर्वा, बहुप्रदा, रत्नरेखा, मणिग्रीवा, अपर्णा, सुपर्णा, मत्ता, सुलक्षणा, मुदती, गुणवती, सौकालिनी, सुलोचना, सुमना, सुभद्रा, सुशीला, सुरभि, सुखदायिका आदि।
गोपबालाओं के रूप में उनकी संज्ञा नीचे लिखे प्रकार की हैं :
चन्द्रावली, चन्द्रिका, काञ्चनमाला, रुक्ममाला, चन्द्रनना, चन्द्ररेखा, चान्द्रवापी, चन्द्रमाला, चन्द्रप्रभा, चन्द्रकला, सौवर्णमाला, मणिमालिका, वर्णप्रभा, शुद्ध काञ्चनसन्निभा, मालती, यूथी, वासन्ती, नवमल्लिका, मल्ली, नवमल्ली, शेफालिका, सौगन्धिका, कस्तूरी, पद्मिनी, कुमुद्वती, गोपाली, रसाला, सुरसा, मधुमञ्जरी, रम्भा, उर्वशी, सुरेखा, स्वर्णरेखिका, वसन्ततिलका आदि। दे० पद्मपुराण, पातालखण्ड।

गोपीचन्दन
यह एक प्रकार की मिट्टी है जो द्वारका के पास गोपीतालाब में मिलती है। कहा जाता है कि यह गोपियों की अंगधूलि है जहाँ उन्होंने कृष्ण के स्वरूप में अपने को लीन कर दिया था। गोपीचन्दन से बनाया हुआ 'ऊर्द्धपुण्ड्र' तिलक भागवत सम्प्रदाय का चिह्न है। इसको धारण करनेवाले गोपीभाव की उपासना करते हैं।

गोपीचन्दन उपनिषद्
वासुदेव तथा गोपीचन्दन-उपनिषद् वैष्णवों के परवर्ती युग की रचनायें हैं। दोनों में गोपी-चन्दन से ललाट पर ऊर्द्धपुण्ड्र लगाने का निर्देश है। इनमें गोपीचन्दन और गोपीभाव का तात्विक विवेचन किया गया है।

गोपीचंद्रनाथ
नाथ सम्प्रदाय के नौ नाथों में से अन्तिम गोपीचन्द्रनाथ थे। गुरु गोरखनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ, भर्तृनाथ, गोपीचन्द्रनाथ, सभी अब तक जीवित एवं अमर समझे जाते हैं। कहते हैं कि साधकों को कभी-कभी इनके दर्शन भी हो जाते हैं। इन योगियों को चिरजीवन ही नहीं प्राप्त है, इन्हें चिरयौवन भी प्राप्त है। ये योगबल से नित्य किशोर रूप या सनकादिक की तरह बालरूप में रहते हैं। गोपीचन्द (गोपीचन्द्रनाथ) के गीत आज भी भिक्षुक योगी गाते फिरते हैं।

गोपुर
धार्मिक भवनों का एक अङ्ग। मन्दिरप्रकार के मुख्य द्वारशिखर को गोपुर कहते हैं। इसकी व्युत्पत्ति है 'गोपन अर्थात् रक्षण करता है जो' (गोपायति रक्षति इति)। महाभारत (1.208.31) में एक विशाल गोपुर का उल्लेख पाया जाता है:
द्विपक्षगरुडप्रख्यैर्द्वारै सौधैश्च शोभितम्। गुप्तमभ्रचयप्रख्यैर्गोपुरैर्मन्दरोपमैः।।
दक्षिण के द्रविड शैली के मन्दिरों में बृहत्काय गोपुर पाये जाते हैं।

