शाक्तों में शक्ति के आठ मातृकारूपों के अतिरिक्त काली की अर्चा का भी निर्देश है। प्राचीन काल में शक्ति का कोई विशेष नाम न लेकर देवी या भवानी के नाम से पूजा होती थी। भवानी से शीतला का भी बोध होता था। धीरे-धीरे विकास होने पर किसी न किसी कार्य का सम्बन्ध किसी विशेष देवता या देवी से स्थापित होने लगा। काली की पूजा भी इसी विकासक्रम में प्रारम्भ हुई। त्रिपुरा एवं चटगाँव के निवासी काला बकरा, चावल, केला तथा दूसरे फल काली को अर्पण करते हैं। उधर काली की प्रतिमा नहीं होती, केवल मिट्टी का एक गोल मुण्डाकार पिण्ड बनाकर स्थापित किया जाता है।
मन्दिर में काली का प्रतिनिधित्व स्त्री-देवी की प्रतिमा से किया जाता है, जिसकी चार भुजाओं में, एक में खड्ग, दूसरी में दानव का सिर, तीसरी वरद मुद्रा में एवं चतुर्थ अभय मुद्रा में फैली हुई रहती है। कानों में दो मृतकों के कुण्डल, गले में मुण्डमाला, जिह्वा ठुड्डी तक बाहर लटकी हुई, कटि में अनेक दानवकरों की करधनी लटकती हुई तथा मुक्त केश एड़ी तक लटकते हुए होते हैं। यह युद्ध में हराये गये दानव का रक्तपान करती हुई दिखायी जाती है। वह एक पैर अपने पति शिव की छाती पर तथा दूसरा जंघा पर रखकर खड़ी होती है।
आजकल काली को कबूतर, बकरों, भैंसों की बलि दी जाती है। पूजा खड्ग की अर्चना से प्रारम्भ होती है। बहुत से स्थानों में काली अब वैष्णवी हो गयी है। दे० 'कालिका'।
कालीघाट
क्ति (काली) के मन्दिरों में दूसरा स्थान कालीघाट (कलकत्ता) के कालीमन्दिर का है, जबकि प्रथम स्थान कामरूप के कामाख्या मन्दिर को प्राप्त हैं। यहाँ नरबलि देने की प्रथा भी प्रचलित थी, जिसे आधुनिक काल में निषिद्ध कर दिया गया है।
कालीतन्त्र
आगमतत्त्वविलास' में दी गयी तन्त्रों की सूची के क्रम में 'कालीतन्त्र' का सातवाँ स्थान है। इसगें काली के स्वरूप और पूजापद्धति का वर्णन है।
कालीव्रत
कालरात्रि व्रत के ही समान इसका अनुष्ठान होता है। दे० कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड, 263, 169।
कालीतरतन्त्र
आगमतत्त्व विलास' की सूची में उल्लिखित एक तन्त्र ग्रन्थ। यह दशम शताब्दी के पहले की रचना है।
काशकृत्सन
एक वेदान्ताचार्य। आत्मा (व्यक्ति) एवं ब्रह्म के सम्बन्धों के बारे में तीन सिद्धान्त उपस्थित किये गये हैं। प्रथम आश्मरथ्य का सिद्धान्त है, जिसके अनुसार आत्मा न तो बिल्कुल ब्रह्म से भिन्न हैं और न अभिन्न ही। दूसरा औडुलोमि का सिद्धान्त है, जिसके अनुसार मुक्ति के पूर्व आत्मा ब्रह्म से बिल्कुल भिन्न है। तीसरा काशकृत्स्न का सिद्धान्त है जिसके अनुसार आत्मा बिल्कुल ब्रह्म से अभिन्न है। काशकृत्स्न अद्वैतमत का सिद्धान्त उपस्थित करते हैं।
काशिकावृत्ति
