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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

गूढ़ज (गूढ़ोत्पन्न)
धर्मशास्त्र के अनुसार बारह प्रकार के पुत्रों में से एक। पत्नी अपने पति के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष से प्रच्छन्न रूप में जो पुत्र उत्पन्न करती है उसे गूढ़ज कहा जाता है। मनुस्मृति (9,170) में इसकी परिभाषा इस प्रकार की गयी है :
उत्पद्यते गृहे यस्य न च ज्ञायेत कस्य सः। स गृहे गूढ़ उत्पन्नस्तस्य स्याद् यस्य तल्पजः।। यह दायभागी बन्धु माना गया है (मनु. 9,151)।
याज्ञवल्क्यस्मृति (2.32) में इसकी यही परिभाषा मिलती है :
गृहे प्रच्छन्न उत्पन्नो गूढजस्तु सुतो मतः।'
वर्तमान हिन्दू-विधि में गूढ़ज पुत्र की स्वीकृति नहीं है।

गृहस्थ
गृह में पत्नी के साथ रहनेवाला। पत्नी का गृह में रहना इसलिए आवश्यक है कि बहुत से शास्त्रकारों ने पत्नी को ही गृह कहा है: 'न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते।' गृहस्थ द्वितीय आश्रम 'गृहस्थ्य' में रहता है। इसलिए इसको ज्येष्ठाश्रमी, गृहमेधी, गृही, गृहपति, गृहाधिपति आदि भी कहा गया है। धर्मशास्त्र में ब्राह्मण को प्रमुखता देते हुए गृहस्थधर्म का विस्तार से वर्णन किया गया है। (दे० मनुस्मृति, अध्याय 4)।
चतुर्थमायुषो भागमुषित्वद्यं गुरौ द्विजः। द्वितीयमायुषो भागं कृदारो गृहे वसेत्।। अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुनः। या वृत्तिस्तां समास्थाय विप्रो जीवेदनापदि।। यात्रामात्रप्रसिद्ध्यर्थ स्वैः कर्मभिरगर्हितैः। अक्लेशेन शरीरस्य कुर्वीत धर्मसञ्चयम्।। ऋतानृताभ्याज्जीवेतु मृतेन प्रमृतेन वा। सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत्या कदाचन।। ऋतमुञ्छशिलं ज्ञेयममृतं स्यादयाचितम्।। मृतं तु याचितं भैक्ष्य प्रमृतं कर्षणं स्मृतम्। सत्यानृतं तु वाणिज्यं तेन चैवापि जीयते। सेवा श्ववृत्तिराख्याता तस्मात्तां परिवर्जयेत्।।
द्विज आयु के प्रथम-चतुर्थ भाग को गृरुगृह में व्यतीत कर द्वितीय-चतुर्थ भाग में विवाह कर पत्नी के साथ घर में वास करे। सम्पूर्ण जीवधारियों के अद्रोह अथवा अल्पद्रोह से अपनी वृत्ति की स्थापना कर विप्र को आपत्तिरहित अवस्था में जीवन व्यतीत करना चाहिए। अपनी जीवनयात्रा की सिद्धि मात्र के लिए अपने अनिन्दनीय कर्मों द्वारा शरीर को क्लेश दिये बिना उसे धनसञ्चयन करना चाहिए। उसे ऋत और अनृत से जीना चाहिए अथवा मृत और प्रमृत से अथवा सत्यानृत से, किन्तु श्वान-वृत्ति (नौकरी) से कभी नहीं। ऋत उञ्छशिल (खेत में पड़े हुए दानों को चुनना) को, अमृत अयाचित (बिना मागे प्राप्त) को, मृत याचित भिक्षा को, प्रमृत कर्षण (बलात् प्राप्त) को कहा गया है। सत्यानृत वाणिज्य है। उससे भी जीवन व्यतीत किया जा सकता है। श्वानवृत्ति सेवा नाम से प्रसिद्ध है। इसलिए इसका त्याग करना चाहिए।]
गरुडपुराण (49 अध्याय) में गृहस्थधर्म का वर्णन सामान्यतः इस प्रकार से किया गया है:
सर्वेषामाश्रमाणान्तु दैविध्यन्तु चतुर्विधम्। ब्रह्मचार्युपकुर्वाणों नैष्ठिको ब्रह्मतत्परः।। योऽधीत्य विधिवद्वेदान् गृहस्थाश्रममाव्रजेत्। उपकुर्वाणको ज्ञेयो नैष्ठिको मरणान्तकः।। अग्नयोऽतिथिशुश्रूषा यज्ञो दानं सुरार्चनम्। गृहस्थस्य समासेन धर्मोऽयं द्विजसत्तमाः।। उदासीनः साधकश्च गृहस्थो द्विविधो भवेत्।, कुटुम्बभरणे युक्तः साधकोऽसौ गृही भवेत्।। ऋणानि त्रीण्युपाकृत्य त्यक्त्वा भार्याधनादिकम्। एकाकी विचरेद्यस्तु उदासीनः स मौक्षिकः।।
[ब्रह्मचारी (स्नातक) के दो प्रकार होते हैं--उपकुर्वाण और नैष्ठिक। जो वेदों का विधिवत् अध्ययन कर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है यह उपकुर्वाण और जो आमरण गुरुकुल में रहता है वह नैष्ठिक है। अग्न्याधान, अतिथिसेवा, यज्ञ, दान, देवपूजन ये संक्षेप में गृहस्थ के धर्म हैं। उदासीन और साधक-गृहस्थ दो प्रकार का होता है। कुटुम्बभरण में नियमित लगा हुआ गृहस्थ साधक होता है। ऋणों--ऋषिऋण, देवऋण और पितृऋण से मुक्त होकर, भार्या और धन आदि को छोड़कर मोक्ष की कामना से जो एकाकी विचरता है वह उदासीन है।]
प्रत्येक गृहस्थ को तीन ऋणों से मुक्त होना आवश्यक है। वह नित्य के स्वाध्याय द्वारा ऋषिऋण से, यज्ञ द्वारा देवऋण से और सन्तानोत्पत्ति द्वारा पितृऋण से मुक्त होता है। उसके नित्य कर्मों में पञ्चमहायज्ञों का अनुष्ठान अनिवार्य है। ये यज्ञ हैं-- (1) ब्रह्मयज्ञ (स्वाध्याय) (2) देवयज्ञ (यज्ञादि) (3) पितृयज्ञ (पितृतर्पण औऱ पितृसेवा) (4) अथिथियज्ञ (संन्यासी, ब्रह्मचारी, अभ्यागत की सेवा) और भूतयज्ञ अर्थात् जीवधारियों की सेवा। दे० 'आश्रम' और 'गार्हस्थ्य'।

