भारत के दक्षिणांचल के अन्तिम छोर पर समुद्रतटवर्ती एक देवीस्थान। 'छोटे नारायण' से, कन्याकुमारी बावन मील है। यह अन्तरीप भूमि है। एक ओर बंगाल का आखात, दूसरी ओर पश्चिम सागर तथा सम्मुख हिंद महासागर है। महाभारत (वनपर्व 85.23) में इसका उल्लेख है :
पद्मपुराण (38.23) में इसका माहात्म्य दिया हुआ है। स्वामी विवेकानन्द ने यहाँ एक समुद्रवेष्टित शिला पर कुछ समय तक भजन-ध्यान किया था। इस घटना की स्मृति में उक्त शिला पर भव्य भवन निर्मित है, जो ध्यान-चिन्तन के लिए रमणिक स्थल बन गया है।
कपर्द
कपर्द' शब्द सिर के केशों को चोटी के रूप में बाँधने की वैदिक प्रथा का बोधक है। इस प्रकार एक कुमारी को चार चोटियों में केशों को बाँधने वाली 'चतुष्कपर्दा' (ऋ० वे 10.114,3) कहा गया है तथा 'सिनीवाली' को सुन्दर चोटी वाली 'सुकपर्दा' कहा गया है (वाजसनेयी सं० 11.59)। पुरुष भी अपने केशों को इस भाँति सजाते थे, क्योंकि 'रुद्र' (ऋ० वे० 1.114, 1, 5; वाज० सं० 16.10, 29,43,48,59) तथा 'पूषा' को ऐसा करते कहा गया है (ऋ० वे० 6.53, 2; 9.67, 11)। वसिष्ठों को दाहिनी ओर जूड़ा बाँधने से पहचाना जाता था एवं उन्हें 'दक्षिणातस्कपर्द' कहते थे। कपर्दी का प्रतिलोम शब्द पुलस्ति है अर्थात् केशों को बिना चोटी किये रखना।
कपर्दी
(1) शंकर का एक उपनाम, क्योंकि उनके मस्तक पर विशाल जटाजूट बँधा रहता है।
(2) ऋग्वेद और आपस्तम्बधर्मसूत्र के एक भाष्यकार भी 'कपर्दी स्वामी' नाम से प्रसिद्ध हैं।
कपर्दिक (वेदान्ताचार्य)
स्वामी रामानुजकृत 'वेदान्तसंग्रह' (पृ० 154) में प्राचीन काल के छः वेदान्ताचार्यों का उल्लेख मिलता है। इन आचार्यों ने रामानुज से पहले वेदान्त शास्त्र के प्रचार के लिए ग्रन्थनिर्माण किये थे। आचार्य रामानुज के सम्मानपूर्ण उल्लेख से प्रतीत होता है कि ये लोग सविशेष ब्रह्मवादी थे। कपर्दिक उनमें से एक थे। दूसरे पाँच आचार्यों के नाम हैं-- भारुचि, टङ्क, बोधायन, गुहदेव एवं द्रविडाचार्य।
कपर्दीश्वर विनायकव्रत
श्रावण शुक्ल चतुर्थी को गणेशपूजन का विधान है। दे० व्रतार्क, 78 ब 84 अ.; व्रतराज 160-168। दोनों ग्रन्थों में विक्रमार्कपुर का उल्लेख है और कहते हैं कि महाराज विक्रमादित्य ने इस व्रत का आचरण किया था।
कपालकुण्डला
इसका शाब्दिक अर्थ है 'कपालों (खोपड़ियों) का कुण्डल धारण करनेवाली (साधिका)।' कापालिक पंथ में साधक और साधिकाएँ दोनों कपालों के कुण्डल (माला) धारण करते थे। आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में लिखे गये 'मालतीमाधव' नाटक में एक मुख्य पात्र अघोरघण्ट कापालिक संन्यासी है। वह चामुण्डा देवी के मन्दिर का पुजारी था, जिसका सम्बन्ध तेलुगुप्रदेश के श्रीशैल नामक शैव मन्दिर से था। कपालकुण्डला अघोरघण्ट की शिष्य थी। दोनों योग की साधना करते थे। वे पूर्णरूपेण शैव विचारों के मानने वाले थे, एवं नरबलि भी देते थे। संन्यासिनी कपालकुण्डला मुण्डों की माला पहनती तथा एक भारी डण्डा लेकर चलती थी, जिसमें घण्टियों की रस्सी लटकती थी। अघोरघण्ट मालती को पकड़कर उसकी बलि देना चाहता था, किन्तु वह उससे मुक्त हो गयी।
कपालमोचन तीर्थ
सहारनपुर से आगे जगाधारी से चौदह मील दूर एक तीर्थ। यहाँ कपालमोचन नामक सरोवर है, इसमें स्नान करने के लिए यात्री दूर दूर से आते हैं। यह स्थान जंगल में स्थित और रमणीक है।
कपाली
शब्दार्थ है 'कपाल (हाथ में) धारण करने वाला' अथवा 'कपाल (मुण्ड) की माला धारण करने वाला।' यह शिव का पर्याय है। किन्तु 'चर्यापद' में इसका एक दूसरा ही अर्थ है। कपाली की व्युत्पत्ति उसमें इस प्रकार बतायी गयी है : 'कम् महासुखं पालयति इति कपाली। अर्थात् जो 'क' महासुख का पालन करता है वह कपाली है। इस साधना में 'डोम्बी' (नाड़ी) के साधक को कपाली कहते हैं।
कपालेश्वर
शिव का पर्याय। कापालिक एक सम्प्रदाय की अपेक्षा साधकों का पंथ कहला सकता है, जो विचारों में वाममार्गी शाक्तों का समीपवर्ती है। सातवीं शताब्दी के एक अभिलेख में कपालेश्वर (देवता) एवं उनके संन्यासियों का उल्लेख पाया जाता है। मुण्डमाला धारण किये हुए शिव ही कपालेश्वर हैं।
कपिल
सांख्य दर्शन के प्रवर्तक महामुनि। कपिल के 'सांख्य सूत्र' जो सम्प्रति उपलब्ध हैं, छः अध्यायों में विभक्त हैं और संख्या में कुल 524 हैं। इनके प्रवचन के बारे में पञ्चशिखचार्य ने लिखा है :
'निर्माणचित्तमधिष्ठाय भगवान् परमर्षिरासुरये जिज्ञासमानाय तन्त्रं प्रोवाच।''
[सृष्टि के आदि में भगवान् विष्णु ने योगबल से 'निर्माण चित्त' (रचनात्मक देह) का आधार लेकर स्वयं उसमें प्रवेश करके, दयार्द्र होकर कपिल रूप से परम तत्त्व की जिज्ञासा करने वाले अपने शिष्य आसुरि को इस तन्त्र (सांख्यसूत्र) का प्रवचन किया।]
पौराणिकों ने चौबीस अवतारों में इनकी गणना की है। भागवत पुराण में इनकों विष्णु का पञ्चम अवतार बतलाया गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार 'तत्त्वसमास सूत्र' नामक एक संक्षिप्त सूत्र रचना को कपिल का मूल उपदेश मानना चाहिए।
इनकी जन्मभूमि गुजरात का सिद्धपुर और तपःस्थल गंगा-सागरसंगम तीर्थ कहा जाता है।