पाणिनि के अष्टाध्यायीस्थित सूत्रों की व्याख्या। पतञ्जलि के महाभाष्य के पश्चात् वामन और जयादित्य की 'काशिकावृत्ति' का अच्छा प्रचार हुआ। हरिदत्त ने 'पदमञ्जरी' नामक काशिकावृत्ति की टीका भी लिखी है। महाभाष्य के समान काशिकावृत्ति से भी सामाजिक जीवन पर आनुषंगिक प्रकाश पड़ता है। इसका रचनाकाल पाँचवीं शताब्दी के समीप है।
काशी
संसार के इतिहास में जितनी अधिक प्राक्कालिकता, नैरन्तर्य और लोकप्रियता काशी को प्राप्त है उतनी किसी भी नगर को नहीं यह लगभग 3000 वर्षों से भारत के हिन्दुओं का पवित्र तीर्थस्थान तथा उसकी सम्पूर्ण धार्मिक भावनाओं का केन्द्र रही है। यह परम्परागतधार्मिक पवित्रता तथा शिक्षा का केन्द्र है। हिन्दूधर्म की विचित्र विषमता, संकीर्णता तथा नानात्व और अन्तर्विरोधों के बीच यह एक सूक्ष्म श्रृंखला है जो सबको समन्वित करती है। केवल सनातनी हिन्दुओं के लिए ही नहीं, बौद्धों और जैनों के लिए लिए भी यह स्थान बड़े महत्त्व का है। भगवान् बुद्ध ने बोधगया में ज्ञान प्राप्त होने पर सर्वप्रथम यहीं उसका उपदेश किया था। जैनियों के तीन तीर्थकरों का जन्म यहीं हुआ था।
इसे वाराणसी अथवा बनारस भी कहा जाता है। पिछले सैकड़ों वर्षों से इसके माहात्म्य पर विपुल साहित्य की सर्जना हुई है। पुराणों में इसका बहुत विस्तृत विवरण मिलता है। पुराख्यानों से पता चलता है कि काशी प्राचीन काल से ही एक राज्य रहा जिसकी राजधानी वाराणसी थी। पुराणों के अनुसार ऐल (चन्द्रवंश) के क्षत्रवृद्ध नामक राजा ने काशीराज्य की स्थापना की। उपनिषदों में यहाँ के राजा अजातशत्रु का उल्लेख है, जो ब्रह्मविद्या और अग्निविद्या का प्रकाण्ड विद्वान् था। महाभारत के अनुशासनपर्व (30.10) के अनुसार अति प्राचीन काल में काशी में धन्वन्तरि के पौत्र दिवोदास ने आक्रामक भद्रश्रेण्य के 100 पुत्रों को मार डाला और वाराणसी पर अधिकार कर लिया। इससे क्रुद्ध होकर भगवान् शिव ने अपने गण निकुम्भ को भेजकर उसका विनाश करवा दिया। हजारों वर्षों तक काशी खण्डहर के रूप में पड़ी रही। तदुपरान्त भगवान् शिव स्वयं आकर काशी में निवास करने लगे। तब से इसकी पवित्रता और बढ़ गयी।
बौद्धधर्म के ग्रन्थों से पता चलता है कि काशी बुद्ध के युग में राजगृह, श्रावस्ती तथा कौशाम्बी की तरह एक बड़ा नगर था। वह राज्य भी था। उस युग में यहाँ वैदिक धर्म का पवित्र तीर्थस्थान तथा शिक्षा का केन्द्र भी था। काशीखण्ड (26.34) और ब्रह्मपुराण के (207) के अनुसार वाराणसी शताब्दियों तक पाँच नामों से जानी जाती रही है। वे नाम हैं-- वाराणसी, काशी, अविमुक्त, आनन्दकानन और श्मशान अथवा महाश्मशान। पिनाकपाणि शम्भु ने इसे सर्वप्रथम आनन्दकानन और तदनन्तर अविमुक्त कहा (स्कन्द०, काशी०, 26.34)। काशी 'काश्' धातु से निष्पन्न है। 