गूढ़ार्थदीपिका
स्वामी मधुसूधन सरस्वती कृत श्रीमद्भगवद्गीता की टीका। इसे गीता की सर्वोत्तम व्याख्या कह सकते हैं। शंकराचार्य के मतानुसार रचित यह व्याख्या विद्वानों में अत्यन्त आदर के साथ प्रचलित है। इसका रचनाकाल सोलहवीं शताब्दी है।

गृत्समद
एक वैदिक ऋषि। ऋग्वेद की ऋचाएँ सात वर्गों में विभक्त हैं एवं वे सात ऋषिकुलों से सम्बन्धित हैं। इनमें प्रथम ऋषिकुल के ऋषि का नाम गृत्समद है। सर्वानुक्रमणिका, ऐतरेय ब्राह्मण (5.2.4) एवं ऐतरेय आरण्यक (2.2.1) में गृत्समद को ऋग्वेद के द्वितीय मण्डल का साक्षात्कार करने वाला कहा गया है। कौषीतकिब्राह्मण (22.4) में गृत्समद को भार्गव भी कहा गया है।

गृहपञ्चमी
पञ्चमी के दिन इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इसमें ब्रह्मा के पूजन का विधान है। सुर्खी, चूना, सूप, धान्य साफ करने का यन्त्र, रसोई के बर्तन, (गार्हस्थ्य की पाँच आवश्यक वस्तुएँ) तथा जलकलश का दान किया जाता है। दे० हेमाद्रि, 1.574; कृत्यरत्नाकर, 98 (सात, वस्तुओं का उल्लेख करता है, जिनमें एक है चूल्हा तथा दूसरा है जलकलश।)।