गोभिलगृह्यसूत्र
इस गृह्यसूत्र में चार प्रपाठक हैं। कात्यायन ने इस पर एक परिशिष्ट लिखा है। गोभिलगृह्यसूत्र सामवेद की कौथुमी शाखा वालों और राणायनी शाखा वालों का है। इसका अंग्रेजी अनुवाद ओल्डेनवर्ग ने प्रस्तुत किया है। दे० सेक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट, जिल्द 30। इस पर अनेक संस्कृतभाष्य लिखे गये हैं, यथा भट्टनारायण का भाष्य (रघुनन्दन के 'श्राद्धतत्त्व' में उद्धृत); यशोधर का भाष्य (गोविन्दानन्द की 'क्रियाकौमुदी' में उद्धृत); सरला नाम की टीका ('श्राद्धतत्त्व' में उद्धृत)।
इसमें गृहस्थजीवन से सम्बद्ध सभी धार्मिक क्रियाओं की विधि सविस्तार वर्णित हैं। गृह्ययज्ञों में सात मुख्य हैं, यथा पितृयज्ञ, पार्वणयज्ञ, अष्टकायज्ञ, श्रावणीयज्ञ, आश्वयुजीयज्ञ, आग्रहायणीयज्ञ तथा चैत्रीयज्ञ। इनके अतिरिक्त पाँच नित्य महायज्ञ हैं, यथा ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा भूतयज्ञ। जिन शरीरसंस्कारों का वर्णन इसमें है, उनकी सूची इस प्रकार है--1. गर्भाधान 2.पुंसवन 3. सीमन्तोन्नयन 4. जातकर्म 5. नामकरण 6. निष्क्रमण 7. चूडाकर्म 8. उपनयन 9. वेदारम्भ 10. केशान्त 11. समावर्तन 12. विवाह 13. अन्त्येष्टि आदि।

गोभिल्समृति
कात्यायन के 'कर्मप्रदीप' से यह अभिन्न है। दे० आनन्दाश्रम स्मृतिसंग्रह, पृ० 49-71। कर्मप्रदीप ही गोभिलस्मृति के नाम से उद्धृत होता है। इसकी प्रस्तावना में कहा गया है :
अथतो गोभिलोक्तानामन्येषां चैव कर्मणाम्। अस्पष्टानां विधिं सभ्यगदर्शयिष्ये प्रदीपवत्।।
इसके मुख्य विषय हैं---यज्ञोपवीतधारण विधि, आचमन और अङ्गस्पर्श, गणेश तथा मातृका पूजन, कुश, श्राद्ध, अग्न्याधान, अरणि, स्रुक्, स्रुव, दन्तधावन, स्नान प्राणायाम, मन्त्रोच्चारण, देव-पितृ-तर्पण, पञ्चमहायज्ञ, श्राद्धकर्म, अशौच, पत्नीधर्म, श्राद्ध के प्रकार आदि।

गोभिलीय श्राद्धकल्प
यह रघुनन्दन के 'श्राद्धतत्त्व' में उद्धृत है। महायशस् ने इसकी टीका की है, जिसका दूसरा नाम यशोधर भी है। इसके दूसरे टीकाकार समुद्रकर भी हैं, जिनका उल्लेख भवदेवकृत 'श्राद्धकला' में हुआ है।

गोमती
ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 'नदीसूक्त' में एक नदी के रूप में उद्धृत। उक्त ऋचा में इसका सिन्धु की सहायक नदी के रूप में उल्लेख हुआ है। सिन्धु में पश्चिम से आकर मिलने वाली गोमल नदी से यह निश्चय ही अभिन्न समझी जा सकती है। गोल्डनर का मत है कि गुमती या इसकी चार ऊपरी शाखाओं (क्योंकि यह शब्द बहुवचन में है) से ही उपर्युक्त नदी का साम्य है। परवर्ती साहित्य में इस नदी को कुरुक्षेत्र में स्थित तथा वैदिक सभ्यता का केन्द्रस्थल कहा गया है। आजकल इस नाम की गङ्गा की सहायक नदी उत्तर प्रदेश में प्रवाहित होती है। इसके किनारे लखनऊ, जौनपुर आदि नगर हैं।
महाभारत (6.9.17) में एक पवित्र नदी के रूप में इसका उल्लेख है, जिसके किनारे त्र्यम्बक महादेव का स्थान है :
गोमतीं धूतपापां च चान्दनाञ्च महानदीम्। अस्यास्तीरे महादेवस्त्र्यम्बकमूर्त्या विराजते।।
मालिङ्गेश्वरतन्त्र के शिवशतनाम स्तोत्र में भी कथन है :
त्र्यम्बको गोमतीतीरे गोकर्णे च त्रिलोकनः
स्कन्दपुराण के काशीखण्ड (29.51) में गोमती का गङ्गा के पर्याय के रूप में उल्लेख है :
गोमती गुह्यविद्या गोर्गोप्त्री गगनगामिनी।
देवीभागवत (7.30.57) के अनुसार गोमती एक देवी का नाम है :
गोमन्ते गोमती देवी मन्दरे कामचारिणी।
प्रायश्चित्तत्त्व में उद्धृत शातातप के अनुसार गोमती एक प्रकार का वैदिक मन्त्र है :
पञ्चगव्येन गोधाती मासैकेन विशुध्यति। गोमतीञ्च जपेद् विद्यां गवां गोष्ठे च संवसेत्।।


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