'काश्' का अर्थ है ज्योतित होना अथवा करना। इसका नाम काशी इसलिए है कि यह मनुष्य के निर्वाणपथ को प्रकाशित करती है, अथवा भगवान् शिव की परमसत्ता यहाँ प्रकाश करती है (स्कन्द०, काशी 26.67)। ब्रह्म० (33.49) और कूर्म पुराण (1.32.36) के अनुसार वरणा और असी नदियों के बीच स्थित होने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा। जाबालोपनिषद् में कुछ विपरीत मत मिलते हैं। वहाँ अविमुक्त, वरणा और नासी का अलौलिक प्रयोग है। अविमुक्त को वरणा और नासी के मध्य स्थित बताया गया है। वरणा को त्रुटियों का नाश करने वाली तथा नासी को पापों का नाश करनेवाली बताया गया है और इस प्रकार काशी पाप से मुक्त करने वाली नगरी है। लिङ्गपुराण (पूर्वार्ध, 92.143) के अनुसार ‘अवि’ का अर्थ पाप और काशी नगरी पापों से मुक्त है इसलिए इसका नाम ‘अविमुक्त’ पड़ा है। काशीखण्ड (32.111) तथा लिङ्गपुराण (1.91.76) के अनुसार भगवान् शंकर को काशी (वाराणसी) अत्यन्त प्रिय है इसलिए उन्होंने इसे आनन्द कानन नाम से अभिहित किया है। काशी का अन्तिम नाम ‘श्मशान’ अथवा महाश्मशान इसलिए है कि वह निधनोपरान्त मनुष्य को संसार के बन्धनों से मुक्त करने वाली है। वस्तुतः श्मशान (प्रेतभूमि) शब्द अशुद्धि का द्योतक है, किन्तु काशी की श्मशानभूमि को संसार में सर्वाधिक पवित्र माना गया है। दूसरी बात यह है कि ‘श्म’ का तात्पर्य है ‘शव’ और ‘शान’ का तात्पर्य है ‘लेटना’ (स्कन्द, काशीं 30, 103.4)। प्रलय होने पर महान् आत्मा यहाँ शव या प्रेत के रूप में निवास करते हैं, इसलिए इसका नाम महाश्मशान है। पद्मपुराण (133.14) के अनुसार भगवान् शङ्कर स्वयं कहते हैं कि अविमुक्त प्रसिद्ध प्रेतभूमि है। संहारक के रूप में यहाँ रहकर मैं संसार का विनाश करता हूँ।
यद्यपि सामान्य रूप से काशी, वाराणसी औऱ अविमुक्त तीनों का प्रयोग समान अर्थ में ही किया गया है, किन्तु पुराणों में कुछ सीमा तक इनके स्थानीय क्षेत्रविस्तार में अन्तर का भी निर्देश है। वाराणसी उत्तर से दक्षिण तक वरणा और असी से घिरी हुई है। इसके पूर्व में गङ्गा तथा पश्चिम में विनायकतीर्थ है। इसका विस्तार धनुषाकार है, जिसका गङ्गा अनुगमन करती है। मत्स्यपुराण (184.50--52) के अनुसार इसका क्षेत्रविस्तार ढाई योजन पूर्व से पश्चिम और अर्द्ध योजन उत्तर से दक्षिण है। इसका प्रथम वृत्त सम्पूर्ण काशीक्षेत्र का सूचक है। पद्मपुराण (पातालखण्ड) के अनुसार यह एक वृत्त से घिरी हुई है, जिसकी त्रिज्यापंक्ति मध्यमेश्वर से आरम्भ होकर देहलीविनायक तक जाती है। यह दूरी दो योजन तक है (मत्स्यपुराण, अध्याय 181.61-62)।