गृह्यसूत्र
धार्मिक जीवन के कर्त्‍तव्यनिर्धारक ग्रन्थों में चार प्रकार के सूत्रों का सर्वोपरि महत्त्व है। वे हैं श्रौत, गृह्य, धर्म एवं इन्द्रजालिक ग्रन्थ। गृह्यसूत्रों को ''गृह्य'' इसलिए कहा गया है कि वे घरेलू (पारिवारिक) यज्ञों तथा परिवार के लिए आवश्यक धार्मिक कृत्यों का वर्णन उपस्थित करते हैं।
गृह्यसूत्रों के तीन भाग हैं। पहले भाग में छोटे यज्ञों का वर्णन है, जो प्रत्येक गृहस्थ अपने अग्निस्थान में पुरोहित द्वारा (या ब्राह्मण होने पर स्वतः) करता है। ये यज्ञ तीन प्रकार के हैं: (अ) घृत, तैल, दुग्ध को अग्नि में देना, (आ) पका हुआ अन्न देना तथा (इ) पशुयज्ञ। दूसरे भाग में सोलह संस्कारों का वर्णन है, यथा जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, यज्ञोपवीत, विवाहादि, जो जीवन की विशिष्ट अवस्थाओं से सम्बन्धित कर्म हैं। तीसरे में मिश्रित विषय हैं, जैसे गृहनिर्माण-सम्बन्धी कर्म, श्राद्ध कर्म, पितृयज्ञ तथा अन्य लघु क्रियाएँ। कौशिक गृ० सू० में चिकित्सा तथा दैवी विपत्तियों को दूर करने के मन्त्र भी पाये जाते हैं। सभी वेदशाखाओं के उपलब्ध गृह्यसूत्रों की सूची देना आवश्यक प्रतीत होता है। ये हैं : (ऋक् सम्बन्धी) 1. शांखायन 2. शाम्बव्य 3. आश्वलायन; (साम सम्बन्धी) 4. गोभिल 5. खादिर 6. जैमिनि; (शुक्लयजुर्वेद सम्बन्धी) 7. पारस्कर; (कृष्णयजुर्वेद सम्बन्धी) 8. आपस्तम्ब 9. हिरण्यकेशी 10. बौधायन 11. भारद्वाज, 12. मान 13. वैखानस; (अथर्ववेद सम्बन्धी) 14. कौशिक। दे० 'सूत्र'।

गौ (गौ)
गौ हिन्दुओं का पवित्र पशु है। अनेक यज्ञिय पदार्थ- घी, दुग्ध, दधि इसी से प्राप्त होते हैं। यह स्वयं पूजनीय एवं पृथ्वी, ब्राह्मण और वेद का प्रतीक है। भगवान् कृष्ण के जीवन से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है। उनको गोपाल, गोविन्द आदि विरुद इसी से प्राप्त हुए। गोरक्षा और गोसंवर्धन हिन्दू का आवश्यक कर्तव्य है। वैदिक कालीन भारतीयों के धन का प्रमुख उपादान गाय अथवा बैल है। गौ के क्षीर का पान या उसका उपभोग घृत या दधि बनाने के लिए होता था। क्षीर यज्ञों में सोमरस के साथ मिलाया जाता था, अथवा अन्न के साथ क्षीरोदन तैयार किया जाता था। ऋग्वेद की दानस्तुति में गौओं के बड़े-बड़े समूहों का उल्लेख किया गया है। पुरोहितों को गौओं के दान एवं गोपालन अथवा इनके स्वामित्व को विशेष महत्त्वपूर्ण ढंग से दर्शाया गया है। वैदिक कालीन गौएँ रोहित, शुक्ल, पृश्नि, कृष्ण आदि रङ्गों के नाम से पुकारी जाती थीं। बैल हल तथा गाड़ी खींचते थे। ये व्यक्तिगत स्वामित्व के विषय थे एवं वस्तुओं के विनिमय एवं मूल्यांकन के भी साधन थे।
गो शब्द का प्रयोग गौ से उत्पन्न वस्तुओं के लिए भी किया जाता है। प्रायः इसका अर्थ दुग्ध ही लगाया जाता है, किन्तु पशु का मांस बहुत कम। इससे पशुचर्म का बोध भी होता है जिसे अनेक कामों में लाया जाता है। 'चर्मन्' शब्द कभी-कभी गो का पर्याय भी समझा जाता है।
गोदान अनेक प्रकार के दानों में महत्वपूर्ण है। स्वतन्त्र रूप से गौ का दान पुण्यकारक तो समझा ही जाता है, अन्य धार्मिक कार्यों के साथ--विवाह,श्राद्ध आदि में-- भी इसका विधान है।

