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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

कल्याणसप्तमी
किसी भी रविवार को पड़ने वाली सप्तमी के दिन यह व्रत किया जा सकता है। उस तिथि का नाम कल्याणिनी अथवा विजया होगा। एक वर्ष पर्यन्त इसका अनुष्ठान होना चाहिए। इसमें सूर्य के पूजन का विधान है। 13 वें मास में 13 गायों का दान या समान करना चाहिए। दे० मत्स्यपुराण, 74.520; कृत्यकल्पतरु, व्रतकाण्ड, 208-211।

कल्याणश्री (भाष्यकार)
आश्वलायन श्रौतसूत्र के 11 व्याख्याग्रन्थों का पता लगा है। इनके रचयिताओं में से कल्याणश्री भी एक हैं।

कल्लट
कश्मीर के प्रसिद्ध दार्शनिक लेखक। इनका जीवनकाल नवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। 'काश्मीर शैव साहित्यमाला' में प्रसिद्ध 'स्पन्दकारिका' ग्रन्थ की रचना कल्लट द्वारा हुई थी। इसमें स्पन्दवाद (एक शैवसिद्धान्त) का प्रतिपादन किया गया है।

कल्हण
कल्हण पण्डित कश्मीर के राजमन्त्रियों में से थे। इन्होंने 'राजतरङ्गिणी' नामक ऐतिहासिक ग्रन्थ की रचना की है, जिसमें कश्मीर के राजवंशों का इतिहास संस्कृत श्लोकों में वर्णित है। कश्मीर के प्राचीन इतिहास पर इससे अच्छा प्रकाश पड़ता है।

कलाप व्याकरण
प्राचीन व्याकरण ग्रन्थ। इसका प्रचार बङ्गाल की ओर है, इसको 'कातन्त्र व्याकरण' भी कहते हैं। कलाप व्याकरण के आधार पर अनेक व्याकरण ग्रन्थ बने हैं, जो बङ्गाल में प्रचलित हैं। बौद्धों में इस व्याकरण का अधिक प्रचार था, इसीलिए इसकों 'कातन्त्र' (कुत्सित ग्रन्थ) ईर्ष्यावश कहा गया है, अथवा कार्तिकेय के वाहन कलापी (मोर पक्षी) ने इसको प्रकट किया था इससे भी इसका 'कातन्त्र' नाम चल पड़ा।

कलापी
पाणिनि के सूत्रों में जिन वैयाकरणों का उल्लेख किया गया है, उनमें कलापी (4.3.104) भी एक है।

कल्लिनाथ
गान्धर्व वेद (संगीत) के चार आचार्य प्रसिद्ध हैं; सोमेश्वर, भरत, हनुमान् और कल्लिनाथ। इनमें से कइयों के शास्त्रीय ग्रन्थ मिलते हैं।

कवच
देवपूजा के प्रमुख पंचाग स्तोत्रों में प्रथम अंग (अन्य चार अंग अर्गला, कीलक, सहस्रनाम आदि हैं)। स्मार्तों के गृहों में देवी की दक्षिणमार्गी पूजा की सबसे महत्वपूर्ण स्तुति चण्डीपाठ है जिसे दुर्गासप्तशती भी कहते हैं। इसके पूर्व एवं पीछे दूसरे पवित्र स्तोत्रों का पाठ होता है। ये कवच कीलक एवं अर्गलास्तोत्र, हैं, जो मार्कण्डेय एवं वराह पुराण से लिये गये हैं। कवच में कुल 50 पद्य हैं तथा कीलक में 14। इसमें शस्त्ररक्षक लोहकवच के तुल्य ही शरीर के अंगों की रक्षात्मक प्रार्थना की गयी है।
किसी धातु की छोठी डिबिया को भी कवच कहते हैं, जिसमें भूर्जपत्र पर लिखा हुआ कोई तान्त्रिक यन्त्र या मन्त्र बन्द रहता है। पृथक्-पृथक् देवता तथा उद्देश्य के पृथक्-पथक् कवच होते हैं। इसको गले अथवा बाँह में रक्षार्थ बाँधते हैं। मलमासतत्‍त्व में कहा है :
यथा शस्त्रप्रहाराणां कवचं प्रतिवारणम्। तथा दैवोपघातानां शान्तिर्भवति वारणम्।।
[जैसे शस्त्र के प्रहार से चर्म अथवा धातु का बना हुआ कवच (ढाल) रक्षा करता है, उसी प्रकार दैवी आघात से (यान्त्रिक शान्ति) कवच रक्षा करता है।]

कवि कर्णपूर
वंगदेशीय भक्त कवि। सन् 1570 के आसपास बङ्गाल में धार्मिक साहित्य के सर्जन की ओर विद्वानों की अधिक रुचि थी। इसी समय चैतन्य महाप्रभु के जीवन पर लगभग पाँच विशिष्ट ग्रन्थ लिखे गये; दो संस्कृत तथा शेष बँगला में। इनमें पहला है संस्कृत नाटक 'चैतन्यचन्द्रोदय' जिसकी रचना कवि कर्णपूर ने की थी। इसमें चैतन्य महाप्रभु के उपदेशों का काव्यमय विवेचन है।

कवितावली
सोलहवीं शताब्दी में रची गयी कविताबद्ध श्रीराम की कथा, जो कवित और सवैया छन्दों में है। इसके रचयिता गोस्वामी तुलसीदास हैं। भक्ति भावना से भीना हुआ यह व्रजभाषा का ललित काव्य है।


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