अविमुक्त उस पवित्र स्थल को कहते हैं, जो 200 धनुष व्यासार्ध (800 हाथ या 1200 फुट) में विश्वेश्वर के मन्दिर के चतुर्दिक् विस्तृत है। काशीखण्ड में अविमुक्त को पंचकोश तक विस्तृत बताया गया है। पर वहाँ यह शब्द काशी के लिए प्रयुक्त हुआ है। पवित्र काशीक्षेत्र का सम्पूर्ण अन्तर्वृत्त पश्चिम में गोकर्णेश से लेकर पूर्व में गङ्गा की मध्यधारा तथा उत्तर में भारभूत से दक्षिण में ब्रह्मेश तक विस्तृत है।
काशी को धार्मिक माहात्म्य बहुत अधिक है। महाभारत (वनपर्व 84.79.80) के अनुसार ब्रह्महत्या का अपराधी अविमुक्त में प्रवेश करके भगवान् विश्वेश्वर की मूर्ति का दर्शन करने मात्र से ही पापमुक्त हो जाता है और यदि वहाँ मृत्यु को प्राप्त होता है तो उसे मोक्ष मिलता है। अविमुक्त में प्रवेश करते ही सभी प्रकार के प्राणियों के पूर्वजन्मों के हजारों पाप क्षणमात्र में नष्ट हो जाते हैं। धर्म में आसक्ति रखने वाला व्यक्ति काशी में मृत्यु होने पर पुनः संसार को नहीं देखता। संसार में योग के द्वारा मोक्ष (निर्वाण) की प्राप्ति नहीं हो सकती, किन्तु अविमुक्त में योगी को मोक्ष सिद्ध हो जाता है (मत्स्य० 185.15.16)। कुछ स्थलों पर वाराणसी तथा वहाँ की नदियों के सम्बन्ध में रहस्यात्मक संकेत भी मिलते हैं। उदाहरणार्थ, काशीखण्ड में असी को 'इडा', वरणा को 'पिङ्गला', अविमुक्त को 'सुषुम्ना' तथा इन तीनों के सम्मिलित स्वरूप को काशी कहा गया है (स्कन्द, काशीखण्ड 525)। परन्तु लिंगपुराण का इससे भिन्न मत है। वहाँ असी, वरणा तथा गंगा को क्रमशः पिंगला, इडा तथा सुषुम्न कहा गया है।
पुराणों में कहा गया है कि काशीक्षेत्र के एक-एक पग में एक-एक तीर्थ की पवित्रता है (स्कन्द, काशी० 59, 118) और काशी की तिलमात्र भूमि भी शिवलिङ्ग से अछूती नहीं है। जैसे काशीखण्ड के दसवें अध्याय में ही 64 लिङ्गों का वर्णन है। ह्वेनसांग के अनुसार उसके समय में काशी में सौ मन्दिर थे और एक मन्दिर में भगवान् महेश्वर की 100 फुट ऊँची ताँबे की मूर्ति थी। किन्तु दुर्भाग्यवश विधर्मियों द्वारा काशी के सहस्रों मन्दिर विध्वस्त कर दिये गये और उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण किया गया। औरंगजेब ने तो काशी का नाम मुहम्मदाबाद रख दिया था। परन्तु यह नाम चला नहीं और काशी में मन्दिर फिर बनने लगे।
भगवान् विश्वनाथ काशी के रक्षक हैं और उनका मन्दिर सर्वप्रमुख है। ऐसा विधान है कि प्रत्येक काशीवासी को नित्य गङ्गास्नान करके विश्वनाथ का दर्शन करना चाहिए। पर औरंगजेब के बाद लगभग 100 वर्षों तक यह व्यवस्था नहीं रही। शिवलिङ्ग को तीर्थयात्रियों के सुविधानुसार यत्र-तत्र स्थानान्तरित किया जाता रहा (त्रिस्थलीसेतु, पृ० 208)। वर्तमान मन्दिर अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में रानी अहल्याबाई होल्कर द्वारा निर्मित हुआ। अस्पृश्यता का जहाँ तक प्रश्न है, त्रिस्थलीसेतु (पृष्ठ 183) के अनुसार अन्त्यजों (अस्पृश्यों) के द्वारा लिङ्गस्पर्श किये जाने में कोई दोष नहीं है, क्योंकि विश्वनाथजी प्रतिदिन प्रातः ब्रह्मवेला में मणिकर्णिका घाट पर गङ्गास्नान करके प्राणियों द्वारा ग्रहण की गयी अशुद्धियों को धो डालते हैं।