गो-उपचार
युगादि तथा युगान्त्य नामक तिथियों के दिन इस व्रत का विधान है। इसमें एक गौ का सम्मान तथा पूजन होना चाहिए। षडशीतिमुख, उत्तरायण, दक्षिणायन विषुव (समान रात्रि तथा दिवस), प्रत्येक मास की संक्रान्तियों, पूर्णिमा, चतुर्दशी, ; पञ्चमी, नवमी, सूर्य तथा चन्द्र ग्रहण के दिन भी इस व्रत का आचरण करना चाहिए। दे० कृत्यरत्नाकर, 433-434; स्मृतिकौस्तुभ 275-276।

गौकर्णक्षेत्र
कर्नाटक प्रदेश में गोवा के समीप में स्थित एक शैवतीर्थ। यह रावण द्वारा स्थापित कहा जाता है। उत्तर प्रदेश के खीरी जिले में 'गोला गोकरणनाथ' भी उत्तर का गोकर्ण तीर्थ कहलाता है। गोकर्णक्षेत्र के आसपास कई तीर्थ हैं-- 1. माण्डव्यकुण्ड (गोकर्ण से चार मील पश्चिम) 2. कोणार्क कुण्ड 3. भद्रकुण्ड (गोकर्ण मन्दिर से आध मील) 4. पुनर्भूकुण्ड और 5. गोकर्णतीर्थ (मन्दिर के समीप)। इस क्षेत्र में गोकर्णनाथ को मिलाकर पञ्चलिङ्ग माने जाते हैं, जिनमें मुख्य लिङ्ग गोकर्णजी का है। दूसरा देवकली के पास सरोवर के किनारे देवेश्वर महादेव, तीसरा भीटा स्टेशन के पास गदेश्वर, चौथा गोकर्णनाथ से दक्षिण बावर गाँव में वटेश्वर और पाँचवाँ सुनेसर गाँव के पश्चिम स्वर्णेश्वर। इनके दर्शनों के लिए बहुसंख्यक यात्री आते हैं। श्रीमद्भागवत में गोकर्ण का उल्लेख है :
ततोऽभिव्रज्य भनवान् केरलांस्तु त्रिगर्तकान्। गोकर्णाख्यं शिवक्षेत्रं सान्निध्यं यत्र धूर्जटेः।।
[तदन्तर बलरामजी केरल देश में गये, पुनः त्रिगर्त में पहुँचे जहाँ गोकर्ण नामक शंकरजी विराजते हैं।] देवी भागवत (7.30.60) में शाक्त पीठों में इसकी गणना की गयी है :
केदारपीठे सम्प्रोक्ता देवी सन्मार्गदायिनी। मन्दा हिमवतः पृष्ठे गोकर्णे भद्रकर्णिका।।
इसके अनुसार गोकर्ण में भद्रकर्णिका देवी का निवास है।

गोकुल
यह वैष्णव तीर्थ है। विश्वास किया जाता है कि भगवान् कृष्ण ने यहाँ गौएँ चरायी थी। मथुरा से दक्षिण छः मील दूर यह यमुना के दूसरे तट पर स्थित है। कहा जाता है, श्री कृष्ण के पालक पिता नन्दजी का यहाँ गोष्ठ था। संप्रति वल्लभाचार्य, उनके पुत्र गुसाँई बिट्ठलनाथजी एवं गोकुलनाथजी की बैठकें हैं। मुख्य मन्दिर गोकुलनाथ जी का है। यहाँ वल्लभकुल के चौबीस मन्दिर बतलाये जाते हैं।
महालिङ्गेश्वर तन्त्र में शिवशतनाम स्तोत्र के अनुसार महादेव गोपीश्वर का यह स्थान है :
गोकुल गोपिनीपूज्यो गोपीश्वर इतीरितः।


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