काशी में विश्वनाथ के पूजनोपरान्त तीर्थयात्री को पाँच अवान्तर तीर्थों-- दशाश्वमेध, लोलार्क, केशव, बिन्दुमाधव तथा मणिकर्णिका का भी परिभ्रमण करना आवश्यक है (मत्स्य०)। आधुनिक काल में काशी के अवान्तर पाँच तीर्थ 'पञ्चतीर्थी' के नाम से अभिहित किये जाते हैं और वे हैं गङ्गा-असी-संगम्, दशाश्वमेध घाट, मणिकर्णिका, पञ्चगङ्गा तथा वरणासंगम। लोलार्क तीर्थ असीसंगम के पास वाराणसी की दक्षिणी सीमा पर स्थित है। वाराणसी के पास गङ्गा की धारा तो तीव्र है और वह सीधे उत्तर की ओर बहती है, इसलिए यहाँ इसकी पवित्रता का और भी अधिक माहात्म्य है। दशाश्वमेध घाट तो शताब्दियों से अपनी पवित्रता के लिए ख्यातिलब्ध है। काशीखण्ड (अध्याय 52, 56, 68) के अनुसार दशाश्वमेध का पूर्व नाम 'रुद्रसर' है। किन्तु जब ब्रह्मा ने यहाँ दस अश्वमेध यज्ञ किये, उसका नाम दशाश्वमेध पड़ गया। मणिकर्णिका (मुक्तिक्षेत्र) काशी का सर्वाधिक पवित्र तीर्थ तथा वाराणसी के धार्मिक जीवनक्रम का केन्द्र है। इसके आरम्भ के सम्बन्ध में एक रोचक कथा है :
विष्णु ने अपने चिन्तन से यहाँ एक पुष्करिणी का निर्माण किया और लगभग पचास हजार वर्षों तक वे यहाँ घोर तपस्या करते रहे। इससे शङ्कर प्रसन्न हुए और उन्होंने विष्णु के सिर को स्पर्श किया और उनका एक मणिजटित कर्णभूषण सेतु के नीचे जल में गिर पड़ा। तभी से इस स्थल को 'मणिकर्णिका' कहा जाने लगा। काशीखण्ड के अनुसार निधन के समय यहाँ सज्जन पुरुषों के कान में भगवान् शङ्कर 'तारक मन्त्र' फूँकते हैं। इसलिए यहाँ स्थित शिवमन्दिर का नाम 'तारकेश्वर' है।
यहाँ पञ्चगङ्गा घाट भी है। इसे पञ्चगङ्गा घाट इसलिए कहा जाता है कि पुराणों के अनुसार यहाँ किरणा, धूतपापा, गङ्गा, यमुना तथा सरस्वती का पवित्र सम्मेलन हुआ है, यद्यपि इनमें से प्रथम दो अब अदृश्य हैं। काशीखण्ड (59.118-133) के अनुसार जो व्यक्ति इस पञ्चनदसंगम स्थल पर स्नान करता है वह इस पाञ्चभौतिक पदार्थों से युक्त मर्त्यलोक में पुनः नहीं आता। यह पाँच नदियों का संगम विभिन्न युगों में विभिन्न नामों से अभिहित किया गया था। सत्ययुग में धर्ममय, त्रेता से धूतपातक, द्वापर में बिन्दुतीर्थ तथा कलियुग में इसका नाम 'पञ्चनद' पड़ा है।
काशी में तीर्थयात्री के लिए पञ्चक्रोशी की यात्रा बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य है। पञ्चक्रोशी मार्ग की लम्बाई लगभग 50 मील है और इस मार्ग पर सैकड़ों मन्दिर हैं। मणिकर्णिका केन्द्र से यात्री वाराणसी की अर्द्धवृत्ताकार में परिक्रमा करता है जिसका अर्द्धव्यास पंचक्रोश है, इसीलिए इसे 'पंचक्रोशी' कहते हैं (काशीखण्ड, अध्याय 26, श्लोक 80 और 114 तथा अध्याय 55-44)। इसके अनुसार यात्री मणिकर्णिका घाट से गंगा के किनारे किनारे चलना आरम्भ करके अस्सीघाट के पास मणिकर्णिका से 6 मील दूर खाण्डव (कंदवा) नामक गाँव में रुकता है। वहाँ से दूसरे दिन धूपचण्डी के लिए (10 मील) प्रस्थान करता है। वहाँ धूपचण्डी देवी का मन्दिर है। तीसरे दिन वह 14 मील की यात्रा पर रामेश्वर नामक गाँव के लिए प्रस्थान करता है। चौथे दिन वहाँ से 8 मील दूर शिवपुर पहुँचता है और पाँचवें दिन वहाँ से 6 मील दूर कपिलधारा जाता है और वहाँ पितरों का श्राद्ध करता है। छठे दिन वह कपिलधारा से वरणासंगम होते हुए लगभग 6 मील की यात्रा करके मणिकर्णिका आ जाता है। कपिलधारा से मणिकर्णिका तक वह यव (देवान्न) बिखेरता हुआ आता है। तदुपरान्त वह गङ्गास्नान करके पुरोहितों को दक्षिणा देता है। फिर साक्षीविनायक के मन्दिर में जाकर अपनी पञ्चक्रोशी यात्रा की पूर्ति की साक्षी देता है।
इसके अतिरिक्त काशी के कुछ अन्य तीर्थ भी प्रमुख हैं। इनमें ज्ञानवापी का नाम उल्लेखनीय है। यहाँ भगवान् शिव ने शीतल जल में स्नान करके यह वर दिया था कि यह तीर्थ अन्य तीर्थों से उच्चतर कोटि का होगा। इसके अतिरिक्त दुर्गाकुण्ड पर एक विशाल दुर्गामन्दिर भी है। काशीखण्ड (श्लोक 37, 65) में इससे सम्बद्ध दुर्गास्तोत्र का भी उल्लेख है। विश्वेश्वरमन्दिर से एक मील उत्तर भैरवनाथ का मन्दिर है। इनको काशी का कोतवाल कहा गया है। इनका वाहन कुत्ता है। साथ ही गणेशजी के मन्दिर तो काशी में अनन्त हैं। त्रिस्थलीसेतु (पृ० 98-100) से यह पता चलता है कि काशी में प्रवेश करने मात्र से ही इस जीवन के पापों का क्षय हो जाता है और विविध पवित्र स्थलों पर स्नान करने से पूर्व जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं।
कुछ पुराणों अनुसार काशी में रहकर तनिक भी पाप नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसके लिए बड़े ही कठोर दण्ड का विधान है। तीर्थस्थान होने के कारण यहाँ पूर्वजों अथवा पितरों का श्राद्ध और पिण्डदान किया जा सकता है, किन्तु तपस्वियों द्वारा काशी में मठों का निर्माण अधिक प्रशंसनीय है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि प्रत्येक काशीवासी को प्रतिदिन मणिकर्णिका घाट पर गङ्गा स्नान करके विश्वेश्वर का दर्शन करना चाहिए। त्रिस्थलीसेतु (पृ० 168) में कहा गया है कि किसी अन्य स्थल पर किये गये पाप काशी आने पर नष्ट हो जाते हैं। किन्तु काशी में किये गये पाप दारुण यातनादायक होते हैं। जो काशी में रहकर पाप करता है वह पिशाच हो जाता है। वहाँ इस अवस्था में सहस्रों वर्षों तक रहकर परमज्ञान को प्राप्त होता है, तदुपरान्त उसे मोक्ष मिलता है। काशी में रहकर जो पाप करते हैं उन्हें यमयातना नहीं सहनी पड़ती, चाहे वे काशी में मरें या अन्यत्र। जो काशी में रहकर पाप करते हैं वे कालभैरव द्वारा दण्डित होते हैं। जो काशी में पाप करके कहीं अन्यत्र मरते हैं वे राम नामक शिव के गण द्वारा सर्वप्रथम यातना सहते हैं, तत्पश्चात् वे कालभैरव द्वारा दिये गये दण्ड को सहस्रों वर्षों तक भोगते हैं। फिर वे नश्वर मानवयोनि में प्रविष्ट होते हैं और काशी में मरकर निर्वाण (मोक्ष या संसार से मुक्ति) पाते हैं।
स्कन्दपुराण के काशीखण्ड (85, 112-113) में यह उल्लेख है कि काशी से कुछ उत्तर में स्थित धर्मक्षेत्र (सारनाथ) विष्णु का निवासस्थान है, जहाँ उन्होंने बुद्ध का रूप धारण किया था। यात्रियों के लिए सामान्य नियम यह है कि उन्हें आठ मास तक संयत होकर स्थान-स्थान पर भ्रमण करना चाहिए। फिर दो या चार मास तक एक स्थान पर निवास करना चाहिए। किन्तु काशी में प्रविष्ट होने पर वहाँ से बाहर भ्रमण नहीं होना चाहिए और काशी छोड़ना ही नहीं चाहिए, क्योंकि वहाँ मोक्ष प्राप्ति निश्चित है।
भगवान् शिव के श्रद्धालु भक्त के लिए महान् विपत्तियों में भी उनके चरणों के जल अतिरिक्त कहीं अन्यत्र स्थान नहीं है। बाह्याभ्यन्तर असाध्य रोग भी भगवान् शङ्कर की प्रतिमा पर पड़े जल के आस्थापूर्ण स्पर्श से दूर हो जाते हैं (काशीखण्ड, 67, 72-83)। दे० 'अविमुक्त'।
काशीखण्ड
स्कन्दपुराण का एक भाग, जिसमें तीर्थ के तीन प्रकार कहे गये हैं-- (1) जङ्गम, (2) मानस और (3) स्थावर। पवित्रस्वभाव, सर्वकामप्रद ब्राह्मण और गौ जङ्गम तीर्थ हैं। सत्य, क्षमा, शम, दम, दया, दान, आर्जव, सन्तोष, ब्रह्मचर्य, ज्ञान, धैर्य, तपस्या आदि मानस तीर्थ हैं। गङ्गादि नदी, पवित्र सरोवर, अक्षय वटादि पवित्र वृक्ष, गिरि, कानन, समुद्र, काशी आदि पुरी स्थावर तीर्थ हैं। पद्मपुराण में इस धरती पर साढ़े तीन करोड़ तीर्थों का उल्लेख है। जहाँ कहीं कोई महात्मा प्रकट हो चुके हैं, या जहाँ कहीं किसी देवी या देवता ने लीला की है, उसी स्थान को हिन्दुओं ने तीर्थ मान लिया है। भारतभूमि में इस प्रकार के असंख्य स्थान हैं। तीर्थाटन करने तथा देश में घूमने से आत्मा की उन्नति होती है, बुद्धि का विकास होता है और बहुदर्शिता आती है। इसलिए तीर्थयात्राओं को हिन्दू धर्म पुण्यदायक मानता है। तीर्थों में सत्सङ्ग और अनुभव से ज्ञान बढ़ता है और पापों से बचने की भावना उत्पन्न होती है।
काशीखण्ड' में काशी के बहुसंख्यक तीर्थों और उनके इतिहास एवं माहात्म्य का विस्तृत वर्णन पाया जाता है। काशीखण्ड वास्तव में काशीप्रदर्शिका है।
काशीमोक्षनिर्णय
मण्डन मिश्र ने इस ग्रन्थ का प्रणयन संन्यास ग्रहण करने के पूर्व किया था। काशी में निवास करने से मोक्ष कैसे प्राप्त होता है, इसका इसमें युक्तियुक्त विवेचन है।